हिंदी में कला-समीक्षा लिखने वाले कम हैं और फिल्मों पर गंभीर चिंतन करने वाले उससे भी कम। ऐसे में सुप्रसिद्ध कवि, कला-समीक्षक, निबंधकार, कहानीकार, अनुवादक प्रयाग शुक्ल की नवीनतम कृति जीवन को गढ़ती फिल्में स्वागतयोग्य है। पुस्तक का सबसे आकर्षक हिस्सा सत्यजित राय की फिल्मों का है।
राय मोशाय की फिल्में अतिरिक्त गंभीरता से देखे जाने की मांग करती हैं और ऐसे देखना प्रयाग जी को खूब आया है। सत्यजित राय की कालजयी फिल्म पथेर पांचाली अपने कथात्मक दृश्यों के लिए याद की जाती है। कवि प्रयाग शुक्ल ने भी इसे कवि की दृष्टि से ही देखा है। जरा आप भी देखें, ‘‘वर्षा के पहले और वर्षा की बूंदों के साथ जब ताल के कमल-पात सिहर-सिहर उठते हैं, उड़न-कीट गुंजार करते हैं, स्वयं पानी हवा से थरथराता है, तो पथेर पांचाली एक काव्य का ही दर्जा अख्तियार कर लेती है। दुर्गा का वर्षा-स्नान (और फिर इसी से उसकी मृत्यु) दोनों ही मर्मांतक हैं। मिठाई बेचने वाला, बायस्कोप दिखाने वाला, शादी में बैंड बजाने वाले, भोज की तैयारी में जुटी सब्जी-मछली काटती स्त्रियां, फ्रेम-दर-फ्रेम कथा से अलग भी अपना अस्तित्व बनाते हैं। यह लोक की कथा है।’’
प्रयाग जी पथेर पांचाली को ‘अखंडित अच्छाई’ वाली उत्फुल्ल, प्रमुदित, उदास, बेचैन, संतुलित, रूप रस-गंध भरी फिल्म बताते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि राय मोशाय की फिल्मों पर लिखने में ही उनकी लेखनी अधिक रमी है। किताब में राय की फिल्मों के छायाचित्र भी दिए जाते तो यह रूप-रस-गंध और निखरता। केवल राय पर हिंदी में ज्यादा किताबें नहीं हैं।
प्रयाग जी ने इसमें पथेर पांचाली की तुलना विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के इसी नाम के उपन्यास से भी की है। इसमें साहित्य और फिल्म जैसी बहस फिर छिड़ सकती थी पर प्रयाग जी इस व्यर्थ के विवाद में न पड़कर दोनों में मर्म की खोज करते हैं। इस उपन्यास पर आधारित होकर भी यह फिल्म उपन्यास का अतिक्रमण कर जाती है। इन्हीं मायनों में राय जीनियस हैं। पर इस कथा में राय ने फ्रेम-दर-फ्रेम कहने का यत्न किया है कि जीवन और प्रकृति के राग-विराग, सुख-दुख, चिंताएं, आशंकाएं, स्वप्न-दुःस्वप्न इस कथा से परे भी अपनी छाप छोड़ें। उपन्यासकार और फिल्मकार दोनों ने इसमें कथा कहने का सफल प्रयत्न किया है। इसी से यह एक महान कृति पर बनी महान फिल्म बन जाती है।
पथेर पांचाली महान है, लेकिन क्या सत्यजीत राय की दूसरी फिल्में कम महान हैं? चारुलता को राय स्वयं अपनी सबसे अच्छी कृति मानते थे। इसलिए प्रयाग जी ने यथास्थान इसमें चारुलता का भी जिक्र किया है और इनर आइ नाम के वृत्तचित्र का भी, जो चित्रकार विनोद बिहारी मुखर्जी पर बनाया गया था। यह फिल्म बनाकर सत्यजित राय ने उनके प्रति अपना सम्मान तो जाहिर किया ही, विनोद बाबू की कला को देखने-समझने के कुछ सूत्र भी दिए। सत्यजित राय जो कुछ भी करते रहे उसके पीछे पूरी तैयारी होती थी।
लेकिन भारतीय सिनेमा सत्यजित राय के साथ ही खत्म नहीं हो जाता है। इस प्रश्न के मद्देनजर प्रयाग जी ने सत्यजित राय के बाद के भारतीय सिनेमा पर भी विचार किया है। बाद के फिल्मकारों में उन्होंने श्याम बेनेगल, केतन मेहता, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी, विप्लव रायचौधरी, सईद मिर्जा, बुद्धदेव दासगुप्ता और मणि कौल पर भी विचार किया है। बासु दा की तीसरी कसम के बहाने वे रेणु की इस कथा के जीवन-रस को भी उभारते हैं और इस फिल्म की रचना-प्रक्रिया पर भी विस्तार से प्रकाश डालते हैं। मणि कौल को वे ‘सिने-जगत में नई राहों का अन्वेषी’ मानते हैं और उनके सिनेमा में मुखर मौन को भी रेखांकित करते हैं। मणि कौल की कुछ फिल्मों में शब्द के बाद फिर शब्द पर पहुंचने में लंबे अंतराल हैं। इन अंतरालों में जो कुछ घटित होता है, वह गौर करने वाला है। प्रयाग जी यह भी लक्ष्य करते हैं कि मणि कौल का ‘बोलता’ हुआ सिनेमा अलग तरह से बोलता है।
जाह्नू बरूआ की ब्रह्मपुत्र की कहानी के माध्यम से प्रयाग शुक्ल हमें इस विशाल नदी की लहरों पर सैर कराते हैं। फिल्म में जो दिखाया गया है वह हमें दिखाने लगते हैं। कुछ अंतरराष्ट्रीय फिल्मों और फिल्मकारों पर भी पुस्तक में संक्षिप्त लेकिन मर्मभरी टिप्पणियां हैं। इसमें बॉलीवुड की कुछ फिल्मों और फिल्मकारों पर विचार किया जाता तो अच्छा होता। सिनेमा केवल निर्देशक का ही नहीं होता, अभिनेता का भी होता है और निश्चय ही हमारे सिनेजगत में महान अभिनेता हुए हैं। उन पर भी प्रयाग जी की मर्म भरी दृष्टि जाती तो यकीनन यह संपूर्ण किताब होती।