इस साल हम चंपारण किसान सत्याग्रह की 100वीं और नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह की 50वीं सालगिरह मना रहे हैं। यह थोड़ा अजीब लग सकता है कि देश के 20वीं शताब्दी के इतिहास की इन दो अहम घटनाओं को एक ही खांचे में रखकर विचार किया जाए। चंपारण उपनिवेश-विरोधी आंदोलन का ऐसा अध्याय है, जिसे हर कोई गर्व से याद करना चाहता है, जबकि नक्सलबाड़ी समूचे सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए किसी दुःस्वप्न की तरह था। हालांकि, गहराई में देखें, तो इन दोनों ऐतिहासिक घटनाओं में एक साझा सूत्र नजर आ सकता है।
चंपारण सत्याग्रह ने उपनिवेश-विरोधी आंदोलन में किसान और कृषि संबंधी प्रश्नों के अतिशय महत्व को रेखांकित किया। लेकिन आधिकारिक तौर पर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की एक दूसरी धारा को ‘मुख्यधारा’ की मान्यता मिली। चंपारण के बाद के कृषक-संघर्ष मोटे तौर पर भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास बन गए, जिसमें बंगाल का तेभागा और आंध्र के तेलंगाना विद्रोह को दो अहम बिंदु मान सकते हैं। उसके बाद भीषण सांप्रदायिक हिंसा के बीच देश औपनिवेशिक दासता से आजादी का सफर शुरू करता है।
औपनिवेशिक सत्ता से आजादी के बाद सरकार ने औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण का बड़ा नजरिया अपनाया, लेकिन कृषि-व्यवस्था में परिवर्तन के एजेंडे को उपेक्षित छोड़ दिया गया। जमींदारी प्रथा मिटाने की बातें कही गईं, कानून भी बनाए गए, लेकिन नौकरशाही, विधायिका और न्यायपालिका में गहरे तक धंसे सामंती हितों ने प्रभावी तौर पर एजेंडे को पूरा नहीं होने दिया, जबकि कुछ संतनुमा शख्सियतों ने भूमि-सुधारों और भू-अधिकार के पूरे आख्यान को ही जमींदारों से ‘भूदान’ तक सीमित कर दिया।
विडंबना ही है कि मार्क्सवादी आंदोलन भी इस भारी वादाखिलाफी के खिलाफ उठ खड़ा नहीं हो पाया और कृषि-क्रांति का एजेंडा पृष्ठभूमि में चला गया। इसी पृष्ठभूमि से नक्सलबाड़ी आंदोलन पैदा हुआ और तेभागा और तेलंगाना की भावना प्रबल हो उठी। वहां से उठी आग की लपटें जल्दी ही ग्रामीण भारत के बड़े हिस्से में फैल गईं। औपनिवेशिक दौर में चंपारण की तरह ही, नक्सलबाड़ी ने भी औपनिवेशिक दासता से आजाद आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में कृषि-संबंधों में बदलाव को केंद्र में स्थापित कर दिया।
बिलाशक, नक्सलबाड़ी विद्रोह रातोरात पैदा नहीं हो गया था। उस इलाके में वर्षों से किसानों के बीच मार्क्सवादियों ने काम किया था और व्यापक जमीन तैयार की थी। 1940 के दशक में जलपाइगुड़ी और दिनाजपुर जैसे पड़ोसी जिले तेभागा विद्रोह के केंद्र थे। उस समय अविभाजित बंगाल में शोषित किसानों ने सामंतवाद, सांप्रदायिकता और उपनिवेशवाद की सम्मिलित ताकत के खिलाफ बंटाईदारों के अधिकारों की ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी थी। दो दशक बाद, पहली बार आठ अन्य राज्यों के साथ पश्चिम बंगाल में कांग्रेस सत्ता से बाहर थी। रोजगार और अनाज की मांग को लेकर ताकतवर और आक्रामक जनांदोलन उठ खड़े हुए थे। ये हालात सशस्त्र किसान विद्रोह की जमीन तैयार कर रहे थे। ऐसे में, नक्सलबाड़ी इसका केंद्र बनकर उभरा। नक्सलबाड़ी के सूत्रधारों-चारु मजूमदार, कानू सान्याल, जंगल संथाल, खोकन मजूमदार और उनके असंख्य कामरेडों के लिए यह विचार तेभागा की पुनरावृत्ति मात्र न थी, बल्कि एक संपूर्ण कृषि-क्रांति का आगाज थी, जो भारतीय समाज के समग्र लोकतंत्रीकरण के लिए धुरी का काम करती।
