Advertisement

इंडिया@ 2057

साल-दर-साल विकराल होता हवा, पानी, मिट्टी का प्रदूषण और उपायों से हाथ खाली रहे तो चालीस साल बाद की कल्पना कीजिए
कौन देगा सांस लेने का अधिकार? अपने से ज्यादा बच्चों यानी भविष्य की सोचिए

राजधानी दिल्ली में दमघोंटू स्मॉग में दिन भर बिताने के बाद रात में देर तक नींद उड़ी रही। अपने तो अपने, बच्चों के सुबह स्कूल जाने के लिए क्या जतन करें, यही चिंता खाए जा रही थी। मेरी छोटी की वैसे भी सांस जो चलती रहती है। यही सोचते-सोचते न जाने कब नींद लग गई। सपने में टाइम मशीन घूम गई। यह 2057 है। और अभी तो लगता है कि सवेरा हुआ ही है। खिड़की से आ रही रोशनी यही अंदाजा दे रही थी। आंख खुली तो सिर भारी लग रहा था। देर से ही नींद लगी थी। कुछ वक्त तो सोशल मीडिया ही खा गया था। फिर कल पापा के सिर पर 'पास्ट' उतर आया था। वे देर तक दादा जी के किस्से सुनाते रहे थे। अचानक मोबाइल ऑन किया तो चौंक पड़ा। नौ बज चुके थे। फिर मुझे याद आया कि अब देर तक सूरज बच्चा ही बना रहता है, जिससे रोशनी मद्धिम ही रहती है। शायद रात में पापा की पुरानी बातों से ऐसा भ्रम हो गया था कि सवेरा पांच-छह बजे ही हो जाया करता है। ऐसा ख्याल आते ही सिर घूम गया। शाम चार बजे चेन्नै की फ्लाइट पकड़नी है और सेक्रेटरी ने अभी तक यह भी नहीं बताया कि कौन-से मास्क की जरूरत पड़ेगी? कौन-सा ड्रेस पहनना होगा, ताकि शरीर पूरा बचा रह सके?

तीन रोज पहले हैदराबाद गया था और थोड़ी मस्ती सूझी, बांह खुली रह गई तो फौरन फफोले पड़ गए थे। हैदारबाद में हवा में 'लीड' कुछ ज्यादा है। पुराने शहर में तो कानी उंगली भी खुली नहीं रख सकते। वहां तो जरूरी यह भी कि खास मेडिकेटेड ड्रेस ही पहनें। ड्रेस भी कई कंपनियों के हैं पर मुझे तो वाइजर के फुल ड्रेस पर ही भरोसा है। वहां तो पानी भी पूरा दो दिनों के लिए भर कर ले जाना पड़ा था। वरना वहां पानी में इतना आर्सेनिक है कि बोतलबंद पानी पर भी भरोसा नहीं कर सकते। फिर ख्याल आया कि यह मैं क्या सोचने लगा। पत्नी को आवाज लगाई तो वह तैयार हो चुकी थी। बड़बड़ाने लगी कि ऑफिस जाने के वक्त ही तुम्हारी नींद टूटती है। एक गरम प्याली मेरे पास रख कर चली गई। मैंने देखा, यह चाय नहीं थी, बाबा अंजलि वाले का काढ़ा था। मैंने कहा, अरे यार सुबह-सुबह तो यह जुल्म न करो। जवाब तीखा था, यही मिलेगा, हाथ में फफोले लेकर आए हो, होश तो ठिकाने रहते नहीं!

