कल्पना कीजिए, सोशल मीडिया पर आपकी टिप्पणियों पर आपके एक परिचित की ऐसी गहरी छाप है कि लोग मजाक में आपको उनका गुलाम तक कहने लगे हैं। लेकिन लोग कुछ भी कहें, आपको अपने इस अंकल सोम की बातें काफी प्रभावित करती हैं। आखिर वे बेहद भले, विनम्र और सबसे घुलने-मिलने वाले इनसान जो हैं और वाकई वे जानकार तो गजब के हैं। ऐसी जानकारियों का खजाना उनके पास है, जो विरले ही पढ़ने-सुनने को मिलती हैं। हां, हर मामले में उनका अपना एक नजरिया होता है। आपका उन पर भरोसा भी ऐसा है कि वे आपके एकाउंट पर कोई पोस्ट डाल दे तो आपको बुरा नहीं, अच्छा लगता है क्योंकि उनकी लाइनें ज्यादा चुटीली होती हैं। फिर, यह भी सोचने का कोई कारण नहीं है कि वे कुछ गलत सोचेंगे या करेंगे। धीरे-धीरे आप पाते हैं कि आप उन्हीं की तरह सोचने-लिखने-बोलने लगे हैं।
तो, सोम अच्छे हैं? या कुछ लोगों के कहे के मुताबिक, बुरे हैं? इससे शायद बड़ा सवाल यह है कि आपकी सोच-समझ कैसे दूसरे के वशीभूत होती जाती है। ऐसे ही आज जनमत को प्रभावित करने के लिए राजनैतिक और तमाम प्रभावी तंत्र सोशल मीडिया के मंचों का इस्तेमाल करने लगे हैं।
जानकार और विशेषज्ञ तो एक कदम आगे बढ़कर यह सवाल उछाल रहे हैं कि कहीं सोशल मीडिया लोकतंत्र के लिए खतरा तो नहीं बनता जा रहा है? यह वाकई चौंकाने वाला पहलू है क्योंकि शुरुआती दिनों में डिजिटल संसार को सबको एक समान अभिव्यक्ति का मौका देने वाला और लोकतांत्रिक माना गया था। लेकिन वह आशावाद अब समाप्त हो चुका है और निराशा घर करने लगी है। इस माध्यम के अपने अपेक्षाकृत अधिक अंधियारे पक्ष हैं, जो सबको समान रूप से अपने आगोश में ले रहे हैं, चाहे आप हों या हम या फिर अंकल सोम।
ओमडियार समूह की ओर से अक्टूबर में ही प्रकाशित एक अध्ययन के शीर्षक में स्पष्ट रूप से यह सवाल उठाया गया है। यह समूह इंडोनेशिया के रैपलर और भारत के न्यूज लॉन्डरी जैसे इंडिपेंडेंट न्यूज आउटलेट में निवेश के लिए जाना जाता है। लोकप्रिय सोशल मीडिया नेटवर्क जैसे फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, रेडइट और फोरचेन जैसे प्लेटफॉर्म के लिए मुसीबत खड़ी करने वाले छह महत्वपूर्ण मसलों की पहचान शोधकर्ताओं ने की है। ये हैं ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाले संदेशों को ज्यादा मजबूती से रखना, झूठी और गुमराह करने वाली सूचनाओं का प्रसार, लोकप्रियता के आधार पर मान्यता देने का मापदंड, ‘लोकप्रिय’ नेताओं और सरकारों द्वारा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना, निजी जानकारी हथियाना और लक्षित संदेश या विज्ञापन।
इन मसलों की आज घुसपैठ इतनी व्यापक हो गई है कि अब काफी हद तक सोशल मीडिया की इसी से पहचान होती है। मीडिया के सभी स्वरूप स्वाभाविक रूप से राजनीतिक होते हैं। बीते दौर में टीवी सहजता से मनोरंजन के प्रति दीवाने और राजनैतिक रूप से तटस्थ लोगों की जमात पैदा कर रहा था। इसे कौन सी सरकार पसंद करेगी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सोशल मीडिया इसका उलटा कर रहा है? इशारे पर नचाए जा सकने वाले अनियंत्रित, यहां तक कि फासीवादी समुदाय का निर्माण कर रहा है? क्या उसके पास सरकारों को अपदस्थ करने की साजिश का हमें हिस्सा बनाने की ताकत है?
