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"पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रेरणा का सबब बनती वह बेमिसाल भारत कथा"

जाने-माने लेखक जावेद अख्तर बता रहे हैं 'मदर इंडिया' के 60 साल पूरे होने पर इस फिल्म की अहमियत
एंग्री ओल्ड वुमनः एंग्री यंग मैन से पहले नरगिस एंग्री वुमन बन गईं थीं

महबूब खान की 1957 में आई क्लासिक फिल्म मदर इंडिया को ‘खास भारतीय’ और कालजयी फिल्म के रूप में याद किया जाता है। इसमें नए जन्मे राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन का कठोर यथार्थ था। भारत की आजादी के दस साल बाद रिलीज हुई यह फिल्म सालों साल दर्शकों को अभिभूत करती रही। गिरिधर झा मुंबई में जाने-माने लेखक-शायर जावेद अख्तर से मिले और फिल्म रिलीज की 60वीं वर्षगांठ पर उन्होंने मदर इंडिया के महत्व पर विस्तार से बातचीत की। कुछ अंश :

रिलीज के छह दशक बाद भी मदर इंडिया, शानदार फिल्मों में से एक बनी हुई है। इसमें क्या खास है?

जब मैंने पहली बार 1957 में इस फिल्म को देखा था उस वक्त मैं मुश्किल से 12 साल का था। मैंने इसे बार-बार देखा, स्कूली दिनों में शायद चार या पांच बार। मदर इंडिया एक गाथा है। कहानी का वितान बहुत विस्तृत और कई मायनों में भारतीय है। महबूब खान खुद गुजरात के काठियावाड़ के छोटे से गांव के थे। वह गांव की संस्कृति और वातावरण से जुड़े हुए थे। यही वजह थी कि मिट्टी की खुशबू, खेतों का एहसास, गांव की हवा सब कुछ भारतीय और वास्तविक था। भारतीय सिनेमा का इतिहास इस कालजयी फिल्म के बिना अधूरा है। इसके चरित्र प्रभावशाली और स्थितियां बहुत विस्तृत थीं। चाहे फिल्म का दुखद अंत हो, अभिनय या त्याग। क्लासिक की परिभाषा सिर्फ इतनी नहीं है कि वह अपने समय में प्रासंगिक हो बल्कि वह समय और स्थान से आगे बढ़कर प्रासंगिक होना चाहिए। चाहे वह अपना देश हो या देश से बाहर का सुदूर समाज। मदर इंडिया इसी तरह की फिल्म है।

हिंदी सिनेमा में शानदार निर्देशकों का वह सुनहरा दौर था। उस दौर की अन्य श्रेष्ठ फिल्मों से मदर इंडिया कैसे अलग थी?

उस वक्त कई दूसरे अच्छे फिल्म बनाने वाले थे। बिमल रॉय या अमिय चक्रवर्ती ने सुजाता (1959) और सीमा (1955) जैसी अच्छी फिल्में बनाईं। सीमा कमाल की फिल्म थी। बिमल रॉय की दो बीघा जमीन (1953) जो मदर इंडिया के चार साल पहले रिलीज हुई थी, भी विशुद्ध भारतीय परिवेश की फिल्म थी। इसे कोई भारतीय ही बना सकता था। गुरु दत्त और राज कपूर भी श्री 420 (1955) और प्यासा (1957) जैसी क्लासिक फिल्में बना रहे थे। लेकिन मदर इंडिया भारतीय गांवों की महागाथा बन कर उभरी। फिल्म में ग्रामीण जीवन के पहलू थे। हर जगह पाए जाने वाले अत्याचारी जमींदार, गरीब, दबे हुए किसान और असहाय मनुष्य। अद्‍भुत कलाकार नरगिस का राधा का किरदार निभाना और इस चरित्र के सहारे भारतीय महिला के शानदार चित्रण पर क्या कहें।

फिल्म की कौन सी छाप आज तक आपके साथ है?

