अब तक के इतिहास में दुनिया की सभी क्रांतियों में रूसी क्रांति जैसा व्यापक अंतरराष्ट्रीय असर और किसी का नहीं रहा। यही नहीं, वह एकाधिक नए स्वरूप में ढलने में भी कामयाब रही, जिसकी मिसाल बमुश्किल ही मिलती है। ब्रितानी क्रांति तो इंग्लिश चैनल ही पार नहीं कर पाई, कुछेक अमेरिकी उपनिवेशों, मेरीलैंड से लेकर मैसाचुसेट्स के बीच विरली आबादी वाली पट्टी में उसका हल्का-सा असर दिखा। अमेरिकी क्रांति की आजादी की अपील अमेरिकी महादेशों तक ही सीमित रही, बस उसका असर 1902 में फिलीपींस में स्थानीय लोगों के साथ खुले युद्ध के बाद ही कुछ हद तक दिखा। वैसे, उस क्रांति के करीब डेढ़ सदी बाद शीत युद्ध के दौरान ही जब अमेरिकी लोकतंत्र परिपक्व हो गया, तो जेफरसन और जैकसन की भाषा और अन्य संस्थाओं से अलग एक समकालीन स्वरूप ही दूसरे देशों का ध्यान खींच पाया। दुनिया भर में असर के मामले में रूसी क्रांति से होड़ लेने वाली इकलौती फ्रांसीसी क्रांति नेपोलियन के दौर में कुछ नएपन के बाद तेजी से स्थानीय कर्मकांड का ही हिस्सा और बस इतिहास की बात बनकर रह गई। या कहें क्रांतिकारियों के लिए उस दस्तावेज की तरह बन गई कि क्या सही, क्या गलत हो सकता है।
रूसी क्रांति ने तो 20वीं सदी में ही तीन बार अपना चोला बदला, उसी पदावली और भाषा के साथ और दावा किया कि यही अक्टूबर 1917 के महान परिवर्तन का सिलसिला है। इस तरह उसी साल हुई फरवरी क्रांति से अपने को अलग किया, अलबत्ता ऐतिहासिक क्रम में उसका हिस्सा जरूर बताया। पहले, क्रांति के बाद वाले दशक में समाजवादी पहल पर जोर रहा, फिर स्तालिन के दौर में उन विचारों को औद्योगिक भविष्य की खातिर नई शक्ल में ढाला गया, और आखिरकार शीतयुद्ध के दौरान दुनिया के लिए एक समाजवादी नीति पर अमल का दावा किया गया। 1917 का वर्ष बेमिसाल समाजवादी घटना के रूप में दुनिया भर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों की व्यक्तिगत और सामाजिक याददाश्त में खास जगह बना गया। अलबत्ता हर किसी के लिए इसके मायने अलग हो सकते हैं, उसके प्रतीकों और आम बातों की नकल के तरीके अलग हो सकते हैं।
बावजूद इसके, 21वीं सदी की शुरुआत के साथ ही रूसी क्रांति की अहमियत कम्युनिस्टों की लगातार सिकुड़ती जमात या अकादमिक क्षेत्र के संबंधित लोगों के अलावा खास नहीं रह गई है। उसके सबक बेहद सामान्य समझ-बूझ से अधिक मायने नहीं रखते। उसके अपने देश में उसकी सालगिरह और शताब्दी लगातार छीजते कम्युनिस्ट प्रतिरोध या इतिहास के एक ऐसे अध्याय की याद दिला जाती हैं, जिसे रूस के अतीत के दूसरे अहम कालक्रमों में ही जोड़कर देखा जाता है। शायद उसका आकलन भी ऐसे किया जाता है जिसमें भविष्य के लिए कुछ खास नहीं था। इस परिवर्तन के घटने में चौथाई सदी से भी कम समय लगा। और इसे बड़े आराम से खुशी-खुशी 1991 में सोवियत संघ के बिखरने और दुनिया भर में साम्यवाद के पराभव से जोड़ दिया जाता है। आखिर यही तो रूसी क्रांति और उसकी विरासत के दो कर्णधार थे।
अगर इसकी महज तफसील ही जाननी हो तो दुनिया में जानकारी का स्तर बेहद असंतोषजनक जान पड़ेगा। इस असंतोष का एक सबूत तो यही है कि कितने असहज ढंग से क्रांति को याद किया जाता है। कोई यह सीधे-सीधे स्वीकार नहीं करता कि वह अध्याय बीत चुका है, कि वह दौर गुजर चुका है और इतिहास का वह पन्ना हमेशा के लिए बंद हो चुका है। अलबत्ता यह इशारों में या बौड़मपने से तो कहा जाता है। रूस में ही कुछ देर से ही सही, दिसंबर 2016 में राष्ट्रपति कार्यालय ने कुछ बेमन से क्रांति की सदी मनाने का फैसला किया। लेकिन अगले आठ महीने तक तकरीबन कुछ नहीं किया गया। चीन में, जन गणराज्य चीन में मामूली ही चर्चा हुई। हालांकि नवंबर में सेंट पीटर्सबर्ग और मास्को की कम्युनिस्ट यात्राएं जरूर आयोजित की गईं। भारत में उसके माकूल हलकों में क्या कहा जाता है, यह अभी सुनना बाकी है।