इस साल जुलाई में फेसबुक के देश में 24 करोड़ 10 लाख यूजर थे। जबकि उत्तर प्रदेश की आबादी भी करीब 22 करोड़ है, जो भारत में चुनावों को प्रभावित करने की ताकत रखता है। अब जरा सोचिए, फेसबुक यूजर कोई एकजुट समुदाय के रूप में सामने आ जाएं तो वे देश पर राज करने की ताकत पा सकते हैं! स्टेटिस्टा के मुताबिक बीते साल के अंत तक देश में ट्विटर के करीब दो करोड़ 32 लाख यूजर थे,, जिसमें रसूखदार लोगों का अपेक्षाकृत बड़ा मंच माना जाता है। यानी ट्विटर वालों की संख्या फिलहाल छत्तीसगढ़ की आबादी के बराबर बैठती है और तेजी से बढ़ रही है।
पिछले साल न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख में बताया गया था कि फेसबुक पर उसके औसत यूजर प्रतिदिन 50 मिनट बिताते हैं। जिंदगी के बुनियादी कामों से हम इसकी तुलना करें तो पाते हैं कि औसतन हर आदमी प्रतिदिन 64 मिनट खाने-पीने पर खर्च करता है। यानी सोशल मीडिया के मंच उसके लिए जिंदगी की बुनियादी जरूरतों में शुमार होते जा रहे हैं।
हालांकि सोशल मीडिया के प्रति आसक्ति समस्या नहीं है। समस्या दूसरी है। बेंगलूरू स्थित थिंक टैंक तक्षशिला संस्थान के निदेशक नितिन पै के अनुसार अब यह तेजी से स्पष्ट हो रहा है कि मास मीडिया के जितने भी मंचों से हम परिचित हैं उनसे सोशल मीडिया बिलकुल भिन्न है, क्योंकि इससे तत्काल, व्यापक तौर पर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा जा सकता है। इनसानी दिमाग पर इसका असर भी बेहद अलग होता है। ओमडियार समूह का अध्ययन बताता है कि सूचनाओं तक सहज पहुंच और वंचित समूहों को ताकत देने की सोशल मीडिया के बारे में पुरानी धारणाएं उसके प्रति उत्साह पैदा करती थीं, लेकिन अब सब कुछ बदलता जा रहा है।
सोशल मीडिया का बिजनेस मॉडल बिलकुल सीधा है। ध्यान खींचो और फिर विज्ञापन से कमाई करो। फेसबुक और गूगल जैसे प्लेटफॉर्म यूजर के व्यवहार और मनोवैज्ञानिक प्रोफाइल का इस्तेमाल लक्षित सामग्री और विज्ञापन भेजने के लिए करते हैं। ज्यादातर लोगों के लिए अदृश्य ये संदेश उन लोगों के पास सहजता से पहुंच जाते हैं जिनके लिए ये होते हैं।
अल्ट न्यूज के सह संस्थापक 35 वर्षीय प्रतीक सिन्हा के अनुसार, इको चैंबर्स (लक्षित दायरे में बार-बार एक ही तरह के विचार का दोहराव) केवल सोशल मीडिया में ही नहीं हैं। समाज में यूं भी इसके कई रूप आर्थिक वर्गों के तौर पर दिख जाते हैं। अल्ट न्यूज एक वेबसाइट है जो मुख्यधारा की मीडिया द्वारा प्रसारित गलत सूचनाओं को उजागर करता है।
सिन्हा ने आउटलुक को बताया, ‘‘हम आर्थिक इको चैंबर्स पैदा कर रहे हैं और सोशल मीडिया उसे बड़ा बना रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो ऑनलाइन और ऑफलाइन चारदीवारी में कैद है।’’ आम आदमी पार्टी के सोशल मीडिया विंग के प्रमुख अंकित लाल के अनुसार, इको चैंबर्स ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हैं। यह दोधारी तलवार जैसा है। वे मानते हैं कि आम आदमी पार्टी (आप) भी इस तरह के एक इको चैंबर में अटक गया था, जिसका समाधान उन्होंने गैर राजनीतिक लोगों से संपर्क कर तलाशा। ट्विटर पर आप के 40 लाख से ज्यादा और फेसबुक पर 32 लाख फॉलोवर हैं। वे कहते हैं, ‘‘जब दक्षिणपंथी खेमा अनर्गल प्रलाप करता है तो इसकी पहुंच उनके दायरे में होती है। इसी तरह जब हम स्कूल की बात करते हैं तो यह भी अपने दायरे तक पहुंचता है।’’