सोचा बकझक करने का कोई फायदा नहीं है। कड़वे-से काढ़े की चुस्की लेते हुए मैंने मोबाइल पर गूगल खोला तो पहली खबर देखकर मेरी सांस रुकने लगी। शाम को चेन्नै में भारी बारिश के आसार हैं। अभी पिछले ही दिनों तो मरीना बीच पर अचानक बारिश हुई तो एसिड से कई लोगों की चमड़ी जल गई थी। एक लड़की के जले चेहरे की तस्वीर देखा तो रूह कांप गई थी। फिर वहां एक न्यूक्लियर प्लांट से अभी कुछ ही दिन पहले तो रेडिएशन ऐसा रिसा था कि सैकड़ों जिंदगियां बर्बाद हो गईं। अब उस पूरे इलाके को बंद कर दिया गया है। लेकिन बारिश में कहां का पानी कहां पहुंच जाए और आप कहां रे‌डिएशन की चपेट में आ जाएं, कहना मुश्किल है। यह सब सोच ही रहा था कि मोबाइल बजा। सेक्रेटरी बता रही थी कि चेन्नै में भारी बारिश की आशंका से फ्लाइट कैंसिल हो गई है। मैंने राहत की सांस ली।

लेकिन दूसरी चिंता सताने लगी। कल सुबह उस कांटैक्ट पर दस्तखत नहीं हुए तो सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। मैंने सेक्रेटरी से कहा कि कोलकाता वाले क्लाइंट से कांटैक्ट करो, अगर वहां से ओके हो जाता है तो आज ही रवाना होना होगा। कुछ ही देर में सेक्रेटरी मोबाइल पर थी, सर, कोलकाता वाले तैयार हैं पर फ्लाइट में पंगा है। रात 9 बजे वाली फ्लाइट ही मिल रही है। मैंने कहा, बुक करो। लेकिन सुनो, कोलकाता के लिए कैसे ड्रेस की तैयारी करनी होगी, जल्दी बताओ।

पत्नी फिर आती दिखी। कुछ तो हड़काएगी ही। वह अपने से दोगुनी लग रही थी। मास्क ऐसा लगाया हुआ था कि अजीब लग रही थी। कई बार कहा है कि हवाई का ड्रेस और मास्क ले लो, लेकिन अपने पापा की सीख के चक्कर में वह आज भी स्वदेशी के फेर में पड़ी है। फिर उसे कुछ पैसे बचाने की भी सनक चढ़ी रहती है। दूसरे, बाबा अंजलि वालों का भी चक्कर है कि उसे दकियानूसी बनाए रखता है। मैं खामखा खीझ रहा था। हमारे एनसीआर में भारी बने बिना काम भी तो नहीं चलता। ड्रेस में ऑक्सीजन बनाने वाले कम से कम दो-तीन पाउच तो चाहिए ही, वरना सांस अटकने लगती है। गनीमत यह है कि पानी से ऑक्सीजन बनाने वाले पाउचों के बदले अब गैसीय मालिक्यूल्स के इस्तेमाल की टेक्नोलॉजी आ गई है। पहले पानी के मॉलिक्यूल्स को तोड़कर ऑक्सीजन निकालना पड़ता था तो पाउच में एक-दो बार पानी भरने की भी जरूरत पड़ती थी। वह भारी भी होता था। अब उससे तो थोड़ी राहत मिली है।

