वाकई 1967 उतार-चढ़ाव से भरा साल था, जिसमें दुनिया भर में कई घटनाक्रमों से फिजा में आशा और निराशा दोनों घुली हुई थी। उसी साल चे-ग्वेरा को बंदी बनाकर उनकी हत्या कर दी गई थी। दूसरी तरफ लाखों अमेरिकी शांति के लिए सड़कों पर मार्च कर रहे थे। साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद को आमलोगों ने खारिज कर दिया था, लेकिन पश्चिमी देशों की सरकारें ‘गोपनीय युद्धों’ के जरिए गरीब देशों के लोकतंत्रों को नाकामयाब करने में जुटी थीं। उस साल कुछ मौके जोशोखरोश भर रहे थे, कई गहरी निराशा में धकेलने वाले थे।
1967 में चीन की घटनाओं ने भारत में एक दूसरी दिशा से दस्तक दी। नक्सलबाड़ी (इसी नाम से आंदोलन को जाना गया) नाम के एक छोटे-से गांव में शुरू हुए किसानों के विद्रोह की गूंज देश भर में सुनाई पड़ी। इस आंदोलन ने प्रतिष्ठित संस्थानों की सबसे बेहतरीन प्रतिभाओं को आकर्षित किया। इन लोगों को भरोसा था कि क्रांति अब बहुत दूर नहीं है। पचास साल के बाद वह विचार अभी भी जिंदा है, लेकिन अपनी पहचान खो चुका है और उसके सैकड़ों रूप हो चुके हैं। हालांकि अभी भी क्रांति का सपना देखने वाले जंगलों में मौजूद हैं, जो शहरी समाज के लिए शर्मसार करने वाला है।
नक्सलबाड़ी को अप्रासंगिक मानना नासमझी हो सकती है, क्योंकि मनमोहन सिंह जैसे पढ़े-लिखे नेता भी नक्सल आंदोलन को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं और मौजूदा केंद्र सरकार भी इसे राष्ट्रविरोधी घोषित कर गैरकानूनी बताने पर तुली है। ऐसे में इस विचार में अभी भी दम बाकी है, यह समझना मुश्किल नहीं है। मौजूदा सरकार कवि अवतार सिंह संधु पाश की कविताओं को बच्चों और युवाओं तक नहीं पहुंचने देना चाहती है- इसके लिए उन्हें नक्सलवादी कहा जा रहा है और इसलिए उन्हें देशद्रोही बताया जा रहा है-ये अपने आप में सुबूत है कि इस विचार में अभी भी सत्ता प्रतिष्ठानों को अस्थिर करने के लिए काफी कुछ है।
उस दौर में भारत के संसदीय लोकतंत्र को केवल नक्सलबाड़ी में ही विरोध का सामना करना पड़ा हो, ऐसा नहीं था। 7 नवंबर, 1966 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गोरक्षकों की सेना ने संसद का घेराव किया था। वाईडी गुंदेविया ने अपने संस्मरण आउटसाइड द आर्काइव्स में याद किया है कि नेहरू ने सचिवों के साथ अपनी अंतिम मुलाकात में कहा था, "भारत के लिए कम्युनिज्म खतरा नहीं है, खतरा दक्षिणपंथी हिंदुत्व संप्रदायवाद है।"
हिंदुत्व बहुसंख्यकवाद का पहला दखल तब देखने को मिला जब उन लोगों ने संसदीय राजनीति के बाहर अपनी ताकत को दिखाना शुरू किया। बाद में यह लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद को गिराने के अभियान तक पहुंच गया। आडवाणी ने यह माना था कि यह आंदोलन धार्मिक न होकर अपने तेवर और मकसद के लिहाज से राजनैतिक था। ठीक वैसे ही जैसे उनके गुरु एमएस गोलवलकर ने आत्मीय पलों में सहकारी दुग्ध परियोजना के जनक वर्गीस कुरियन के सामने स्वीकार किया था कि गोहत्या के खिलाफ चला आंदोलन मुख्य रूप से राजनैतिक आंदोलन था।
यह राजनैतिक प्रयोग नक्सलबाड़ी की तुलना में कम आकर्षक था, लेकिन यह कहीं ज्यादा प्रासंगिक और निर्णायक साबित हुआ, क्योंकि इसने संसदीय रास्ता अपना लिया था, जिसका नक्सल आंदोलन वाले मजाक उड़ाया करते थे। उग्र वामपंथी लोगों में रणनीतिक कल्पनाशीलता का अभाव दिखा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ऐसा अभाव नहीं दिखा। संघ के पास संसदीय राजनीति के लिए भारतीय जनसंघ का मंच था, जिसके चलते संघ सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के बड़े दायरे में अपनी दखल मजबूत करता रहा। इसका असर 1967 के चुनाव परिणाम में नजर भी आया, संघ की कोशिशें कामयाब रहीं। विधानसभा चुनावों के दौरान भारी उथल-पुथल देखने को मिला।
आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस का गढ़ दरक गया था। 1947 के बाद सत्ता के मौलिक दावेदार के तौर पर 20 साल तक राज करने के बाद आखिरकार उसे झटका लगा। लोकसभा में भी कांग्रेस की ताकत कम हुई और 16 में से आठ राज्यों में लोगों ने उसे खारिज कर दिया। केरल में वामपंथी गठबंधन सत्ता में आया तो ओडिशा में दक्षिणपंथी गठबंधन। तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखा दिया, जबकि पश्चिम बंगाल, बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पंजाब में कांग्रेस की पकड़ कमजोर हुई और सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर बने रहने के बाद भी सरकार बनाने लायक बहुमत कांग्रेस नहीं जुटा पाई।
चुनावी तौर पर पहली बार कांग्रेस को लगे झटके की वजहों को विस्तार में समझने के लिए यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि कामराज और अतुल्य घोष जैसे कद्दावर नेताओं को हार का सामना करना पड़ा, जबकि छह राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष को हार का मुंह देखना पड़ा और चार राज्यों में मुख्यमंत्री भी चुनाव हार गए। कांग्रेस का प्रभुत्व, जिसे रजनी कोठारी कांग्रेसी व्यवस्था भी कहते हैं, पहली बार निर्णायक तौर पर बिखरा। नेहरू की मौत को तीन साल हो चुके थे। उनके बाद प्रधानमंत्री बनने वाले लाल बहादुर शास्त्री के असमय निधन ने इंदिरा गांधी को नेतृत्व की स्थिति में पहुंचा दिया। पार्टी के पुराने नेताओं को लग रहा था कि वह गूंगी गुडि़या पर आसानी से नियंत्रण रख पाएंगे। इंदिरा गांधी का उपहास उड़ाने के लिहाज से उन्हें गूंगी गुडि़या, राम मनोहर लोहिया ने कहा था। हालांकि समय के साथ इंदिरा गांधी अपनी इस छवि से उबरने में कामयाब जरूर रहीं, लेकिन कांग्रेस पार्टी टूट गई।
1967 में भारत का संसदीय लोकतंत्र युवा था, लेकिन कांग्रेस की छवि मलिन पड़ने लगी थी। युवाओं का मोहभंग होने लगा था। कवि धूमिल ने तिरंगे को देखकर आजादी को थका हुआ चक्र बताया था। लोगों का धैर्य चुकने लगा था, व्यवस्था में काफी कुछ सड़ चुका था। मैला आंचल और परती परिकथा में जिस उम्मीद का जिक्र था वह राग दरबारी के उदासी भरे तंज में तब्दील हो चुका था। उदासी और व्यग्रता के चलते लोग अनजाने प्रयोग करने के लिए तैयार हो गए। यही वजह है कि अलग-अलग खेमों की राजनीति करने वाले लोग कांग्रेस के मजबूत ढांचे के सामने एकजुट हो गए। तब कोई विकल्प नहीं है (देयर इज नो अल्टरनेटिव-टीना फैक्टर) का कंसेप्ट नहीं था। भारत के लोग अनिश्चितता के लिए तैयार थे।
हालांकि इन सबकी पृष्ठभूमि भी थी। हिरण्मय कार्लेकर ने द हार्वर्ड क्रिमसन में कांग्रेस से लोगों के मोहभंग होने की वजहों का वर्णन किया है। सशक्त विपक्ष के अभाव में 20 साल तक शासन करने के बाद भी कांग्रेस की सरकार खाद्यान्न संकट का कोई हल नहीं निकाल पाई थी।
बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में पड़े भीषण सूखे ने इस संकट को कई गुना बढ़ा दिया। उस दौर के लोग याद करते हैं कि किस तरह से सूखा प्रभावित लोगों की सहायता के लिए पृथ्वीराज कपूर अपनी नाटकमंडली के साथ देश भर का दौरा कर रहे थे। इस मुश्किल दौर में लोग रोजमर्रा की जरूरतों में कटौती करने लगे थे। कीमतें सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गई थीं। भारत तब भी राशन व्यवस्था के दौर में बना हुआ था।
ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस अपनी पकड़ पूरी तरह खो चुकी है। रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा। आम लोगों के बीच इस तरह की छवि पहुंचने लगी थी मानो भारत सरकार ने पश्चिमी ताकतों के सामने घुटने टेक दिए हैं। कार्लेकर के मुताबिक, संसद में भी सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के लिए उम्मीद की कोई वजह नहीं थी। पूर्ण बहुमत होने के बाद भी सरकार कम संख्या वाले आक्रामक विपक्ष का सामना नहीं कर पा रही थी। उस दौर में ऐसा लगने लगा था कि केंद्र सरकार कुछ नहीं कर रही है और हर तरफ गिरावट है।यह वह पृष्ठभूमि थी जिसने समाजवादियों, साम्यवादियों और दक्षिणपंथियों को एकजुट कर दिया, राम मनोहर लोहिया के सपने को पूरा करने के लिए। और वह सपना था भारतीय लोकतंत्र में कांग्रेस के वर्चस्व को खत्म करना। विडंबना देखिए कि कभी नेहरू की आंखों के तारे रहे लोहिया उनकी पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गए। हालांकि दुर्भाग्य यह रहा कि कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के बाद उनके लोग क्या कर रहे हैं, यह देखने के लिए लोहिया खुद ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रह सके।