फिल्म में कई अद्‍भुत सीन थे। एक सीन मुझे आज तक याद है, राधा का बेटा बिरजू (सुनील दत्त) कहीं से बंदूक चुरा लेता है और घर आकर पुआल में छुपा देता है। मां उससे प्रश्न करती है। बेटा कहता है, वह सुखी लाला (कन्हैयालाल) को बंदूक से मार डालेगा। सुखी लाला की वजह से बिरजू का परिवार और गांव वालों की जिंदगी तबाह थी। बिरजू बताता है कि सुखी लाला के मरते ही सभी परेशानियां दूर हो जाएंगी। गरीब किसान और मां अपने बेटे को बंदूक की व्यर्थता के बारे में बताती है। यह असाधारण सीन था। मां कहती है, बंदूक समाज की किसी परेशानी का हल नहीं है। वह कहती है, ‘तुम बंदूक से खेत नहीं जोत सकते, बंदूक से रोटी नहीं बनाई जा सकती, बंदूक उपाय नहीं है।’ इस फिल्म में ऐसे कई क्षण थे जो आज भी साथ रहते हैं।

मदर इंडिया सिर्फ महबूब खान की ही महान कृति नहीं है बल्कि यह नरगिस की भी श्रेष्ठ भूमिका है। उनकी समकालीन कोई अन्य अभिनेत्री यह रोल कर सकती थी?

मां के रूप में नरगिस की भूमिका अविवादित रूप से सिनेमा की पीढ़ियों को प्रभावित करती है। उन्होंने शानदार भूमिका अदा की थी। यह कहना कठिन है कि उनके दौर की समकालीन अभिनेत्री में से कोई इस भूमिका के लिए योग्य थी या नहीं। हमारी पीढ़ी के दर्शकों के लिए मदर इंडिया का मतलब नरगिस था। वैसे ही जैसे देवदास मतलब केवल दिलीप कुमार। बल्कि महबूब खान इसी कहानी के साथ औरत नाम से हिट फिल्म बना चुके थे। मदर इंडिया  रिलीज होने के 17 साल पहले। सरदार अख्तर की भूमिका को बाद में नरगिस ने निभाया। याकूब ने बिरजू की भूमिका की थी और अरुण कुमार (अभिनेता गोविंदा के पिताजी) ने राधा के दूसरे बेटे की भूमिका निभाई थी जिसे मदर इंडिया में राजेन्द्र कुमार ने निभाया था। कन्हैयालाल दोनों में खलनायक थे। कुछ और लोग भी दोनों फिल्मों में जुड़े हुए थे। जैसे, संवाद लेखक वजाहत मिर्जा। मेरे खयाल से भारतीय फिल्म उद्योग के शायद वह अकेले व्यक्ति हैं जिनके काम का मूल्यांकन नहीं हुआ। उन्होंने तीन बड़ी क्लासिक फिल्मों मुगले-ए-आजम (1960), गंगा जमुना (1960) और मदर इंडिया के संवाद लिखे थे।

फिल्म के विभिन्न चरित्रों के बारे में आप क्या कहते हैं?

फिल्म में दूसरे किरदार भी उतने ही शानदार थे। फिल्म में पंचायत का एक सीन है, जिसमें साहूकार और राधा के पति (राजकुमार) के बीच पैसों के झगड़े का पंच और सरपंच निपटान कर रहे हैं। उस सीन में गांव वाले भी वास्तविक लग रहे हैं। महबूब खान ने निश्चित तौर पर गांवों से असली लोग लिए होंगे, वे कहीं से भी जूनियर आर्टिस्ट नहीं लगते।

दूसरी क्लासिक्स जैसे मुगल-ए-आजम से कैसे तुलना करते हैं?

