उनके जन्म के 19 नवंबर, 2017 को सौ साल पूरे हो रहे हैं। सौ साल पहले इसी दिन युवा वकील जवाहरलाल नेहरू और उनकी पत्नी कमला नेहरू के घर बेटी जन्मी थी। पहले ही दिन से इंदिरा की जिंदगी उन हालात और लोगों से बावस्ता थी जिनसे आगे चलकर भारत और विस्तृत दुनिया को नई दिशा मिली। उस दौर का भारत आज से एकदम अलग था। दुनिया भी अलग थी। दस ही दिन पहले रूस में बोल्शेविकों ने सत्ता हासिल की थी। 1918 में यूरोप में बंदूक के दम पर लोगों को शांत किया जा चुका था। अगले साल अप्रैल में, अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था, जो एक तरह से ब्रिटिश हुकूमत के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ।
आम लोगों के जेहन में इंदिरा गांधी की दो छवियां उभरती हैं, एक नहीं। प्रशंसक उनकी बांग्लादेश युद्ध में जीत की बात करते हैं, जब इंदिरा हर मुश्किल से पार पाने में कामयाब हुई थीं। हरित क्रांति की बात करते हैं, जिससे दाने-दाने को मोहताज भारत कुछ ही साल के अंदर खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बन गया। आलोचकों की नजर में ठीक उसी दौर में, कांग्रेस में आंतिरक लोकतंत्र कमजोर होता गया। 1969 के बाद जो स्थितियां बनीं, उनसे ही इमरजेंसी की नींव पड़ी। बाद में कांग्रेस एक परिवार के नेतृत्व वाली पार्टी बन गई। इमरजेंसी 21 महीने ही रही, पर वह भारतीय लोकतंत्र पर एक धब्बे की तरह है।
दोनों तरह के नजरिए में दम है, लेकिन ये दोनों इंदिरा की पूरी कहानी नहीं बताते। वे अपने दौर में उभरी नेता तो थीं, लेकिन उनमें इतिहास की धारा को बदलने का माद्दा भी था। उन्हें नेतृत्व विरासत की वजह से मिला, लेकिन बेहद कम उम्र में उन्होंने अपनी ललक और साहस का परिचय दे दिया था। अमूमन यह बात भुला दी जाती है कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान इंदिरा ने दो साल राजनैतिक कैदी के तौर पर बिताए थे। यह बात भी लोगों के जेहन में नहीं रहती कि दस साल की उम्र में जब उनसे पूछा गया था कि घर के बड़े लोग कहां हैं, तो उनका जवाब था, “सभी जेल गए हैं।”
जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा के बीच खतों का सिलसिला 1927 से शुरू हुआ था और यह नेहरू के निधन से 10 दिन पहले तक चलता रहा था। इन खतों को देखकर अंदाजा लग जाता है कि इंदिरा मजबूत इच्छाशक्ति वाली थीं। वह कई बार अपने ‘पापू’ से ज्यादा अपनी बातों को तरजीह देती थीं।
वे 1952 के आम चुनावों से ही पार्टी के लिए कैंपेनर की भूमिका में थीं और कुछ समय तक कांग्रेस अध्यक्ष भी रहीं। इन सबके बावजूद वे नेहरू के बाद प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में शामिल नहीं थीं। नेहरू की सत्ता को पहली बार अक्टूबर, 1962 के भारत-चीन युद्ध ने धक्का पहुंचाया था। इसके बाद कामराज योजना के तहत 1963 में सभी कद्दावर नेताओं को कैबिनेट से बाहर जाना पड़ा था। उनके उत्तराधिकारी का चयन स्पष्ट तौर पर कर लिया गया था। इस्पाती हौसले मगर मधुर बोलने वाले लाल बहादुर शास्त्री को लेकर पार्टी एकजुट थी और उन्हें नेहरू मंत्रिमंडल में बिना किसी विभाग के मंत्री भी बनाया गया था।
