लाहौर मुगलों से लेकर सिखों की राजधानी रहा। सो, उसकी भव्यता भी बेमिसाल है। नहरों के किनारे लगे पेड़ और सुव्यवस्थित चौक उसकी सुंदरता में चार चांद लगाते हैं। ऐसी खूबसूरती को देख सहसा यकीन नहीं होता कि इस जमीं से भी कोई बगावत उठी होगी। महात्मा गांधी ने यहीं 1929 में पहला तिरंगा फहराया था और 26 जनवरी को ब्रिटिश राज के खिलाफ स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने की अपील की थी। गणतंत्र दिवस तो वह काफी बाद में जाकर कहलाया। 1940 में मुस्लिम लीग ने यहीं पाकिस्तान के निर्माण का ऐलान किया। उस एक प्रस्ताव से संयुक्त भारत का सपना टूट गया और एक नए देश का जन्म हुआ। आज से 50 साल पहले लाहौर फिर एक ऐतिहासिक घटना का साक्षी बना। 1967 में जुल्फिकार अली भुट्टो ने यहीं पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का गठन किया।
भुट्टो ने ताशकंद समझौते और 1965 में भारत के साथ हुई लड़ाई के बाद जनरल अयूब खान की सरकार के विदेश मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद उन्होंने पूरे देश का दौरा किया और छात्रों, मजदूर नेताओं, गरीबों और समाज के हाशिए पर गुजर-बसर करने वालों के सामने अपनी बात रखी। इसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी बनाई जो पाकिस्तान में अपनी तरह की पहली पार्टी थी। उन्होंने नारा दिया, “इस्लाम हमारा यकीन है, लोकतंत्र हमारी नीति है, समाजवाद हमारा सिद्धांत है और सारा हक जनता को।’’
उस समय तक पाकिस्तान के छोटे-से इतिहास में कभी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं हुए थे। पीपीपी के गठन से यह साफ हो गया कि लोग अब स्वतंत्र रूप से वोट देने के अधिकार के लिए ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते हैं। पार्टी की सही समय पर स्थापना, राजनीति के प्रति साफ दृष्टिकोण, लोगों के प्रति प्रतिबद्धता और संघर्ष ने इस बात को और ताकत दी। क्या पीपीपी जैसी पार्टी और भुट्टो जैसे नेता के बिना यह इंतजार और लंबा हो सकता था? यह कहना थोड़ा मुश्किल है लेकिन अतीत में उस मुकाम पर गौर करें, जब भारी उम्मीदों से भरे पाकिस्तान का वादा किया गया था, तो यह साफ हो जाता है कि भुट्टो के साथ लोगों के गहरे जुड़ाव ने उनके देश, उनकी पार्टी और खुद उनकी नियति तय कर दी थी।
भुट्टो को 1967 में यह महसूस हो गया था कि दुनिया साफ तौर पर दो हिस्सों में बंटी है। एक तरफ वह वर्ग है जो जीवन-यापन के लिए जंगल और पानी पर आश्रित है, तो दूसरी तरफ ऐसा वर्ग है जिसका सभी संसाधनों पर कब्जा है। पहले वर्ग के लोगों को सशक्त करना दूसरे वर्ग के अस्तित्व को चुनौती देने जैसा था। तीसरी दुनिया की एकजुटता, वाम केंद्रित राजनीति, समाजवाद और संप्रभुता की बात 1960 और 70 में भुट्टो और उनके सहयोगियों ने की। यह अमीर और प्रभावशाली लोगों के हाथों से उनकी शान को छीन लेने जैसा था। भुट्टो के पसंदीदा लेखक जेम्स बैल्डविन भी कहते थे, “दुनिया की ओर कुछ ऐसे यकीन से देखो कि वहां होने का तुम्हें हक है।” और ऐसा करना सत्ताशाली वर्ग को आंख दिखाने जैसा था।
भुट्टो उसी भाषा में बोलते थे, जैसा उस दौर में औपनिवेशिक सत्ता को झकझोरने वाले एशिया और अफ्रीका के दूसरे नेता बोला करते थे। सीमा पार इंदिरा गांधी ऐसी ही आवाज उठा रही थीं। घाना में क्वामे न्क्रूमाह, अल्जीरिया के युवा फ्रांसीसियों से आजादी की वही बोली बोल रहे थे। भुट्टो और उनकी युवा पार्टी की इसी सोच का नतीजा आखिरकार उनकी हत्या के रूप में सामने आया, उनकी पार्टी भ्रष्ट हो गई और उन्हीं ताकतों का खिलौना बन गई, जिनकी जमीन वे हिला देना चाहते थे।
आखिर किसी विचार का वारिस कौन होगा?