फेसबुक पर भाजपा के एक करोड़ छत्तीस लाख फॉलोवर हैं। @BJP4India ट्विटर हैंडल को 70 लाख से ज्यादा यूजर फॉलो करते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव और उसमें जीत के बाद से सोशल मीडिया पर पार्टी की योजनाओं का अंबार लगा है। इसी साल सामने आए स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में बताया गया था कि जिस सधी हुई रणनीति से भाजपा सोशल मीडिया में आगे बढ़ रही है उससे प्रतीत होता है कि इसके लिए भुगतान किया जाता है। आउटलुक के संपर्क करने पर भाजपा के राष्ट्रीय सूचना एवं तकनीक सेल के प्रभारी अमित मालवीय ने कहा, ‘‘हिमाचल और गुजरात विधानसभा चुनावों के बाद बात करेंगे।’’
ब्रिटेन के अखबार टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2016 में ट्रंप के चुनाव जीतने के बाद ‘फेक न्यूज’ गूगल सर्च के ग्राफ में चरम पर था। न्यूज लॉन्डरी के सह संस्थापक अभिनंदन सेखरी के मुताबिक चुनाव जीतने की लालसा से फेक न्यूज मेसेज आते हैं और एक प्रभावी कहानी पैदा करते हैं। भारतीय मीडिया एडलमैन ट्रस्ट की रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर मीडिया की साख इस साल मार्च में अब तक के सबसे कम स्तर 43 फीसदी तक पहुंच गई थी। विडंबना यह है कि इस रिपोर्ट को भारतीय मीडिया के कुछ हिस्सों ने खारिज कर दिया। मीडिया के दावों की सत्यता की जांच करने वाले एक अन्य संगठन बूम लाइव ने इस तथ्य को सामने रखा था। दक्षिणपंथी खेमे के फेक न्यूज को उजागर करने के लिए प्रशंसा पाने वाले अल्ट न्यूज के सिन्हा ने बताया कि अब फेक न्यूज का सब और अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल करते हैं। भाजपा विरोधी किस तरह झूठी खबरों को आगे बढ़ा रहे हैं उसके समर्थन में वे बूम लाइव के एक हालिया स्टोरी का उदाहरण देते हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जदयू विधायक अभय कुशवाहा के 2015 के पोल डांस का वीडियो पोस्ट कर सोशल मीडिया में दावा किया कि नाच रहे शख्स मध्यप्रदेश के मंत्री कुमार विजय शाह हैं। बूम लाइव ने इस झूठ को पकड़ा था।
सिन्हा कहते हैं, ‘‘जब झूठी सूचनाओं से एक पार्टी को चुनावी लाभ होता है तो कोई भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहता। भाजपा को निशाना बनाते हुए आप काफी फेक न्यूज देखेंगे। मैं एक ट्रेंड देख सकता हूं।’’ सेखरी इससे सहमति जताते हुए कहते हैं, तीन-चार साल पहले एक खबर का मकसद झूठी सूचनाएं देना या राजनीतिक अवरोध पैदा करना नहीं था। अब यही उद्देश्य है। इसकी जड़ें गहरी हैं। रोहिंग्या मसले पर मीडिया के हालिया रवैए से इसे समझा जा सकता है। हरेक ने न्यूज चैनल पर गलाफाड़ू डिबेट देखी। सप्ताहांत आते-आते एएनआइ के संपादक ने ट्विटर के माध्यम से सिन्हा को बताया कि न्यूज एजेंसी ने स्टोरी हटा ली है। इसकी वजह चूक को बताया गया। अल्ट न्यूज की हेडलाइन है, ‘‘क्या एएनआइ दो हजार रोहिंग्या के नगालैंड पर हमले संबंधी एक व्हाट्सएप फॉरवर्ड का शिकार हुआ?’’