ऐसे में इंदिरा गांधी का वास्तविक तौर पर उभरना धीरे-धीरे ही हो पाया था। 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने केरल की चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने की वकालत की थी। 1962 के आम चुनाव के दौरान पार्टी के उम्मीदवारों के नाम तय करने वाली तीन सदस्यीय समिति में इंदिरा शामिल थीं। बाकी के दो लोग थे-नेहरू और शास्त्री।
जनवरी, 1966 में उनके प्रधानमंत्री बनने में भी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष और किंगमेकर कामराज नाडर की अहम भूमिका रही थी। तब केंद्र के बड़े-बड़े नेताओं और राज्य के क्षत्रपों को लगा था कि कमजोर-कोमल इंदिरा पर आसानी से नियंत्रण रखा जा सकता है। हालांकि इसके बाद जो हुआ वह इतिहास ही है।
हालांकि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से उनके टकराव को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि संसदीय लोकतंत्र में कौन ज्यादा ताकतवर होता है-प्रधानमंत्री या फिर पार्टी अध्यक्ष। इसका जवाब नेहरू के उस कदम में देखा जा सकता है जब उन्होंने पार्टी अध्यक्ष आचार्य कृपलानी को हराया था। इंदिरा गांधी के समय में भी ऐसा ही होना था, लेकिन उन्होंने पार्टी के अंदर विभाजन को लेकर कोई हिचक नहीं दिखाई। पुराने सिंडिकेट नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
यह विभाजन उनके अमेरिका से दोस्ती गांठकर लौटने के बाद हुआ था। अपनी पहली विदेश यात्रा के तौर पर इंदिरा गांधी 1966 में वाशिंगटन गई थीं, जिसके चलते भारत को खाद्यान्न सहायता मिली थी। अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन ने वियतनाम युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी नेता के तौर पर देखा था और उन्होंने इंदिरा के साहस की प्रशंसा की थी।
इसके बाद रुपये के अवमूल्यन के मुद्दे पर इंदिरा और कामराज के बीच मतभेद हो गया। बाजार समर्थक नीतियों का फायदा इंदिरा को राजनीति में नहीं मिला। लेकिन यह पहला मौका नहीं था जब इंदिरा ने अपना रास्ता बदला था। उन्होंने एलके झा की जगह पीएन हक्सर को प्रमुख सचिव नियुक्त किया। युवा नेता, खासकर चंद्रशेखर उनकी राजनैतिक चाल के अहम मोहरा बन चुके थे।
इंदिरा के कदम तेज और निर्णायक हुआ करते थे। रजवाड़ों के प्रिवीपर्स को समाप्त करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने उन्हें वामपंथी प्लेटफॉर्म भी मुहैया करा दिया। यह वह दौर था जब पूरब और दक्षिण भारत में वामपंथ को लेकर असंतोष दिख रहा था। इन सबका इस्तेमाल उन्होंने विद्रोह को दबाने में किया। 1971 के मध्यावधि चुनाव आते-आते इंदिरा अलग शख्सियत बन चुकी थीं। 1967 में 'गूंगी गुड़िया' की अपनी छवि के विपरीत वे अब बड़ी वक्ता बन गई थीं। 'गरीबी हटाओ' का नारा उस चुनाव में गेम चेंजर साबित हुआ। किसी भारतीय नेता ने समता मूलक समाज का सपना ऐसे नहीं दिखाया था।
उसी दौर में पूर्वी पाकिस्तान में हालात बिगड़ने लगे। बांग्लादेश की आजादी को लेकर हुए युद्ध और उसके बाद इंदिरा गांधी ने कई पड़ाव एक साथ तय कर लिए। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन का ‘झुकाव’ पाकिस्तान की तरफ था, जिसके दम पर पाकिस्तानी सेना ने एक तरह से पूर्वी पाकिस्तान में लाखों नागरिकों का कत्लेआम किया। लेकिन इंदिरा गांधी के पक्ष में वैश्विक समुदाय, प्रमुख यूरोपीय नेता और अमेरिकी कांग्रेस के लोग भी थे, जो भारत का पक्ष ले रहे थे। ढाका में 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था। स्टालिनग्राद के बाद इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों का समर्पण पहली बार देखने को मिला। इसके बाद शिमला समझौता हुआ। इस समझौते के तहत ही अगले 45 साल तक भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत चलती रही।
