जेद्दा स्थित अरब न्यूज के संपादक फैसल अब्बास ने सऊदी अरब के शाही खानदान के सदस्यों, मंत्रियों और अफसरों के दमन और गिरफ्तारी का खुल कर बचाव किया है और तीन नवंबर को उन्होंने सऊदी के शाह और उनके बेटे मोहम्मद बिन सलमान के समर्थन में अपना पक्ष रखा है। अब्बास ने किसी ‘आंतरिक सत्ता संघर्ष’ की बात से इनकार करते हुए आधिकारिक वक्तव्य का समर्थन किया है कि यह सब कुछ फर्जीवाड़े और भ्रष्टाचार की जांच के सिलसिले में किया गया है। अब्बास का कहना है कि सऊदी अरब में किए जा रहे ‘महत्वाकांक्षी सुधार’ इस बात की पुष्टि करते हैं कि "हम आखिरकार एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां कुछ भी हो सकता है।" जाहिर है, उनके वक्तव्य का आखिरी हिस्सा तो सही ही साबित हुआ है। सऊदी अरब पिछले दो वर्षों में एक असामान्य घटनाक्रम का गवाह रहा है। सऊदी सत्ता का वर्षों से अभिन्न अंग रहे किंग सलमान (81 वर्ष) ने 2015 में सत्ता अपने हाथ में लेने के बाद उन तमाम कसौटियों को उलट डाला, जिन पर आज तक वहां शासन चला करता था। इन्हीं मानकों ने उस क्षेत्र में देश को स्थिरता और निरंतरता प्रदान की थी कि बीते सात दशक के दौरान तमाम तख्तापलट, क्षेत्रीय जंग और भीषण नागरिक, राजनैतिक और सैन्य संघर्षों के बीच यह देश एकजुट स्थिर बना रहा।
ये कसौटियां बहुत आसान थीं, लेकिन सऊदी अरब के लिहाज से विशिष्ट भी थीं। अपने देश पर पांच दशक राज करने के बाद शाह अब्दुल अजीज जब 1953 में आखिरी सांसें गिन रहे थे, उन्होंने अपने बेटों को पारिवारिक एकता बनाए रखने को कहा। उनके पचास के आसपास बेटे थे। उन्होंने गुजारिश की थी कि उत्तराधिकार एक-एक करके भाइयों को जाता रहे जिसमें अनुपयुक्त को जगह न दी जाए। यह तय किया जाए कि शाही और राष्ट्रीय हितों को प्रभावित करने वाले अहम फैसले (जाहिर है, दोनों के बीच कोई फर्क नहीं था) वरिष्ठ शाहजादों के बीच परामर्श की प्रक्रिया से तय किए जाएं।
यह शाही फरमान अब तक वरिष्ठ शाहजादों के बीच आंतरिक सत्ता संतुलन के माध्यम से बनाए रखा गया। सशस्त्र सेना प्रिंस सुलतान के मातहत रहीं, सुरक्षा और पुलिस का जिम्मा प्रिंस नायेफ के पास था और नेशनल गार्ड के मुखिया प्रिंस अब्दुल्ला थे। इस तरह किसी एक प्रिंस के पास निरंकुश सत्ता नहीं थी।
सऊदी राजतंत्र में एक और विशिष्ट आयाम है जो उसे वैश्विक राजनीति से अलहदा करता है। यह राजतंत्र स्पष्ट रूप से एक मजहबी तहरीक के आधार पर परिभाषित है जिसे 18वीं सदी में हुए उसके संस्थापक शेख मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब के नाम पर ‘वहाबिया’ कहते हैं। शेख मोहम्मद की तहरीक इस मामले में कट्टर थी कि वह इस्लाम के स्वीकार्य तत्वों को स्पष्ट तौर पर परिभाषित करती थी और लोकप्रिय आस्था के उन तमाम आयामों को कुफ्र कह कर खारिज करती थी जो उसके हिसाब से विचलन में आते थे, जैसे इस्लाम में शिया और सूफी परंपराएं।