मदर इंडिया की मुगल-ए-आजम से तुलना मुश्किल है। वह दूसरे जॉनर की फिल्म थी। लेकिन कोई यदि दो बीघा जमीन देखे, वह भी गरीब किसान की कहानी थी, उसमें भी गरीबी और कठोर वास्तविकता थी। वह भी उतनी ही ईमानदारी से कही गई थी। लेकिन उसमें महागाथा बनने का वह गुण नहीं था जो मदर इंडिया में था। हम भारतीय गाथाओं के बीच रहने के लिए शिक्षित किए गए हैं। हमें छोटे वितान पर रची गई कहानियां अमूमन पसंद नहीं आतीं। रामायण और महाभारत के समय से यह आनुवंशिक रूप से हमारे भीतर चली आ रही हैं। 

ग्रामीण जीवन होने के बावजूद रिलीज के बाद फिल्म ने दुनिया भर का ध्यान आकृष्ट किया। यह पहली फिल्म थी जिसे ऑस्कर के लिए श्रेष्ठ विदेशी फिल्म श्रेणी में नामांकित किया गया था। इसने प्रतिष्ठित कोर्लोवी वेरी फिल्मोत्सव में भी अवॉर्ड जीता था।

ग्रामीण जीवन के बावजूद अंतरराष्ट्रीय दर्शकों की सराहना बटोरना सरप्राइज नहीं था। पर्ल एस बक के नोबेल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास, द गुड अर्थ चीन के एक किसान की कहानी थी लेकिन यह उपन्यास अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट सेलर बना। उस वक्त जो भी पुस्तकें पढ़ता था उसने यह किताब पढ़ी। इस पर आधारित एक हॉलीवुड फिल्म भी बनी है। आज भी मुगल-ए-आजम पर आधारित नाटक का जहां भी स्टेज शो होता है, टिकट मिलना मुश्किल होता है जबकि यह मुगल काल की कहानी है। इसी तरह मदर इंडिया में मुख्य पात्र राधा के दुख-तकलीफों का अनुभव लोगों ने अपने जीवन में भले न किया हो लेकिन वे उससे जुड़ाव महसूस करते हैं और सहानुभूति रखते हैं।

मदर इंडिया के बाद स्क्रीन पर 1975 में मां की अगली दमदार भूमिका दीवार में दिखाई दी, जिसे निरूपा रॉय ने निभाया था। दीवार लिखते वक्त आपके अवचेतन में नरगिस का चरित्र था?

मैं यह कहने की स्थिति में नहीं हूं कि दीवार के लिए मां का रोल लिखते वक्त अवचेतन में नरगिस का चरित्र था जो हमने (सलीम-जावेद) मिल कर लिखा था। मदर इंडिया और दीवार दोनों में साहसी मां और दो भाइयों की कहानी है, जिसमें से एक कानून की सीमा से बाहर दूसरी तरफ चला जाता है। एक स्तर पर दोनों फिल्मों में कुछ समानताएं हैं लेकिन अंतर भी बहुत है। दीवार अपने वक्त का आईना थी और यह अपने तेवर में भी बहुत कुछ शहरी थी। उसमें कोई स्थाई खलनायक नहीं था जैसे मदर इंडिया में सुखी लाला था। जो आदमी अमिताभ की बांह पर, ‘मेरा बाप चोर है’ लिख देता है वह स्क्रीन पर दोबारा दिखाई नहीं पड़ता न नायक बाद में उससे बदला लेने के लिए उसे खोजता है। नायक का गुस्सा पूरी व्यवस्था पर है। वो सामाजिक ढांचे पर नाराजगी थी न कि किसी व्यक्ति विशेष पर नाराजगी। दीवार और मदर इंडिया में यही अंतर है।

सलीम-जावेद की जोड़ी को हिंदी सिनेमा में अमिताभ बच्चन के उदय के साथ दीवार, जंजीर, त्रिशूल और ऐसी ही अन्य फिल्मों में एंग्री यंग मैन खोजने का श्रेय जाता है। मदर इंडिया का बिरजू भी एंग्री यंग मैन नहीं था, जो अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध लड़ रहा था?