मिथकों से अलग, इंदिरा न तो सोवियत समर्थक थीं और न ही अमेरिका विरोधी। उन्होंने संतुलित रुख अपनाया था, जबकि उस वक्त एशिया एक नहीं, दो-दो शीत युद्धों का गवाह था अमेरिका-सोवियत युद्ध और चीन-अमेरिका युद्ध। उन्होंने 1976 में चीन के साथ संबंधों को दुरुस्त करने के लिए कदम उठाए और पूर्ण राजनैतिक संबंधों की शुरुआत की। वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष राबर्ट मकनामारा की मदद से उन्होंने अमेरिका के साथ संबंधों की फिर से शुरुआत की। अपने दूसरे दौर में, इंदिरा की अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से अच्छी केमेस्ट्री बन गई थी। उन्होंने ब्रिटेन से जगुआर जेट फाइटर विमान डील करके यह भी दिखा दिया था कि वे व्यावहारिक नजरिए वाली नेता हैं।
घरेलू मोर्चे पर 1971-72 का दौर उनके राजनैतिक कॅरिअर का शीर्ष साबित हुआ, जिसे वे दोबारा हासिल नहीं कर पाईं। युद्ध के खर्च और बढ़ती तेल कीमतों के चलते लोगों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का सपना मुश्किल होने लगा। 1974 तक ‘गरीबी हटाओ’ का सपना चकनाचूर हो गया था। इसके बाद उन्हें रेलवे यूनियन की अखिल भारतीय हड़ताल का सामना करना पड़ा। ऐसे में उन्हें सख्त कदम उठाने पड़े।
जून 1975 में लगाई गई इमरजेंसी केवल इंदिरा गांधी के अपने अड़ियल रवैए का ही नतीजा नहीं था, बल्कि एक वजह उस दौर की राजनीति में गहरे पैठा रोग भी था। भारत ने भी दूसरे देशों-पाकिस्तान, बांग्लादेश और फिलीपींस या फिर दूसरे तमाम देशों की तरह संकट का सामना किया है। राज्य की शासन व्यवस्था के सामने लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करना संभव नहीं होता है और इसके चलते सरकारें लोगों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश करती हैं। हालांकि भारत में परिस्थितियां कुछ अलग थीं। इंदिरा के नए विरोधी जयप्रकाश नारायण ने विरोध का पुराना तरीका अपनाया। उन्होंने बस यही कहा कि भ्रष्ट शासकों को जाना होगा। इसका जवाब पहले इंदिरा ने सत्ता की ताकत से दिया और उसके बाद इमरजेंसी लगाई। रणनीतिक तौर पर उस वक्त भले उन्होंने विद्रोह को दबा दिया, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था से खिलवाड़ करने की कीमत उन्हें चुकानी ही पड़ी।
नागरिक अधिकारों का दमन और विपक्षी नेताओं की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी विपक्ष की एकजुटता का कारण बना। 1977 के शुरुआती दिनों में कांग्रेस विरोधी पार्टी का अस्तित्व सामने आया। झुग्गी झोपड़ियों को हटाए जाने और जबरन नसबंदी कराने के अभियान ने ग्रामीण और शहरी गरीबों के भरोसे को भी हिला दिया। यही वह तबका था जो बांग्लादेश युद्ध के बाद 1971 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इंदिरा के समर्थन में आया था।
