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नोटबंदी के नफा-नुकसान

नोटबंदी का आम आदमी पर क्या असर पड़ा। इसका सीधा-सा जवाब है कि घटती अर्थव्यवस्था में रोजगार और कारोबार घटते हैं और वही हुआ भी, जिसका अनुभव देश के अधिकांश लोगों को हुआ है
नोटबंदी के दौरान कतार में खड़े लोग

आर्थिक मसलों की शब्दावली थोड़ी अलग होती है लेकिन दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी शब्दावली अर्थव्यवस्था के बदलावों को समझने में काफी मदद करती है। ये हैं हेल्थ और ऑटोमोबाइल सेक्टर। मसलन, अगर अर्थव्यवस्था में सुस्ती हो तो कहिए स्लोडाउन है। भारी गिरावट आ जाए तो क्रैश कहते ही फौरन समझ में आ जाता है। लेकिन जब अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने के उपायों की दरकार हो तो एक्सलरेशन फिट शब्द है। ये सभी शब्द ऑटोमोबाइल सेक्टर के हैं। दूसरी ओर हेल्थ से जुड़ा सिक (बीमार) शब्द अर्थव्यवस्था के बुरे हाल को आसानी से जाहिर कर देता है। सरकार जब अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बड़े कदम उठाती है तो उसे बूस्टर डोज कहा जाता है।

लेकिन कुछ ऐसे शब्द भी हैं जिनसे अर्थव्यवस्था का सामना करीब साल भर पहले हुआ। मसलन, सर्जिकल स्ट्राइक का इस्तेमाल कालेधन को समाप्त करने के कथित मकसद से आठ नवंबर, 2016 की शाम आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम संदेश में पहली बार हुआ। पर, समस्या यह हुई कि ऑपरेशन तो कामयाब रहा लेकिन पेशेंट यानी मरीज कुछ दिन कोमा में रहने के बाद अभी भी बिस्तर पर ही है। सरकार के इस कदम ने एक और नाम आर्थिक मामलों के लिए दिया, वह है नोटबंदी। हालांकि सरकारी भाषा में विमुद्रीकरण या अंग्रेजी में डिमोनेटाइजेशन जैसे भारी-भरकम और मुश्किल लगने वाले शब्द इसके लिए इस्तेमाल किए गए। लेकिन कुछ दिनों के बाद ‘नोटबंदी’ लोगों की जबान पर चढ़ गया और यह पूरे मुद्दे को ठीक से समझाने की कूवत रखता है।

शब्दों को छोड़, अब मुद्दे पर आते हैं। नोटबंदी के फैसले को साल भर होने जा रहा है। जब आउटलुक का यह अंक आपके हाथ में होगा तो देश के प्रमुख राजनैतिक दल नोटबंदी के नफा-नुकसान को लेकर सड़क से लेकर टीवी चैनलों की बहसों में जोर आजमाइश कर रहे होंगे। सत्ता पर काबिज एनडीए इसकी वर्षगांठ पर फायदे गिनाते हुए देश में एंटी ब्लैकमनी डे मनाएगा, जिसकी घोषणा वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में की। उधर, कांग्रेस समेत 18 विपक्षी दल इसकी बरसी पर काला दिवस मनाने की घोषणा कर देश भर में इस फैसले के खिलाफ प्रदर्शन करने की बात कर रहे हैं।

हालांकि देश में पहली बार नोटबंदी नहीं हुई। इसके पहले भी ऐसा हो चुका है लेकिन उससे प्रभावित होने वाले लोग और नोटों की संख्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी से प्रभावित लोगों और नोटों की संख्या के मुकाबले बहुत छोटी थी। मोदी के फैसले से 2402.3 करोड़ नोट एक ही झटके में कागज के टुकड़े बन गए, जिनका मूल्य 15.44 लाख करोड़ रुपये था और देश में चलन में रही कुल करेंसी का 86 फीसदी। अब ये ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत और राजा-महाराजाओं के दौर की तरह सिक्के तो थे नहीं कि कम से कम कुछ सोना, चांदी और तांबा जैसी धातुओं के रूप में कोई कीमत बची रहे। ये तो कागज के नोट थे। सो, जैसे ही सरकार ने उनकी लीगल टेंडर के रूप में वैधता खत्म की, ये कागज के टुकड़े बन गए। उनको दोबारा नोटों के रूप में तब्दील करने के लिए एक बड़ी और पेचीदगी भरी कवायद चली जिसमें कई अधिसूचनाएं जारी हुईं,  ताकि लोग काले धन को सफेद करने के लिए गलत रास्तों का फायदा न उठाएं। लेकिन हमारे देश के लोग भी बड़े कर्मठ हैं। उन्होंने पांच सौ और एक हजार रुपये के 99 फीसदी नोट वापस भारतीय रिजर्व बैंक को पहुंचा दिए। उसी रिजर्व बैंक को, जिसने अभी तक साफ नहीं किया है कि नोटबंदी के फैसले की प्रक्रिया क्या थी। उसे वापस आए नोटों की संख्या बताने में भी करीब दस माह लग गए।

यह इतना बड़ा ऐतिहासिक कदम है तो इस पर राजनीति तो होनी ही थी। होनी भी चाहिए क्योंकि देश के आम जन से जुड़ा मसला है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे ‘मोन्यूमेंटल डिजास्टर’ बताते हुए संसद में कह दिया कि इससे देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दो फीसदी गिर जाएगा। इत्तेफाक देखिए कि चालू वित्त वर्ष (2017-18) की पहली तिमाही के जीडीपी के आंकड़े आए तो जीडीपी की विकास दर वाकई एक साल पहले के मुकाबले दो फीसदी गिर गई।

लेकिन राजनैतिक रूप से संवेदनशील इस मुद्दे पर एनडीए अभी भी मजबूती से अड़ा है कि यह आर्थिक सुधार का बड़ा कदम है और यह जरूरी था। यह बात अलग है कि अब सरकार आधिकारिक रूप से स्वीकार कर रही है कि देश में आर्थिक सुस्ती है और उसे दूर करने के लिए करीब नौ लाख करोड़ रुपये का पैकेज घोषित किया गया। दरअसल, बड़ा और अहम सवाल यह है कि इसका आम आदमी पर क्या असर पड़ा। उसका सीधा-सा जवाब है कि घटती अर्थव्यवस्था में रोजगार और कारोबार घटते हैं और वही हुआ भी। नोटबंदी का यही अनुभव देश की अधिकांश जनता को हुआ है। यही वह बात है जो किसी भी बड़े फैसले के पहले नीति-निर्धारकों और नेताओं को सोचनी चाहिए, वरना जनता तो अपने तरीके से फैसले लेती ही है।

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