अगर किसी विचार की संभावनाओं की ही खोखली समझ हो तो भला खून के रिश्ते की क्या विसात है? कोई किसी सिद्धांत या विचार की नकल उतारे तो वह मौन कलाकार तो हो सकता है, वह उस विचार के प्रतीकों और इशारों की नकल तो उतार सकता है लेकिन उस विचार के मर्म, उसकी ताकत को कभी छू नहीं पाता। अगर कोई बाहरी भी अपनी करीबी का फायदा उठाकर वारिस बन बैठता है तो उसे लगता है कि विचारों पर संपत्ति की तरह काबिज हुआ जा सकता है, उसका मालिक बना जा सकता है। दोनों ही बर्बादी का ही सबब बनते हैं।
किसी विचार की सबसे बड़ी ताकत यही होती है कि उसे रोका नहीं जा सकता। वह माहौल में घुल-मिलकर एक से दूसरे के पास किसी बंधन या वक्त से बाधित हुए बिना पहुंचता रहता है। मनुष्य खुद को विचारों का स्रोत और उनका रखवाला समझ लेता है लेकिन हम विचारों के खतरनाक दायरे में पहुंचने के लिए वाकई नश्वर है। नश्वर कभी स्थाई चीजों का वारिस नहीं हो सकता। विचार उन लोगों के होते हैं जो उन पर अमल के लिए जीते-मरते हैं। किसी विचार के वारिस सभी हो सकते हैं और सौभाग्य से, एक ही समय में कोई भी नहीं।
पीपीपी का स्थापना सम्मेलन लाहौर के निकट गुलबर्ग में हुआ था। छोटी घासों वाले मैदान में एक शामियाना लगा हुआ था जिसके अंदर लोग बैठे थे। लाहौर और आसपास के जिलों में धारा 144 लागू थी और पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले प्रतिनिधियों को शहर में पहुंचने से रोक दिया गया था। सिंध और बलूचिस्तान से आ रही महिलाओं और पुरुषों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इन परेशानियों के बाद भी करीब 500 प्रतिनिधि पीपीपी के स्थापना सम्मेलन में भाग लेने के लिए 30 नवंबर 1967 की सुबह लाहौर पहुंच गए।
जब प्रतिनिधियों ने अपने नाम दर्ज करा लिए, तब दो कवियों ने इस मौके के लिए उर्दू में लिखी कविताएं लोगों को सुनाईं। भुट्टो ने पहले दिन भावनात्मक भाषण दिया। उन्होंने कहा लूट और डाके का आर्थिक तंत्र देश को राक्षस की तरह खा रहा है। उन्होंने वादा किया कि पीपीपी की आर्थिक नीति सामाजिक न्याय पर आधारित होगी। भुट्टो ने कहा कि यहां के लोग खुद मुद्दे तय करने के अलावा सरकार की आखिरी नीतियां तय करेंगे। अपने स्वागत भाषण के अंत में भुट्टो ने कहा, “हम परंपराओं का सम्मान करेंगे। लेकिन पुरानी चीजों में जो गलत होगा उसका विरोध करेंगे। हम उन्हीं परंपराओं का सम्मान करेंगे जो पाकिस्तान के लोगों की भलाई के लिए हों, उनका नहीं जो देश को पीछे ले जाने वाली होंगी। हम पाकिस्तान को एक नया क्रांतिकारी स्वरूप देंगे।”
जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपीपी का क्या चरित्र होगा इस पर लाहौर में हुए सम्मेलन में दो दिनों तक चर्चा हुई। भुट्टो ने घोषणा की, “हमारी एकता किसी पंथ, धर्म या संप्रदाय के खिलाफ नहीं है। यह नफरत या विद्वेष द्वारा पोषित नहीं है। इसका मकसद लोगों को न्याय दिलाना है।” एक दिसंबर 1967 को आखिरी सत्र में पार्टी के नाम की घोषणा की गई। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अलावा आए दो नाम सोशलिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रोग्रेसिव पार्टी को ठुकरा दिया गया और भुट्टो को चेयरमैन चुन लिया गया।
भुट्टो के बिना पीपीपी की कहानी नहीं कही जा सकती है। यह उनके नाम के साथ पैदा हुई और आज भी हमारे जेहन में उनकी यादें और सपने बसे हुए हैं। आज इस नाम से जो पार्टी है वह कहीं से पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की छवि को नहीं दिखाती है। 2017 की पार्टी के पास कोई सिद्धांत नहीं है, किसी के लिए न्याय नहीं है और न ही भुट्टो की 1967 वाली पार्टी की कोई खूबी इसमें बची है।