सार्वजनिक बहसों और मंचों पर क्रांति को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया मिलती है और खास उत्साह नहीं दिखता। नीरस अकादमिक लोगों के रिकॉर्ड में भी कोई साफ नजरिया नहीं दिखता, जैसा कि हिस्ट्री ऑफ कम्युनिज्म के तीन खंडों से जाहिर होता है। सो, पक्के पैरोकारों की उद्धोषणाओं के अलावा क्रांति और उसके नतीजे का कैसे मूल्यांकन किया जाए, यह अभी भी पूरी तरह अस्पष्ट है। इसलिए ये हालात गहरे सोच-विचार और चिंतन-मनन की मांग करते हैं। उस विचारधारा के पैरोकारों की सरपरस्ती या उस पर अमल से अधिक मौजूदा दौर में उस पर फोकस के अभाव की व्याख्या तलाशना मुश्किल नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि क्रांति के बाद या मौजूदा प्रतिक्रांति के दौर के सिलसिले को बताने की अक्षमता उसी दुविधा और असहजता से जन्मी है जो क्रांति के एजेंडे को स्थापित सत्ताओं के इतर देखने में होती है। यह गहरा एहसास बना रहता है कि उस एजेंडे का तो अधिकांश जायज है और उस लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में उठाए गए कदम आंशिक तौर पर तो सफल रहे। उस क्रांति के हर दौर में उठाए गए अनेक मुद्दे 21वीं सदी की शुरुआत में भी दुनिया भर में चुनौती बने हुए हैं। मसलन, जैसा कि थॉमस पिकेटी ने अपने अध्ययन में दिखाया है कि सामाजिक गैर-बराबरी दुनिया भर में बेपनाह बढ़ रही है और उसी पैमाने पर देशों के बीच गैर-बराबरी की खाई भी चौड़ी हो रही है। लेकिन, मोटे तौर पर क्रांति की पैरोकारी का मतलब उसके नाम पर किए गए पापों से भी सहानुभूति रखना माना जाता है। ऐसी सहानुभूति को जायज बताना, खासकर अहम हलकों में अशोभनीय और अस्वीकार्य है।
वाकई वे यादगार लम्हे तो हैं कि फरवरी और अक्टूबर की क्रांतियों के दौरान रूसी क्रांति दुनिया में सबसे समतामूलक गणराज्य की स्थापना की महती राजनैतिक पहल से जुड़ी थी। अक्टूबर के बाद क्रांतिकारी सत्ता प्रतिष्ठान ने सोवियत लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना के साथ संसदीय लोकतंत्र की एक गंभीर समालोचना प्रस्तुत की, जिस ओर बेबर और मार्क्स के बाद पैरेटो, मोस्का और माइकल्स जैसे दिग्गज ध्यान दिला चुके थे। उसके बाद अक्टूबर क्रांति को संदर्भ बिंदु मानकर सोवियत राज्य ने शहर और गांवों, उद्योग और खेती-किसानी में आर्थिक गैर-बराबरी मिटाने की नीति अपनाई। युद्धस्तर पर साम्यवाद के तौर-तरीकों ने नई आर्थिक नीति में अपनी सीमाओं के लिए छूट लेने को मौका मुहैया करा दिया। सोवियत संघ इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या की राह पर चल पड़ा जिसने उसे आधुनिकता और प्रगति की ओर प्रशस्त किया। यह सार्वजनिक मालिकाने (सरकारी पूंजीवाद) के सिद्धांत पर केंद्रित था और समता स्थापित करने की ओर अग्रसर था, जिसमें पुराने कुलीनों, संपत्तिशाली वर्गों और बोल्शेविक विरोधियों के लिए कोई जगह नहीं थी।