दरअसल, एक जमाने में दिल्ली में सांस की तकलीफ से लोग मरने लगे थे। तब ऐसे मास्क वगैरह नहीं हुआ करते थे। पापा 2017 की कहानी सुनाते हैं कि उस साल दिवाली में पटाखे पर एनजीटी ने बैन लगा दिया था। अब जिसे प्लानेट मिनिस्ट्री कहा जाता है, जिसे हिंदी में धरती मंत्रालय कहते हैं, उसी का काम तब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के जिम्मे हुआ करता था। पहले पटाखे भी आज की तरह लेजर वाले नहीं होते थे, बल्कि आग और धुआं खूब उगलते थे। एनजीटी को लगा था कि पटाखे रोक कर हवा कुछ साफ कर लेंगे। लेकिन पापा बताते हैं कि उससे खास फर्क नहीं पड़ा। करीब पंद्रह-बीस दिन बाद पूरा एनसीआर धुएं और धूल से ढंक गया। लोगों का सांस लेना दूभर हो गया तो कहा गया कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने खेत में ही पुआल और पराली जला दी तो उसका धुआं छा गया। दिल्ली में तब कोई आम आदमी पार्टी की सरकार हुआ करती थी, जिसने ऑड-ईवन स्कीम शुरू करने की सोची थी लेकिन एनजीटी ने रोक दिया। उसने पूछा कि इसके पिछले साल का लागू करने का अनुभव क्या बताता है। वह भी फिसड्डी। तो, पता नहीं कैसे हुक्मरान थे जिन्हें पता ही नहीं था कि करना क्या है। पापा कहते हैं कि तभी अगर कुछ कदम उठाए जाते तो आज धरती पर जीना इतना मुश्किल नहीं होता। लेकिन जिस औद्योगिक सभ्यता पर दुनिया चल निकली थी, शायद उससे लौटना आसान नहीं था। पापा सुनाते हैं कि दादाजी अपने बचपन की बातें बताया करते थे कि गांवों और शहरों में भी लोग अधनंगे बदन रहा करते थे। ठीक वैसे जैसे महात्मा गांधी तस्वीरों में दिखते हैं। लोग जाड़ों में धूप सेंका करते थे। आज तो इसकी कल्पना करके ही रूह कांप उठती है। तब न एसी हुआ करते थे, न इतनी गाड़ियां दौड़ती थीं, न खेतों में फसल का अवशेष जलाया जाता था। तब पेट्रोल और डीजल के पंप हुआ करते थे, जैसे आज गैस के हैं। उन पंपों से उठने वाली गंध बड़ी सोंधी हुआ करती थी। लेकिन दादा जी अधेड़ हुए तो सब बदल गया था। सांस ही नहीं, हवा, पानी और अनाज, सब्जियां सब जहरीली होने लगी थीं। कैंसर और तरह-तरह की नई महामारियां बढ़ने लगी थीं। तब भी न किसी सरकार, न किन्हीं एक्सपर्टों को ही यह सूझा कि क्या उपाय किया जाए। सब सत्ता में मदमस्त थे।

फिर मोबाइल बोल उठा। सेक्रेटरी ने बताया कि कोलकाता के लिए ड्रेस मिल गया है। कोलकाता के ऊपर ओजोन परत के पतला होने से सूर्य की घातक किरणें ज्यादा तीखी लगती हैं, फिर वहां कूड़े-कचरे का प्रबंधन अभी भी ठीक नहीं होने से कई नए वायरस जानलेवा साबित हो रहे हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि इस ड्रेस का वजन कुछ ज्यादा ही भारी है। सोचकर दिमाग भन्‍नाने लगता है। मुंबई और समुद्र किनारे वाले तमाम शहरों का यही हाल है। दूसरे इलाकों की भी अलग-अलग समस्याएं हैं।

हम आदमी तो तरह-तरह के उपायों से बच भी जा रहे हैं मगर बेचारे जानवरों का बुरा हाल है। मेरे डॉगी को तो अब पता भी नहीं होगा कि उसके वंशज कभी नंगे ही खुली सड़कों पर घूमा करते थे।

अचानक नींद टूटी तो घड़ी बदल गई थी। ख्याल आया कि पता नहीं आज ऑड डे है या ईवन। दिल्ली सरकार, एनजीटी, या केंद्र सरकार पता नहीं क्या फैसला करते हैं। फिर वही चक्करघिनी शुरू हो गई।

यह कथा आपको डरावनी लग सकती है लेकिन यह एक उस दिन की कल्पना है जब हम इसी दशा को पहुंच जाएंगे, अगर आज नहीं चेते। अब सवाल यह है कि क्या हम वापस लौट सकते हैं? क्या प्रकृति को नष्ट करने वाली जीवन-शैली से मुंह मोड़ सकते हैं? या अपनी हवा, पानी, मिट्टी को बचाने के वैकल्पिक उपाय कर सकते हैं?

Advertisement
Advertisement
Advertisement