कांग्रेस विरोधी गठबंधन के उभार की सबसे बड़ी वजह यह थी कि कांग्रेस आंतरिक तौर पर काफी कमजोर हो गई थी। अपने दबदबे वाले समय में कांग्रेसी नेतृत्व में अहंकार बढ़ा और असहमति की आवाज को अनसुना किया जाने लगा था। खुद को मजबूत करने की ऐसी कोशिश से कांग्रेस को नुकसान होने लगा था। जिन लोगों की राय भिन्न थी, उन्हें अहम पदों से दूर रखा जाने लगा, वे पार्टी छोड़कर चले जाएं, ऐसी स्थितियां बना दी गईं और उन लोगों ने अपनी-अपनी पार्टियां बना भी लीं। विपक्षी दलों के बीच चुपके-चुपके हुई एकजुटता ने भी कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका अदा की। पश्चिम बंगाल में जिस नेता को पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखाया वह कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने के बाद वहां का मुख्यमंत्री बना। उसी तरह से बिहार में गठबंधन दलों की जीत के बाद पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री चुने गए। ओडिशा में जन कांग्रेस सत्ता में आई, जो कांग्रेस से ही टूट कर निकली थी और उसने सीआर राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी की मदद से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया।
हालांकि ये गठबंधन सरकारें ज्यादा दिनों तक नहीं चलीं। इनके शासनकाल के दौरान नीतिगत स्तर पर कोई बहुत बड़ा बदलाव भी देखने को नहीं मिला और न ही शासन की कोई नई शैली ये लोग विकसित कर पाए। वामपंथी दलों से लेकर दक्षिणपंथी दल तक, सब कांग्रेस को बाहर करने के लिए एकजुट हुए थे। नीतिगत स्तर पर ये लोग नई शुरुआत कर सकते थे, पर ऐसा हो न सका।
गठबंधन के इस प्रयोग का सबसे ज्यादा फायदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके राजनीतिक दल-जनसंघ को हुआ। इसे दिल्ली में जीत मिली, जो एक सांकेतिक जीत साबित हुई, जनसंघ ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस को हराया और उत्तर प्रदेश में भी उसकी स्थिति मजबूत हुई। ठीक 10 साल बाद जनसंघ ने समाजवादियों, कंजरवेटिव और वामपंथी दलों के साथ मिलकर एक बार फिर से कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। इस प्रक्रिया में संसदीय राजनीति में संघ ने अपनी स्थिति मजबूत की। समाजवादी लोहिया के विचार के मुताबिक ही अमीबा की तरह विखंडित होते रहे और अपनी ही सरकारों के खिलाफ विद्रोह करते रहे।
1967 के राजनैतिक प्रयोग का नुकसान वामपंथियों को भी हुआ। वे अपनी उस वक्त की ताकत को नहीं बढ़ा पाए। वामपंथी दलों ने मुख्य विपक्षी दल का पद भी एक मायने में जनसंघ को सौंप दिया। इतना ही नहीं, संसदीय राजनीति में एक सभ्य राजनैतिक दल होने के चलते ही वामपंथियों ने संसदीय व्यवस्था से इतर अलग खुद को मजबूत करने का कोई रास्ता भी नहीं चुना। इससे इनकी राजनीति की मूल प्रेरणा, आम लोगों के संघर्ष की राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया और उसके बारे में अनुमान लगाना एकदम आसान रहा। वामपंथी दल सहयोगी की भूमिका में संतुष्ट थे। वे राष्ट्रीय राजनीति को छोड़कर तीन राज्यों में बने रहने पर खुशी से तैयार थे। इसके बाद वे कभी राष्ट्रीय राजनीति में दावेदार के तौर पर नहीं उभरे। आज पीछे मुड़कर देखने पर यह बेझिझक कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ के प्रति झुकाव एक तरह से 1967 में ही शुरू हो गया था।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर हैं)