यह अलगाव और 1919-21 के गृहयुद्ध के मुश्किल हालात पूरी एक पीढ़ी को झेलना पड़ा। लाखों लोगों ने देश छोड़ दिया। बोल्शेविकवाद की निरंकुशता नहीं भुलाई जा सकेगी, न ही पहली सोवियत गुप्तचर पुलिस चेका की ज्यादतियों को। ये यादें देश से बाहर गए प्रवासियों के जेहन में बनी रहीं और पेरिस में वाइएमसीए प्रेस जैसे प्रकाशन संस्थानों से प्रसारित होती रहीं। इन प्रवासियों को यूरोप और अमेरिका में संरक्षक भी मिले और किताबों की शक्ल में उनके तल्ख अनुभव सामने आए। बाशकिर विद्वान क्रांतिकारी जेकी वेलिदी टोगान जैसे राष्ट्रवादियों को तुर्की में पनाह मिली, जिनके आंदोलन को बोल्शेविकों ने हथिया लिया था। लेकिन सोवियत संघ में अक्टूबर क्रांति का अहम स्वरूप 1930 के दशक में स्तालिन के नेतृत्व में उभरा। योजनागत अर्थव्यवस्था के तहत सार्वजनिक मालिकाने पर आधारित उद्योगों और कृषि में समतामूलक प्रगति का रास्ता प्रशस्त हुआ। उस समय पश्चिम में मंदी के विपरीत नए स्टील शहरों के उत्पादन केंद्र लहलहा रहे थे और 1941-45 में जर्मन फौज के हमलों में भी बाजाप्ता खड़े रहे।
उन दशकों (1929-33) में सामूहिक कृषि के भयावह नतीजे भी देखने को मिले, जिसे निखिता ख्रुश्चेव ने गृहयुद्ध की संज्ञा दी थी। इन हालात और कम्युनिस्ट पार्टी में कइयों के साथ स्तालिन के तनावपूर्ण रिश्तों से जब्ती, गिरफ्तारियों और फौरी सजा सुनाए जाने के नजारे दिखे। ये फौरी न्याय या सजा सीक्रेट पुलिस की दोयका या ट्रोयका (दो या तीन सदस्यों के न्यायाधिकरण) सुनाया करते थे, जो अमूमन कठोर दंड यानी फांसी की सजा की बात करते थे। 1937-38 के दो साल में ही सोवियत अधिकारियों के मोटे आंकड़ों के मुताबिक राज्य सुधार प्रणाली (गुलाग) के तहत 7,00,000 को सजा सुनाई गई। बाद में युद्ध के दौरान बहादुरी की गाथा के बावजूद जर्मन फौजों के यूक्रेन और दक्षिणी रूस में गहरे पैठने के बाद मिलीभगत के संदेह में कई मूल स्थानीय समुदायों (कालीमिक, वोल्गा जर्मन, क्रिमिया के तातार, चेचन) को स्थायी प्रवास पर चला जाना पड़ा।
1950 के दशक में शीतयुद्ध के दौरान सोवियत मॉडल के निर्यात का जज्बा पैदा हुआ। अफ्रीका, पश्चिम एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में यह निर्यात क्रांति की विरासत को आगे ले जाने का अहम संकेत था। यह दुनिया भर में राष्ट्रीय मुक्ति का वही अभियान था, जो 1919 में कमिनटर्न की स्थापना के दौरान शुरू किया गया था। क्रांति अब आर्थिक और राजनैतिक बराबरी की पैरोकार वैश्विक ताकत के रूप में परिभाषित की जाने लगी थी। दो घटनाक्रमों उभरती समाजवादी महाशक्ति और औपनिवेशिक दासता के खिलाफ उभरे राष्ट्रवाद को एक पतली-सी मगर बेहद अहम नाभि-नाल से जोड़ दिया गया था। पचास के दशक में भिलाई के इस्पात कारखाने से लेकर कास्त्रो के क्यूबा, नेटो के अंगोला में हीरे के सहयोगी उद्यम, इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और सत्तर के दशक में मेंगिस्तू के इथोपिया तक क्रांति की धारा एक नया सम्मान हासिल कर रही थी।
पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ में इसका एक अलग ही रूप था। स्लैंस्की मुकदमे, हंगरी में नृशंसताओं सीक्रेट पुलिस की लगातार पहरेदारी से नाराजगी उभर रही थी। ब्रेझनेव की अफसरशाही के तहत स्तालिनवाद के काले पक्ष पर चुप्पी से सोवियत संघ में पार्टी की साख गिरने लगी। नए दौर में नए सवाल उठ रहे थे, जैसे पर्यावरण और शिक्षा के नए मोर्चे खुल रहे थे लेकिन सेंसरशिप और लालफीताशाही ने नए विचारों और अनुसंधानों पर रोक लगा रखी थी।
