1929 में बंगाल के नैहाती में जन्मे श्यामल मित्रा के चाचा प्रसिद्ध गायक थे। संगीत के पारिवारिक वातावरण में श्यामल मित्रा का रुझान गाने की ओर होना स्वाभाविक था। विद्यार्थी जीवन से ही संगीत समारोहों में गाने वाले श्यामल मित्रा को सुनकर बंगाल के संगीतकार सुधीर चक्रवर्ती ने उन्हें शिष्य बना लिया। चिन्मय लाहिड़ी, सुदीलाल जी आदि से संगीत शिक्षा प्राप्त श्यामल मित्रा मूलत: बांग्ला के प्रमुख गायक-संगीतकार रहे। बांग्ला में उनके गाए ‘अहा आंका बांका’, ‘दूर नेई...जग छूटा’, ‘जदि किछू आमारे’, ‘जा जा जा रे पाखी’ जैसे सलिल चौधरी के स्वरबद्ध गीत लोकप्रिय रहे। श्यामल मित्रा ने पहली बार बांग्ला फिल्म सुनंदर बिये (1951) में पार्श्वगायन किया। लेकिन पार्श्वगायक के रूप में मकबूलियत शागोरिका (1956) के ‘आमार स्वप्न देखा’ से मिली। संगीतकार के रूप में उनकी पहली फिल्म जय मां काली बोर्डिंग (1955) थी जिसका बाद में बीवी और मकान नाम से हिंदी रूपांतर भी बना। मित्रा ने 50 से ज्यादा बांग्ला फिल्मों में संगीत दिया और 300 से ज्यादा फिल्मों में लगभग एक हजार बांग्ला गाने गाए। उनके उल्लेखनीय गीतों में बांग्ला फिल्म अंतराल के उन्हीं के गाए ‘सारा दिन तोमार’ और ‘तोमार समाधि फूले फूले’ थे। अमानुष में उन्होंने ‘आशाएं बंधी’ (किशोर) और ‘जदि होए चारुकंठी’ (किशोर, आशा) को स्वरबद्ध किया था। बन पलाशी पदबोली के संगीतबद्ध और गाए ‘अहा मुरी मुरी’ और लाल पत्थर में सलिल के निर्देशन में गाए ‘देका न मोरे’ (सविता के साथ), आनंद आश्रम में उनका स्वरबद्ध ‘आमार स्वप्न’ (किशोर, आशा), पृथ्वी आमार छाए में नचिकेता घोष के निर्देशन में ‘किउ नए साहेब’ (अल्पना बंद्योपाध्याय के साथ) और देयो नेओ (जिसका रूपांतर बाद में हिंदी में ‘अनुरोध’ बनकर आया) के गीत प्रसिद्ध हुए थे। हिंदी फिल्म-जगत में गायक के रूप में सलिल चौधरी उन्हें लाए थे। नौकरी (1954) के ‘छोटी-सी नौकरी का तलबगार हूं’ में किशोर कुमार और शंकर दासगुप्ता के साथ उन्होंने भी गाया था। सलिल ने उनसे लता के साथ बिराज बहू (1945) का बिदाई गीत ‘तेरा घर आबाद रहे, जा री दुलहनिया जा’ और मुसाफिर (1957) का शीर्षक गीत ‘इक आए इक जाए मुसाफिर’ भी गवाया था। पर इन गीतों को लोकप्रियता नहीं मिली और हिंदी फिल्म-जगत के लिए श्यामल अनजान रहे। हिंदी फिल्म–जगत में उनकी पहचान अमानुष के हिंदी संस्करण (1975) के बाद बनी। ‘दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा’ (किशोर) गाने ने धूम मचा दी। अपनी रिद्म और तान में झिंझोटी पर आधारित इस खूबसूरत गीत ने किशोर को सर्वश्रेष्ठ गायक और इंदीवर को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिलाया। ‘न पूछो कोई हमें जहर क्यों पी लिया (किशोर) और मिश्र भैरवी पर आधारित ‘गम की दवा तो प्यार है, गम की दवा शराब नहीं’ (आशा) की खुमार-भरी धुनें उस वक्त अच्छी चली थीं। ‘तेरे गालों को चूमूं झुमका बन के’ (किशोर, आशा) का बंगाली स्पर्श भी आकर्षक था। राग गारा पर आधारित ‘कल के अपने आज न जाने क्यूं’ (आशा) भी उत्कृष्ट, पुरस्कृत रचना बनी।