उनके आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि जनवरी, 1977 में चुनाव की घोषणा करना उनका बेहतरीन समय नहीं था, बल्कि करारी हार के बाद उनका गरिमामयी ढंग से जाना, बेहतरीन समय था। लेकिन उनके अंदर का आंदोलनकारी तुरंत ही सक्रिय हो उठा। जनता सरकार जब बिखरने लगी तो इंदिरा को अपनी खोई जमीन हासिल करने का मौका मिल गया। लेकिन बदलाव के इस दौर में ऐसा कुछ हुआ जिसका दूरगामी असर देखने को मिला। कांग्रेस में एक बार फिर विभाजन हुआ और इस बार यह स्पष्ट था कि इंदिरा की विरासत को कौन संभालेगा। इमरजेंसी के दिनों का सबसे ज्यादा फायदा संजय गांधी को हुआ और कांग्रेस की वापसी में उनकी भूमिका अहम रही।
‘इंदिरा लाओ, देश बचाओ’ के नारे के साथ इंदिरा गांधी जनवरी, 1980 में सत्ता में लौटीं। 1979-80 के साल में आर्थिक विकास की दर शून्य से पांच फीसदी नीचे जा चुकी थी। लेकिन नए दशक के पहले साल में आर्थिक विकास की दर पांच फीसदी तक पहुंच चुकी थी। इंदिरा गांधी की जीवनी लिखने वाले इंदर मल्होत्रा ने 1980 के दौर के बाद काफी कुछ लिखा है। उन्होंने कहा है कि वह नियंत्रण नहीं खोती थीं, लेकिन वे दमदार तरीके से वापस नहीं लौट सकीं।
लेकिन अब बात उनकी उस विरासत की, जो किसी त्रासदी जैसी है। एक युवा के तौर पर इंदिरा ने पुराना किला के शरणार्थी कैंपों में मुस्लिम लोगों के लिए काम किया था। इसके अलावा उन्होंने पंजाब और सिंध से विस्थापित हुए लोगों के लिए कैंपों में काम किया था। ऐसे में किसी तरह की सांप्रदायिक राजनीति के उन पर निशान दिखना मुश्किल है। 1981 में दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में उन्होंने भारत की तुलना सलाद के कटोरे से करते हुए कहा था कि यहां कई पहचान वाले एक साथ आसानी से रह सकते हैं।
लेकिन आपके काम, आपके शब्दों से ज्यादा बोलते हैं। यह वह दौर था जब कांग्रेस में नरम हिंदुत्व की राजनीति का दौर शुरू हुआ था। फरवरी, 1983 में दिल्ली नगर निगम के चुनाव में कांग्रेस को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन मिला था। जम्मू-कश्मीर फारूक अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार को राज्यपाल जगमोहन के जरिए बर्खास्त करने से फिर अस्थिरता के दौर में पहुंच गया। पंजाब में, कट्टर दमदमी टकसाल के साथ गठजोड़ ने शहरी उत्तर भारत में सिख विरोधी भावनाओं को बढ़ाया। 1984 की शुरुआत में पानीपत में हुई हिंसा एक तरह से इंदिरा गांधी के हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों की पूर्व झलक थी।
एक तरह से इंदिरा गांधी आग से खेल रही थीं। जून, 1984 तक ऐसी स्थिति बन गई जिसमें ऑपरेशन ब्लू स्टार को टालना नामुमकिन हो गया था। यह एक तरह से घातक गलती, उनकी राजनीति की बड़ी असफलता थी।
इंदिरा गांधी का अंत काफी जघन्य और दुखद रहा। उनका मूलमंत्र, अपने आदर्श जॉन ऑफ ऑर्क की तरह ‘देश हित सबसे पहले’ था। लेकिन क्या वह ऐसा कर पाईं? उन्होंने भारत की सबसे पुरानी पार्टी को नया अंदाज दिया और दक्षिण एशिया के नक्शे को बदल दिया। भारत परमाणु शक्ति संपन्न देश बना। अंतरिक्ष युग में प्रवेश करने में कामयाब रहा। भारत ने नई बुलंदियां हासिल कीं। हालांकि इस देश की अपनी समस्याएं भी बनी रहीं।
(लेखक अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास और पर्यावरण अध्ययन के प्रोफेसर हैं)