अल सऊद के पूर्वज मोहम्मद ने 1744 में इस सुधारक को वचन दिया कि वे अपने जीते इलाकों में उनकी शिक्षा को लागू करेंगे। सऊदी स्टेट को दो बार बाहरी हमलों से तबाह किया गया, 19वीं सदी के अंत तक अल सऊद परिवार के कई सदस्यों की हत्या कर दी गई, निर्वासन में भेज दिया गया या फिर इस्तांबुल के उस्मानिया दरबार में बंधक बना लिया गया।
उनकी किस्मत तब पलटी जब 1903 में खानदान का एक नौजवान अब्दुल अजीज कुवैत के निर्वासन से लौटा और अपनी पुश्तैनी जायदाद पर दावा ठोंका। फिर 30 बरस तक उसने फतह पर फतह दर्ज की और 1932 में सऊदी अरब पर अपना राज कायम किया। सऊदी अरब का नाम उसने अपने परिवार के नाम पर रखा। जब सलमान 2015 में राजा बने, तब भी ऐसा ही लग रहा था कि चीजें पहले की तरह दुरुस्त रहेंगी क्योंकि एक ओर उनके पास प्रिंस मुकरिन थे जो अब्दुल अजीज के आखिरी जिंदा बेटे थे और जिनका लोकसेवा में अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड था। दूसरी ओर डिप्टी क्राउन प्रिंस यानी छोटे शाहजादे प्रिंस मोहम्मद बिन नायेफ थे जो अगली पीढ़ी से थे और उनका भी पिछला काम अच्छा था। राज हाथ में आने के बाद सलमान ने अपने चहेते बेटे प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को रक्षा मंत्री बना दिया और फिर सुप्रीम इकोनॉमिक काउंसिल का मुखिया भी बना डाला। प्रिंस मुकरिन को अप्रैल 2015 में क्राउन प्रिंस के पद से हटा दिया गया और मोहम्मद बिन नायेफ को जून 2017 में पदच्युत किया गया, उन पर आरोप लगा कि उन्हें पेनकिलर की लत पड़ चुकी है जो उनके विवेक को प्रभावित करती है।
मोहम्मद बिन सलमान इसके बाद क्राउन प्रिंस बना दिए गए। ऐसा करके परामर्श और आम सहमति की परंपरा को तोड़ा गया जिससे आंतरिक सत्ता संतुलन बिगड़ गया क्योंकि रक्षा और आंतरिक मामलों को युवा प्रिंस के मातहत ला दिया गया था। इस प्रक्रिया की परिणति तीन नवंबर को हुई जब 11 शाहजादों, चार मंत्रियों और कई पूर्व मंत्रियों व अफसरों को बंधक बना लिया गया। ऐसा करके प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने बीते छह दशक से अल सऊद की विशिष्टता रहे आंतरिक सत्ता संतुलन का एक झटके में खात्मा कर डाला। नेशनल गार्ड के प्रमुख प्रिंस मितेब बिन अब्दुल्ला को बंधक बनाकर उन्होंने सत्ता के आखिरी केंद्र को अपने नियंत्रण में ले लिया।
बीते तीन नवंबर को जो कुछ हुआ, उसे समझाने में टिप्पणीकारों को काफी मेहनत करनी पड़ रही है। ‘नाइट ऑफ द लांग नाइव्स’, ‘शॉक ऐंड एव’ और ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल घटना के विवरण में किया गया है। जो लोग भी हिरासत में लिए गए हैं, उनका आधार शाही फरमान को बनाया गया है जिसके तहत क्राउन प्रिंस के मातहत एक भ्रष्टाचार निरोधक सुप्रीम कमेटी का गठन किया था जिसके पास जांच करने, गिरफ्तार करने और सभी संदिग्ध व्यक्तियों की जायदाद जब्त करने के अधिकार हैं।
