शेखावटी क्षेत्र में किसानों के आंदोलन को छोड़ दें तो बीते चार साल से राजस्थान की सत्ता में बनी भाजपा को अक्टूबर की शुरुआत से पहले किसी मुश्किल चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा था। लेकिन, पूर्व तथा वर्तमान न्यायाधीशों, अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों और लोकसेवकों को मुकदमों से बचाने के लिए अध्यादेश लाकर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की सरकार ने ऐसी रणनीतिक भूल कर दी, जो अगले साल सत्ता में वापसी की उसकी राह मुश्किल कर सकती है।
सात सितंबर को आपराधिक कानून (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश 2017 लागू कर सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों पर एफआइआर दर्ज कराने के लिए राज्य सरकार की अनुमति को अनिवार्य कर दिया गया। राज्य सरकार की मंजूरी के बिना अदालत शिकायत पर सीधे जांच का आदेश नहीं दे सकती। अध्यादेश को कानूनी जामा पहनाने के इरादे से सरकार ने 23 अक्टूबर को विधानसभा में विधेयक पेश करने की कोशिश की, लेकिन विरोध बढ़ने पर विधेयक प्रवर समिति को सौंप अब वह इस मामले से पल्ला झाड़ने की कोशिश करती दिख रही है।
शुरुआत में राज्य के गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया और संसदीय कार्य मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने प्रस्तावित कानून के पक्ष में दलीलें देकर विरोध को अनसुना करने की कोशिश की। बताया गया कि ठीक ऐसा ही कानून 2015 से महाराष्ट्र में लागू है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी ने विरोध को मीडिया ट्रायल बताकर खारिज करने की कोशिश की। लेकिन, जब पार्टी को महसूस हुआ कि वह विरोधियों को चुप कराने के लिए ठोस तर्क पेश नहीं कर पा रही है तो वह इससे निकलने का रास्ता तलाशने लगी। प्रमुख कैबिनेट सहयोगियों और अधिकारियों के साथ चर्चा करके राजे ने सियासी नफे-नुकसान का जायजा लिया। मीडिया में यह प्रचारित किया गया कि कानून को लेकर राज्य में शीर्ष नेतृत्व को अंधेरे में रखा गया था और फिर सरकार प्रवर समिति को विधेयक भेज मामले को ठंडे बस्ते में डालने में जुट गई।
हालांकि ऐसा करना भाजपा के लिए आसान नहीं दिखता। इसने विपक्ष को सरकार को घेरने का बैठे-बिठाए मुद्दा दे दिया है। अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिका पर 27 अक्टूबर को राजस्थान हाईकोर्ट ने प्रदेश के साथ केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी किया। भाजपा के भीतर भी राजे का विरोध शुरू हो गया है। घनश्याम तिवाड़ी और नरपत सिंह राजवी जैसे विधायक इसे ‘काला कानून’ बता रहे हैं। राजनैतिक जानकार भी इसे भाजपा सरकार की बड़ी रणनीतिक चूक मान रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक ईश मधु तलवार ने बताया, "अब तक भाजपा इमरजेंसी का हवाला देकर खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पैरोकार बताती थी। मगर इस अध्यादेश ने भाजपा का ऐसा रूप और चेहरा चित्रित किया है जो अभिव्यक्ति की आजादी को डराता है। इससे पता चलता है कि प्रचंड बहुमत का दुरुपयोग करने के लिए एक पार्टी अधिकारियों को बचाने के खातिर पत्रकारों को सजा का प्रावधान कर सकती है।" राजनैतिक समीक्षक डॉ. राजीव गुप्ता का मानना है कि घटती साख के कारण प्रदेश सरकार इस तरह का कानून लाने को मजबूर हुई। वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, "देश में सूचना के अधिकार का मार्ग प्रशस्त करने वाले राजस्थान जैसे राज्य में इस तरह का कानून लाने की कोशिश बेहद दुखद है।"
यह प्रकरण सत्ता सुख के इंतजार में बैठी कांग्रेस की विपक्ष्ा के तौर पर निष्क्रियता को भी दिखाता है। जब तक सरकार ने विधेयक लाने की घोषणा नहीं की, कांग्रेस को अध्यादेश की भनक भी नहीं लगी थी। मीडिया भी शुरुआत में इससे बेखबर था, जबकि प्रस्तावित कानून में प्रेस के लिए भी दंडात्मक प्रावधान किए गए हैं। इस पर सबसे पहले सामाजिक संगठनों ने हल्ला मचाया।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की कविता श्रीवास्तव ने प्रावधानों को काला कानून बताते हुए सरकार के खिलाफ सड़क से अदालत तक मोर्चा खोलने का ऐलान किया। इसके बाद नागरिक अधिकार संगठन, राजनैतिक दल और मीडिया संस्थान मैदान में आए और फिर यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना। इसके विरोध में पूरे प्रदेश में पत्रकारों और वकीलों ने मार्च निकाला।
इतने सियासी बवाल के बीच अध्यादेश अब भी वजूद में है। लेकिन, राजनैतिक समीक्षकों का मानना है कि सरकार अब इस अध्यादेश को कानून की शक्ल देने की कोशिश नहीं करेगी। समय के साथ वह खुद अपनी मौत मर जाएगा।