हालांकि आज की पीपीपी भुट्टो की तस्वीर और उनकी मौत को अपने पापों को ढंकने के लिए भुनाती है लेकिन इस पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता है कि यह 1967 की पार्टी की वारिस है। इसके नेता कुलीन और अपराधी हैं। इसकी एक ही चिंता है कि कैसे सत्ता को बचाए रखा जाए। दोनों की तुलना करना असली को अपमानित करना है। और शायद यही पाकिस्तान की आज की राजनीति है। जुल्फिकार अली भुट्टो ने पाकिस्तान को कॉमनवेल्थ से हटा लिया, संयुक्त राष्ट्र से बाहर चले आए, यहां से आते समय अपने पेपर फाड़ डाले और फांसी के तख्ते के सामने खड़े होकर खुद के लिए माफी नहीं मांगी। उन्होंने पाकिस्तान को प्रगतिशील, स्वतंत्र और ताकतवर बनाने की लड़ाई लड़ी। जबकि आज की पीपीपी का एकमात्र काम भ्रष्टाचार के मुकदमे लड़ना है। ऐसे में कोई कैसे गंभीरता से यह दावा कर सकता है कि आज की पीपीपी अपने नाम को सार्थक कर रही है क्योंकि इसके नेता आज सैन्य और विदेशी ताकतों की चापलूसी कर रहे हैं।
पाकिस्तान पर अमेरिका ने 300 से ज्यादा ड्रोन हमले किए हैं। अमेरिका को इसकी अनुमति केवल पाकिस्तान के साथ व्यापार करने के कारण दी गई है। इस व्यापार में यह साफ है कि पाकिस्तान समान साझीदार नहीं है। उसकी भूमिका पानेवाले, सहायता का इंतजार करने वाले और कृपा पाने वाले की है। केवल 2010 में ही पाकिस्तान पर 128 ड्रोन हमले हुए। पीपीपी की घटिया हरकतों का एक नमूना सीआइए के ठेकेदार रेमंड डेविस को ब्लड मनी देकर देश से भागने की अनुमति देना रहा। रेमंड ने दिन दहाड़े पाकिस्तानी नागरिकों की हत्या की थी और बदले में उसने पीपीपी को उसकी पसंदीदा मुद्रा दी थी।
स्थापना की स्वर्ण जयंती के मौके पर हममें से जो लोग जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपीपी के सिद्धांतों और जिन संघर्षों के लिए पार्टी का जन्म हुआ था, से प्यार करते हैं वे देख सकते हैं कि आज पाकिस्तान में कोई भी इनका प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है। हालांकि 50 साल पहले बनी पीपीपी अपने असली रूप में नहीं है पर अभी यह मरी नहीं है। यह जमीन में है, माहौल में है, उन लोगों में है जो इसमें विश्वास करते हैं और इसकी सेवा में अपनी कुर्बानी दी है। ऐसा सिद्धांत कैसे समाप्त हो सकता है? यह संभव नहीं है। यह हरदम हमारे साथ है, इस बात का कोई मतलब नहीं है कि इसे क्या हो गया है। यह अभी भी लाहौर नहर के किनारे लगे पेड़ों की कतारों में मौजूद है।
जब मैं यह सोचती हूं कि जिस पार्टी को भुट्टो ने बनाया उसके साथ किस तरह की हिंसा की गई। लोगों ने अंदर-बाहर, दूर-नजदीक से धोखा दिया, सामूहिक गिरफ्तारियां हुईं, गड़बड़ी, उत्पीड़न और हत्याएं हुईं। मैं फिर बैल्डविन की ओर लौटती हूं, जिनकी किताबें भुट्टो लाइब्रेरी, कराची की अलमारियों में रखी हैं। बैल्डविन कहते हैं, “ताकत, उस रास्ते पर काम नहीं करती है जिस दिशा के बारे में उसे चलाने वाला सोचता है। पीड़ित को दुश्मन की ताकत का पता नहीं चलता। इसके विपरीत, यह कमजोरी बता देता है। शत्रु के आतंक की जानकारी भी देता है और यह रहस्योद्घाटन पीड़ित को धैर्य प्रदान करता है।”
पार्टी का मूल तत्व अभी भी बरकरार है क्योंकि कोई पुरुष या औरत किसी सिद्धांत को नष्ट नहीं कर सकते हैं। अब सवाल यह है कि हम अपनी इस समृद्ध विरासत को कैसे समझते हैं? किसी ने कहा है कि नम्र व्यक्ति पृथ्वी की विरासत संभाल सकता है। कुछ लोग मानते हैं कि असली विश्वास मेहनत से पैदा होता है जबकि अन्य मानते हैं कि यह संघर्ष में छिपा होता है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का गठन दबे-कुचले लोगों की सेवा के लिए हुआ था, ऐसे लोगों की ताकत एक बार फिर एकजुट होगी और पार्टी का फिर से जन्म होगा।
(लेखिका पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की पोती हैं)