यह कहना सही नहीं होगा कि एंग्री यंग मैन की ‘खोज’ हमने की। बिलकुल बिरजू एंग्री यंग मैन था, गंगा जमुना में गंगा बने दिलीप कुमार भी। लेकिन ये एंग्री यंग मैन स्क्रीन पर सत्तर के दशक के एंग्री यंग मैन से अलग थे। हमारी फिल्मों में हमने एंग्री यंग मैन के चरित्र को हल्का या फीका नहीं किया। पहले के एंग्री यंग मैन प्रेम करते थे, गाने गाते थे, रोमांस और कॉमेडी करते थे। इसी वजह से उनका चरित्र थोड़ा सा कमजोर प्रतीत होता था। जब हम जंजीर, दीवार और त्रिशुल में आए तो हमने चरित्र को रोमांटिक या हास्य सीन देकर उसके मुख्य उद्देश्य से भटकने नहीं दिया।

मदर इंडिया दोबारा बन सकती है?

हो सकता है, पर इसकी जरूरत क्या है? मैं रीमेक का विरोधी नहीं हूं। क्लासिक्स को दोबारा बनाने का कोई तुक नहीं है। पिछले साल कुछ लोगों ने हॉलीवुड क्लासिक बेन हर (1959) बनाई थी। फिल्म ऐसी डूबी कि पता भी नहीं लगा। मेरी राय है कि रीमेक उन्हीं के बनाए जाने चाहिए जिनके बारे में लगता है कि दोबारा अच्छी तरह बनाई जा सकती है। 

पिछले 25 सालों में या उदारवाद के दौर के बाद मदर इंडिया जैसी फिल्म नहीं आई। क्या दर्शकों का ग्रामीण भारत से नाता टूट गया है?

किसी फिल्म को क्सालिक बन जाने में समय लगता है। शोले और दीवार को रिलीज के तुरंत बाद क्लासिक नहीं मान लिया गया था। दोनों सुपरहिट थीं लेकिन क्लासिक घोषित करने के लिए 15 साल का लंबा समय लगा। पिछले कुछ सालों में आमिर खान की लगान (2001) और दंगल (2016) दोनों ही ग्रामीण परिवेश पर हैं। दोनों ही फिल्मों की पटकथा और निर्देशन अच्छा है। जब भी भारतीय सिनेमा पर गंभीर अध्ययन होगा एक और फिल्म दिल चाहता है (2011) का नाम आएगा। शोले और दीवार की तरह इस फिल्म ने बहुत से लोगों को प्रभावित किया था।

जब मदर इंडिया बनी थी तब तक मध्यवर्ग का गांवों से नाता था। उस वक्त भारत का औद्योगीकरण नहीं हुआ था। आज की तरह मध्यवर्ग का गांवों से नाता पूरी तरह टूटा भले ही न हो लेकिन पहली और दूसरी पीढ़ी ने शहरों के लिए गांव छोड़ा तो भी वहां से जुड़ाव रखा। धीरे-धीरे जब औद्योगीकरण होने लगा तो यह नाता भी खत्म हो गया। अब युवाओं के लिए गांव मंगल ग्रह की तरह हो गए हैं।

पुरानी पांच फिल्मों की पसंदीदा सूची में मदर इंडिया होगी?

पसंदीदा की सूची जवानी में बनती है। यदि आप मुझसे आज पसंदीदा अभिनेता-अभिनेत्री पूछेगें तो नहीं बता सकूंगा। यदि आप मेरे छात्र जीवन की पसंदीदा फिल्म के बारे में पूछेंगे तो निश्चित तौर पर मदर इंडिया होगी। और दूसरी? मुगल-ए-आजम, गंगा जमुना, प्यासा, श्री 420...पांच हो गए!

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