श्यामल मित्रा की धुनों में बंगाल के लोकरंग का प्रभाव तो था ही, साथ ही कम्पोजीशंस की कसावट में शास्त्रीय संगीत का ज्ञान भी प्रदर्शित होता है। लोकरंग की माटी के साथ संवेदना संवर्धक ऑरकेस्ट्रा का प्रयोग उनकी खासियत रही। शक्ति सामंत की उत्तम कुमार और शर्मिला अभिनीत आनंद आश्रम का ‘सारा प्यार तुम्हारा मैंने बांध लिया है आंचल में’ में प्यार की छलछलाहट है जो ग्रामीण बंगाल के नदियों और तालाबों की याद दिलाती है। ‘राही नए-नए रस्ता नया-नया’ (किशोर) की बीट्स लोकशैली का आधार लेकर भी एक आधुनिकता लिए हुए है और यही बात ‘तुम इतनी सुंदर हो सारी दुनिया दीवानी होगी’ (प्रीति सागर, येसुदास) के लिए भी कही जा सकती है।
हिंदी में श्यामल मित्रा कुछ अन्य प्रशंसित फिल्मों के भी संगीतकार रहे। बासु चटर्जी ने अपनी फिल्म सफेद झूठ (1977) के लिए उन्हें चुना। शास्त्रीय रंग, लोकशैली और आधुनिक प्रस्तुति का बेहद लुभावना संगम लेकर वह इस फिल्म में ‘चोरी-चोरी जइयो राधे जमुना किनारे’ (आशा, श्यामल मित्रा) में सरोद और बांसुरी के लुभावने मिश्रण, ‘तेरे मेरे लिए तारों के दिए’ (येसुदास) की मोहक धुन में सितार की सज्जा, ‘नीले अंबर के तले’ (येसुदास) और ‘मतवाले पल ये कह गए पागल से’ (आशा) जैसे आधुनिक गीतों के साथ आए थे। वैसे फिल्म पिट जाने से इन गीतों को अमानुष या आनंद आश्रम के गीतों जैसी सफलता नहीं मिली। यही बात फणि मजूमदार निर्देशित ममता (1977) के ‘है ये पल चंचल बड़ी हलचल’ (आशा, श्यामल मित्रा, साथी) और ‘हम गम से न हारेंगे’ (लता) जैसे गीतों के बारे में कही जा सकती है। आलो सरकार निर्देशित बंदी (1978) के ‘जिसे यार का सच्चा प्यार मिले उसे सारे जहां की दौलत क्या’ (किशोर, सुलक्षणा पंडित) को जरूर अच्छी लोकप्रियता मिली थी। बांग्ला फिल्म देओ नेओ का उनका संगीत बेहद सफल रहा था और इसी पर शक्ति सामंत ने अनुरोध बनाई पर, संगीत श्यामल को न सौंपकर लक्ष्मी–प्यारे को सौंपा।
श्यामल मित्रा ही वह संगीतकार थे जिनके साथ रफी ने अपने संगीतमय व्यावसायिक जीवन के आखिरी क्षण बिताए थे। 31 जुलाई, 1980 को श्यामल मित्रा रफी के घर गए थे जहां दोपहर तक दुर्गा पूजा के लिए कुछ बांग्ला गीतों की रिहर्सल चलती रही। दोपहर बाद ही रफी के सीने में दर्द उठा था और उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां उनकी मौत हो गई। नवें दशक में धूम-धड़ाके के बीच श्यामल मित्रा के लिए हिंदी फिल्मों में जगह कम बची। उत्तम कुमार के असामयिक निधन ने उनकी बांग्ला रूपांतरित हिंदी फिल्मों का द्वार भी बंद हो गया। इस दौर की श्यामल मित्रा की संगीतबद्ध अतृप्त आत्मा भी उपेक्षित ही रही। ‘मैं तो हूं तेरी प्रेम दीवानी’ और ‘ओ तेरे बिन सूना मन का आंगन’ की धुन और संगीत सस्पेंस, हॉटिंग थीम के लिए प्रयुक्त होने वाली आम धुनों की ही तरह थी, पर ‘मुझको ये क्या हो गया न जाने’ और ‘दे रहा है दुआ मेरा दिल तुझे’ जैसे पाश्चात्य ऑरकेस्ट्रेशन के गीतों के साथ मेलोडी को बरकरार रखने की कोशिशें भी नाकाम ही रहीं।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)