हाल ही में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा था कि भारत के मात्र एक चुनावी लोकतंत्र में बदल जाने का खतरा है। यदि इसे अतिशयोक्ति मान लिया जाए तो भी सोशल मीडिया पर खुले और गुप्त रूप से राजनीतिक संदेश जिस विशाल पैमाने पर फैलाए जा रहे हैं वह हमें आने वाली विपदा की पूर्व सूचना देता है। निहित स्वार्थों के लिए जिस तरह हर तरीके आजमाए जा रहे हैं वह लड़ाई का मैदान तैयार करने की क्षमता रखते हैं।
अमेरिकी चुनाव ने रूसी हैकर के खतरे को जिंदा कर दिया। सेखरी मई में लोकप्रिय रूसी सोशल मीडिया वेबसाइट को यूक्रेन द्वारा ब्लॉक करने की घटना का हवाला देते हैं। गार्जियन के मुताबिक रूस समर्थित अलगाववादियों से विवाद के मद्देनजर कई यूक्रेनी राजनेताओं ने प्रतिबंध का समर्थन किया था। 2014 से जारी इस विवाद में कम से कम 10,000 लोग मारे जा चुके हैं।
छह सितंबर को फेसबुक ने माना था कि एक लाख डॉलर का विज्ञापन उसके प्लेटफॉर्म पर रूस से आता है। अध्ययन से पता चलता है कि प्रचुर मात्रा में विज्ञापन विशेष रूप से अमेरिकी चुनाव के संदर्भ में नहीं थे। वे वैचारिक पहुंच से इतर विभाजनकारी राजनीतिक एवं सामाजिक संदेशों को बढ़ाने पर केंद्रित थे। एलजीबीटी, अप्रवासन से लेकर बंदूक अधिकार तक के मसले यहां उठाए गए। स्वाभाविक तौर पर सरकारें भी इस खेल में शामिल हैं। मार्च में बजफीड की रिपोर्ट में बताया गया था कि किस तरह म्यांमार के अधिकारी अपने राजनीतिक लक्ष्य को पूरा करने और मुसलमानों के उत्पीड़न को खारिज करने के लिए गढ़ी हुई खबरों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
मुंबई के ऑनलाइन मार्केटिंग कंसल्टेंट मयूर खटवानी बताते हैं, ‘‘प्रायोजित विज्ञापनों को लेकर अमेरिकी बहुत ज्यादा सजग हैं। वे जानते हैं कि उनके पास आया कौन सा पोस्ट फेसबुक द्वारा लक्षित है। ओमडियार समूह का अध्ययन बताता है कि किस तरह फेसबुक का इस्तेमाल डार्क एडवर्टाइजिंग के लिए किया जा रहा है। यह पेड कैंपेन से अलग कुछ भी नहीं है। खटवानी इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं, "बाल झड़ने से रोकने का एक ब्रांड ऐसे यूजर को टारगेट करेगा जो फेसबुक पर बाल झड़ने की समस्या का समाधान खोज रहा होता है। मैं यूजर के व्यवहार पर नजर रखूंगा और विज्ञापन दिखाकर उसे लुभाऊंगा। सोशल मीडिया पर लोग नहीं जानते कि उनके पास विज्ञापन कहां से आ रहे हैं।’’
अध्ययन बताता है कि ट्रंप की प्रचार टीम ने हर दिन विभिन्न प्रकार के 40–50 हजार विज्ञापनों पर आई प्रतिक्रिया की मैपिंग की और उसके अनुसार अपने संदेशों को अनुकूल बनाते हुए आगे बढ़ाया। इससे यह भी पता चलता है कि सोशल मीडिया का एल्गोरिदम फीडबैक लूप में रन करता रहता है जो लगातार यूजर की एक्टिविटी की निगरानी करता रहता है। सिन्हा कहते हैं, ‘‘वास्तविक जिंदगी में भी हम लोगों से खूब बात करते हैं। लेकिन, यह सोशल मीडिया के स्वभाव में है। जब हम किसी का पोस्ट लाइक या शेयर करते हैं तो इसका मतलब है कि उससे ज्यादा इसे हम देख रहे हैं।’’
अध्ययन से सवाल उठना लाजिमी है कि ऐसा इन प्लेटफॉर्मों की संपादकीय पसंद के कारण है या पाठक की प्राथमिकताओं और पूर्वाग्रह को ध्यान में रखकर तैयार किए गए प्लेटाफॉर्म की डिजाइन की वजह से। लोकप्रियता के आधार पर मान्यता देने का पूर्वाग्रह तो एल्गोरिदम में स्पष्ट रूप से दिखता है। लोकप्रियता की बात करें तो प्रधानमंत्री @narendramodi अकाउंट के 3.55 करोड़ फॉलोवर हैं। भाजपा के फॉलोवर से काफी ज्यादा। अंकित लाल की पार्टी में @ArvindKejriwal के 12.5 लाख फॉलोवर हैं जो आप के फॉलोवर से करीब तीन गुना ज्यादा है।
पै बताते हैं कि लोगों की सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ाने में ट्विटर ने काफी अच्छी भूमिका निभाई है। लेकिन, इसने सार्वजनिक बहसों में भागीदारी को काफी सतही भी बना दिया है जो झूठी और संदेहास्पद सूचनाओं पर आधारित होती हैं। लोकप्रिय गलत धारणाएं और पूर्वाग्रह संख्याबल के कारण सच को प्रभावित करते हैं। सोशल मीडिया हमें आभासी प्रतिनिधित्व का भी मौका देता है। हम सबसे जोरदार, कट्टर आवाज को आम राय मान लेते हैं। इसका असर राजनीतिक हिंसा को सामान्य और वैध बना देता है।
अब आप जान गए होंगे कि कोई है जो सनसनी पैदा करने में लगा है। कहीं कोई मास्टर चैटबोट (इंटरनेट पर यूजर को जवाब देने वाला कंप्यूटर प्रोग्राम) है जो गुप्त भाषा में बता रहा है कि क्या करें, किसे पसंद करें और क्या सोचें।