क्रांति के पहरुए ठस्स दिमाग के टेक्नोक्रेट में बदल गए थे। दुनिया में सबसे बड़े देश के नेता बिना कुछ सोचे-विचारे क्रांति के मुहावरे मशीन की तरह रट रहे थे। वे क्रांति को बेहद रूखे और अफसरी लहजे में बयान कर रहे थे। इन सब खामियों को एम.एस. गोर्बाचेव की क्रांति की नई परिभाषा पेरेस्त्रोइका से दुरुस्त करने का सोचा गया, जो 1987 में क्रांति की सालगिरह पर उसके मूल मानकों को जगाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन इस नई कोशिश को सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अफसरी तेवरों और आंतरिक कलह से जूझना पड़ा। साथ ही, यह नई कोशिश दुनिया में समकालीन नजरिए के फर्क से दो-चार नहीं थी। कट्टर अनुदारवादियों थैचर और रीगन की नजर में स्वीकार्यता से उन्हें चुनौती के रूप में मिली क्रांति की छवि धूमिल हो गई।
इस तरह 1989-91 के उस अहम मोड़ पर एक तरफ अक्टूबर 1917 रूसी क्रांति का तकरीबन 70 साल से वह केंद्र था, जो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के बरक्स आधुनिकता का प्रतीक बना हुआ था, जिसकी धड़कन लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के कई देशों में सुनाई दे रही थी। लेकिन इसके नए पैरोकारों की दिशा अस्पष्ट थी। नई परिभाषाएं गढ़ने के फेर में शिकार बन बैठे इलाके रूस की राह चले और 1991 में एक साझा मकसद मिल गया। जैसा कि 1989 में बर्लिन की दीवार टूटने के बाद पूर्वी यूरोप में हुआ। रूस में ऐसे छुटभैये उभरे जो फिर चिपके ही रहे।
लेकिन जो बच गया, वह महत्वपूर्ण है। इस फेहरिस्त में पूर्व सोवियत संघ समेत कई देशों की कम्युनिस्ट पार्टियां या उन जैसी पार्टियां हैं (मसलन, यूरोपीय संघ की संसद में वाम पक्ष कहलाने वाले)। इसी के साथ 20वीं सदी में वर्चस्वशाली विश्व व्यवस्था को चुनौती के स्पष्ट इतिहास को भी गिना जाना चाहिए। सो, क्रांति को इतिहास के गर्त में डालना आसान नहीं है, उसकी विरासत प्रशंसकों और पहरुओं से खाली नहीं है, जो उसकी दूर की छवियों से ही अभिभूत हैं। शीत युद्ध के दौर के प्रतिकूल प्रचार सामग्रियों या गुलाग के उलट ऐसा इतिहास ज्यादा प्रभावी है, जो सेंट पीटर्सबर्ग राजनैतिक इतिहास संग्रहालय में उपलब्ध है।
क्रांति की नई परिभाषाओं की तलाश और उसकी स्मृतियां अब अतीत की वस्तु होकर रह गई हैं। दुनिया में अक्टूबर 1917 की मौजूदगी अब सिर्फ जलसों, बैनरों और आयोजनों में सिमट कर रह गई है। सोवियत संघ के बिखरने के 25 साल बाद दुनिया में जब पूंजीवाद का एकछत्र बोलबाला है तो अक्टूबर 1917 की क्रांति बियावान में चली गई है। फिर भी दुनिया के नए परिदृश्य में जब अतीत के समाधानों पर नजर जाएगी तो वह इतिहास अगली पीढ़ियों को याद आता रहेगा। अक्टूबर इंकलाब की शताब्दी पर सात नवंबर को मास्को के लाल चौक पर कोई लाल बैनर नहीं होगा, कोई प्रवक्ता मंच से प्रावदा और इजेवेसिया से पढ़कर दुनिया के हाल नहीं बताएगा, कम्युनिस्ट पार्टी की पटकथा के मुताबिक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए कतारों में आगे बढ़ रहे लोगों पर छींटाकशी करने वाले असंतुष्ट और पुराने प्रवासी भी बगल में कहीं खड़े नहीं होंगे। लेकिन दुनिया भर में वह साहसिक कहानियां जरूर होंगी जो मौजूदा दौर में भूमंडलीकरण के तहत पूंजीवाद के पापों से पीडि़त लोगों की जुबान पर होंगी।
क्रांति की दुनिया भर में अनिवार्य मौजूदगी भले न रही हो लेकिन यह अभी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि उसकी विरासत या उन प्रेरक छवियों की ताकत हमेशा के लिए खो गई है।
(लेखक कोलकाता विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में यूजीसी प्रोफेसर एमेरिटस हैं)