बिलकुल सटीक सूचना तो मुश्किल है लेकिन इतना साफ है कि क्राउन प्रिंस के संभावित विरोधियों के राजनैतिक, सैन्य व वित्तीय सत्ता केंद्रों पर हमला हुआ है। अकेले प्रिंस मितेब ही नहीं, बल्कि उनके पिता शाह अब्दुल्ला के साथ जुड़े कई कारोबारियों, अफसरों और मीडिया के लोगों को भी हिरासत में लिया गया है। अरबपति और रसूखदार प्रिंस अलवलीद बिन तलाल की गिरफ्तारी पर अटकलें लगाई जा रही हैं। कहा जा रहा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से बैर लेने के बाद उन्होंने क्राउन प्रिंस की कुछ विशाल परियोजनाओं में पैसा लगाने से मना कर दिया था।
क्राउन प्रिंस ने शुरू में एक सार्वजनिक बयान दिया था कि 2010-14 के बीच सरकारी ठेकों पर 80 से 100 अरब डॉलर का अनावश्यक खर्च किया गया है। कुछ अफसरों का कहना है कि मौजूदा दमन से राजकोष में जब्त जायदादों से करीब 800 अरब डॉलर का इजाफा होगा। प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने खुद को ‘नए सऊदी अरब’ के प्रणेता के रूप में पेश किया है। क्राउन प्रिंस के पीछे ट्रंप और उनके दामाद जेरेड कुशनर की ताकत काम कर रही है। माना जाता है कि दोनों के करीबी और निजी संबंध हैं। इन रिश्तों के पीछे एक ओर रक्षा सौदों के संबंध में किए गए वादे भी हैं।
यहां एक सवाल ईरान का सामना करने के लिए सऊदी अरब के सीरिया और यमन में चलाए जा रहे छायायुद्धों पर जरूर खड़ा होता है, जहां उसने जीत का कोई संकेत दिखे बगैर अरबों डॉलर झोंक दिए हैं जबकि क्राउन प्रिंस की कारस्तानियों ने गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) का भी अंत कर डाला है, देश को कतर के साथ एक लंबी जंग में धकेल दिया है और इन सबसे अहम, सीरिया, यमन और लेबनान में ईरान के प्रभाव को कम कर पाने में भी अक्षम रहा है।
शाही खानदान और उसके सियासी मसायल पर पड़े एक झीने परदे के चलते यह समझ पाना मुश्किल होगा कि सऊदी अरब के लोगों पर हालिया घटनाक्रम का क्या असर पड़ने वाला है। क्राउन प्रिंस की कार्रवाइयों के प्रति यहां गहरा असंतोष भी हुआ, तो यह समझना मुश्किल है कि कैसे यह असंतोष किसी कारगर सियासी विपक्ष की शक्ल ले पाएगा। अब सत्ता के सारे संस्थान क्राउन प्रिंस के नियंत्रण में हैं, उनके खिलाफ न तो कोई तख्तापलट मुमकिन है और न ही किसी बाहरी सत्ता की शह पर कोई सियासी बदलाव होने जा रहा है। प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ऐसे में इस मौके का लाभ उठाकर उन सामाजिक और आर्थिक बदलावों को साकार कर सकते हैं जिनका वादा उन्होंने गद्दी पर बैठते वक्त किया था। कहीं ज्यादा अहम होगा कि वे ईरान के प्रति अपनी नफरत को एक बार फिर तौलें और आपसी मतभेदों को संतुलित करने के लिए कूटनीतिक रास्ते अपनाएं। इन विषयों पर अगर वे नाकाम रहे, तो क्रूर तरीके से सत्ता हथियाने के पीछे की सारी दलीलें खोखली पड़ जाएंगी और उनकी बहुत भद्द पिटेगी।
(लेखक पूर्व राजनयिक हैं और दो बार सऊदी अरब में भारत के राजदूत रह चुके हैं)