इसी क्रांतिकारी जज्बे से नक्सलबाड़ी का संदेश देश के लगभग हर कोने में गूंजने लगा। नक्सलबाड़ी विद्रोह की शुरुआत सीपीआइ (एम) के क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं ने की थी, जो पश्चिम बंगाल में तब प्रमुख वामपंथी संगठन के तौर पर उभरी थी। यह पार्टी संयुक्त मोर्चा सरकार की बड़ी साझीदार भी थी, जिसने कांग्रेस को सत्ता से विस्थापित किया था। हालांकि, बाद में पार्टी ने इस विद्रोह से अपना पल्ला झाड़ लिया और सरकार ने इसे शुरुआत में ही कुचल डालने के लिए कठोर दमन-चक्र शुरू किया। लेकिन नक्सलबाड़ी ने पूरे देश के मार्क्सवादी क्रांतिकारियों का समर्थन हासिल किया और एक पूरी पीढ़ी को मार्क्सवादी आंदोलन में कूदने को प्रेरित किया। दो वर्ष के अंदर ही, नक्सलबाड़ी ने एक नई कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआइ (एमएल) की नींव रख दी। नई पार्टी को हालांकि मजबूत बनने का मौका नहीं मिला। अपने गठन के तीन वर्षों के भीतर ही, इसके चारु मजूमदार और सरोज दत्त जैसे कई संस्थापक मारे गए और हजारों कार्यकर्ता या तो हलाक कर दिए गए या फिर उन्हें कैद कर तड़पाया गया।
इस बर्बर दमन के बावजूद नक्सलबाड़ी और सीपीआइ (एमएल) ने देश के बड़े हिस्से में गहरी जड़ें जमा लीं। नक्सल आंदोलन को दबाने के लिए चल रहा दमन हिरासती मौतों, फर्जी मुठभेड़ों और सीपीआइ (एमएल) के कार्यकर्ताओं के हत्याकांडों तक ही नहीं रुका। राजसत्ता के दमन की यह अन्यायी राजनीति आखिरकार पूरे देश में आंतरिक इमरजेंसी के रूप में सामने आई, जब संवैधानिक गणतंत्र लगभग दो वर्षों के लिए मुल्तवी कर दिया गया। 1977 में लोकतंत्र बहाली के बाद कई क्षेत्रों में क्रांतिकारी सक्रियता (रेडिकल एक्टिविज्म) का भी उभार देखा गया और इसमें अधिकांश नक्सलबाड़ी से प्रभावित था। नक्सलबाड़ी का असर मानवाधिकारों के संरक्षण से लेकर ‘सब-आल्टर्न’ इतिहास की पढ़ाई, कला, साहित्य, संगीत, नाटक, फिल्म के जरिए प्रतिरोध की संस्कृति के विविध रूपों में नजर आया।
नक्सलबाड़ी जन-संघर्षों की रूहानी ताकत बन गया। उसने वर्ग-संघर्ष को एक नया आयाम दे दिया, जहां शोषित ग्रामीण गरीब, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूर, दलित, आदिवासी, महिलाएं और ‘विकास’ के नाम पर कॉरपोरेट आक्रामकता से विस्थापित हुए लोग, पर्यावरण संबंधी मसलों से विस्थापित लोगों के मुद्दे सक्रिय मार्क्सवादी राजनीति के केंद्र में आ गए। शोषित ग्रामीण गरीबों की जमीन, मजदूरी, सामाजिक प्रतिष्ठा के मूलभूत अधिकारों की मांग और अब मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए दावा, कैंपस में विद्यार्थियों की सक्रियता का समाज के विभिन्न लोकतांत्रिक संघर्षों से समन्वय, महिलाओं का परिवार, समुदाय और कार्यस्थलों में पितृसत्ता के बंधनों के खिलाफ बुलंद आवाज, निर्माण-मजदूरों, सफाईकर्मियों, कांट्रैक्ट मजदूरों का संगठन वगैरह ऐसे मसले हैं, जिनके जरिए हम नक्सलबाड़ी की इबारत को समाज और देश के बड़े तबके पर साफ-साफ लिखा पा सकते हैं।
चुनावों के बहिष्कार की पुरानी राजनीति को त्याग कर सीपीआइ (एमएल) 1980 के दशक में चुनावी राजनीति में उतरा और तब से यह सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए लगातार सिरदर्द ही साबित हुआ है। संसदीय क्षेत्र में किसी नक्सलवादी की पहली विजय (बिहार के आरा से रामेश्वर प्रसाद, 1989 में) पहली बार दलितों के खुलकर वोट देने से हुई।
ग्रामीण गरीबों को अपने मताधिकार के इस्तेमाल के लिए, अपनी जीत के लिए काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, जो राज्य-प्रायोजित निजी सेनाओं के नरसंहार के रूप में थी। झारखंड में जब सीपीआइ (एमएल) के विधायक महेंद्र सिंह नए बने राज्य की भाजपा सरकार के सबसे मुखर विरोधी साबित हुए, तो उन्हें 2005 के विधानसभा चुनावों में नामांकन भरने के तुरंत बाद ही गोली से खामोश कर दिया गया।
नक्सलबाड़ी वर्तमान परिदृश्य से कैसे जुड़ता है? नक्सलबाड़ी की बिलाशक एक कट्टरतावादी व्याख्या है, जो किसी खास संदर्भ या परिस्थितियों में नहीं देख्ाना पसंद नहीं करती। इस विचार में, नक्सलबाड़ी का मतलब केवल भारत में चीनी क्रांति के प्रारूप को उतारना भर है, हमारी परिस्थितियों की अनदेखी करके भी। इस तरह का गैर-ऐतिहासिक रवैया नक्सलबाड़ी के मूलभूत मूल्य और तत्व के ही खिलाफ है। नक्सलबाड़ी के सूत्र आज भी काफी हद तक प्रभावी हैं। नक्सलबाड़ी की केंद्रीय भावना सामंती सत्ता के बचे-खुचे अवशेषों को साफ करना और समाज के पूर्ण प्रजातंत्रीकरण के आधार पर नए भारत का निर्माण है। पचास साल बाद हम लोग फिर से, ‘न्यू इंडिया’ की बातें सुन रहे हैं, हालांकि इस बार विचारधारात्मक क्षितिज के बिलकुल उल्टे छोर से यह गूंज रहा है। यह ऐसा ‘न्यू इंडिया’ है, जहां बड़े कॉरपोरेट अर्थव्यवस्था पर कब्जा करेंगे, हिंसक भीड़ का सड़कों पर साम्राज्य होगा और वर्तमान सत्ता इस बेहिसाब त्रासदी को ‘विकास’ और ‘राष्ट्रवाद’ जैसे दो जुमलों के सहारे शह देगी।
क्या हमें पहले से कभी इसका पूर्वाभास नहीं हुआ कि चीजें यहां तक पहुंच जाएंगी? यकीनन, हमें था। ऐसी चेतावनी की एक स्पष्ट और खनकदार आवाज हमें डॉक्टर आंबेडकर के रूप में भारत का संविधान रचते और स्वीकारते वक्त बार-बार सुनाई देती है। संविधान सभा के निष्कर्ष-सत्र के अपने संबोधन में उन्होंने विरोधाभासों के नए चरण में प्रवेश करने के बारे में कहा। विरोधाभास, जो ‘एक वोट, एक मूल्य’ के हमारे राजनैतिक बराबरी के सिद्धांत और हमारे समाज में पैबस्त गैर-बराबरी के व्यवहार में है। इसके बीज जाति व्यवस्था के जरिए सामाजिक असमानता के पदानुक्रम और पूंजीवाद में अंतर्निहित आर्थिक गैर-बराबरी में हैं। संवैधानिक प्रजातंत्र के ऊपरी रूपरंग और भारत में अंतर्निहित गैर-प्रजातांत्रिक सामाजिक रचना में यह विरोधाभास है। विरोधाभास, राष्ट्र-निर्माण के लक्ष्य और जाति के रूप में राष्ट्र विरोधी समाज व्यवस्था में है। जाति के खात्मे के बगैर कभी सही मायनों में राष्ट्रीय एकता नहीं आ सकती। विरोधाभास एक आक्रामक बहुसंख्यकवाद और अल्पसंख्यकों के वजूद का है।
दूसरे शब्दों में, जब आंबेडकर ने हमें स्वतंत्र भारत का संविधान दिया और संवैधानिक नैतिकता के आधार पर एक नई राजनैतिक-प्रशासनिक संस्कृति विकसित करने को कहा, तब उन्होंने हमें स्वाधीनता, समानता और बंधुत्व के संवैधानिक प्रारूप और जातिवाद, सांप्रदायिकता और घोर असमान सामाजिक-गैर प्रजातांत्रिक संस्थाओं के विरोधाभास के प्रति चेताया भी था। नक्सलबाड़ी ने इसी विरोधाभास को समाज के प्रजातंत्रीकरण के जरिए सुलझाने की कोशिश की थी। हम जो आज देख रहे हैं, वह ठीक उल्टा है-संविधान को ही धता बताने की मुंहजोर कोशिश चल रही है, प्रजातंत्र को उलटने और गणतंत्र को ही आतंकित करने की कोशिश चल रही है। नक्सलबाड़ी आंदोलन 1970 के दशक को भारतीय लोगों के लिए मुक्ति का दशक नहीं बना सका, पर यह आज प्रजातंत्र और स्वाधीनता के लिए लड़ने की प्रेरणा और ताकत का शर्तिया तौर पर एक बड़ा स्रोत है। मतलब यह कि इसकी भावना विविध रूपों में देश की शोषित-पीड़ित जनता को ताकत देती रहेगी।
(लेखक सीपीआइ-एमएल, लिबरेशन के महासचिव हैं)