अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी के प्रतिकूल असर से हम बखूबी वाकिफ हैं। ज्यादा दिलचस्प सवाल यह है कि आखिर कोई सरकार कैसे ऐसी तरकीब निकाले, जिससे यह तय हो कि सारे फैसले संबंधित नीतियों से जुड़े नफा-नुकसान की पूरी समझ के साथ लिए जाएं? किसी फैसले के असर, उस पर अमल के सही समय और अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन नतीजों को समझने के लिए विशेषज्ञता की दरकार होती है। कोई भी कदम उठाने से पहले फायदे और नुकसान पर विचार किया जाना चाहिए, चाहे कदम छोटे हों या बड़े। बिलाशक आखिरी निर्णय नेताओं को लेना चाहिए क्योंकि जनता ने वोट के जरिए उन्हें जिम्मेदारी सौंपी है। क्या करने की जरूरत है? इसका सबसे अच्छा मूल्यांकन मतदाताओं से संपर्क और जनता के प्रति जवाबदेह रहकर ही किया जा सकता है। फैसले लेने की प्रक्रिया में तकनीकी विशेषज्ञ केवल उन्हें जानकारी देने में ही मददगार हो सकते हैं।
किसी भी नीतिगत उपाय का पहला कदम तय लक्ष्यों का आकलन करना है। वे पूरी तरह स्पष्ट होने चाहिए। उदाहरण के लिए, किसी नीतिगत उपाय का लक्ष्य काले धन को समाप्त करना है तो यह साफ होना चाहिए कि यह ऐसी कमाई पर चोट करने के लिए उठाया गया कदम है जिस पर कर अदा करने से बचा गया है या कर चोरी करके अकूत संपत्ति जुटा ली गई है। उद्देश्य की साफ-साफ घोषणा होनी चाहिए, ताकि लक्ष्य बार-बार बदलने की नौबत न आए।
दूसरा कदम यह होना चाहिए कि तय लक्ष्य को हासिल करने के लिए तमाम नीतिगत विकल्पों पर विस्तार से विचार किया जाए। फिर, हर नीतिगत पहल के असर, नफा-नुकसान और कार्यान्वयन पर होने वाले खर्च पर विचार करना चाहिए। कई बार खर्च और उसके फायदों के अनुमान से उचित मूल्य हासिल कर पाना आसान नहीं होता। फिर भी इस पर व्यापक चर्चा महत्वपूर्ण है। हालांकि फायदे-नुकसान का विश्लेषण आसान नहीं है, फिर भी इससे एक तस्वीर उभरेगी, जो भले ही अस्पष्ट हो, लेकिन इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि कैसे कम से कम परेशानी से लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। फायदे-नुकसान के संपूर्ण विश्लेषण से समझ स्पष्ट होती है।
दुनिया एक जटिल जगह है और विचारों की भिन्नता महत्वपूर्ण। इसलिए, जितना ज्यादा संभव हो सके लोगों से चर्चा और विभिन्न विकल्पों पर व्यापक बातचीत तथा फीडबैक महत्वपूर्ण है। तीसरा कदम नीतिगत उपायों में ऐसे फैसलों पर जोर देता है जिससे कम से कम नुकसान और ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। सरकार की कार्यान्वयन क्षमता समाज की समझ में आने के लिए यह जरूरी है। इसके लिए उन लोगों को भरोसे में लेना जरूरी होता है जो फैसले को अमलीजामा पहनाने में भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, नोटबंदी से हुई कुछ परेशानियां पुराने नोट बदलने की बैंकों की कम क्षमता से पैदा हुई थीं। फायदा-नुकसान के संपूर्ण विश्लेषण से इसका आकलन किया जा सकता था कि नोटों को बदलने के लिए कितने समय की आवश्यकता होगी।
चौथे, अर्थव्यवस्था निरंतर गतिमान है और उसके कई हिस्सों की अपनी रफ्तार है। इसलिए, किसी एक ही नीति को एक वक्त में मुकम्मल मानकर आगे बढ़ना पर्याप्त नहीं है। मसलन, व्यापार चक्र में उतार-चढ़ाव के दौर हो सकते हैं, यह महीने के हिसाब से तय होता है कि कब धंधा चोखा रहेगा, कब मंदा, फिर क्या यह फसल बुआई का समय है, शादियों का मौसम है या दिवाली का वक्त है, इस सबको ध्यान में रखकर कोई नीतिगत पहल की गई है या नहीं। इसके अलावा अगली नीतिगत पहल (इस मामले में जीएसटी) नुक्सान को कम करेगी या बढ़ाएगी? नीतिगत पहल पर अमल का समय अगर बदला जा सकता है तो उसके फायदे और नुकसान भी बदल सकते हैं।
कभी-कभी सरकारें ऐसी स्थिति में होती हैं जब तत्काल फैसले लेने की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए, जब लीमन संकट का देश पर असर दिखा तो मौद्रिक बाजार में तरलता के संकट को हल करने के साथ ही अचानक संकट में फंसे म्यूचुअल फंड सेक्टर की मदद करनी थी। ऐसी स्थिति में फैसलों के चलते फायदे-नुकसान का आकलन बाद में किया जा सकता है। हालांकि, नोटबंदी के मामले में हालात दूसरे तरह के थे, जब फैसले के लिए न कोई बाहरी दबाव था, न कोई फौरी जरूरत थी। ऐसे मामले में फैसले पर अमल से पहले नफा-नुकसान का विश्लेषण करने के लिए पूर्ण तकनीकी अध्ययन उपलब्ध है।
फायदे-नुकसान के आकलन के बाद भी सरकार कदम उठाने का फैसला कर सकती है। लेकिन अमल के दौरान लगातार नियम-कायदों में बदलाव, बैंकों में परेशानी, नोटों की कमी और दूसरी तमाम परेशानियों से बचा जा सकता था, क्योंकि ये काला धन समाप्त करने या अन्य कथित उद्देश्यों से जुड़ी नीति के आवश्यक हिस्से नहीं थे।
सरकार कहती है कि गोपनीयता बनाए रखने के लिए नोटबंदी के फैसले में रिजर्व बैंक या अन्य नीतिनिर्धारक संस्थाओं को शामिल नहीं किया गया। लेकिन, अब जबकि प्रधानमंत्री अपने भरोसेमंद अर्थशास्त्रियों की पीएम इकोनॉमिक एडवाइजरी काउंसिल (पीएमईएसी) बना चुके हैं, वे ऐसा तंत्र खड़ा कर सकते हैं जिससे तय लक्ष्यों के नफे-नुकसान का आकलन हो सके। पिछली सरकार में पीएमईएसी चेयरमैन डॉ. सी रंगराजन यह भूमिका निभाते थे। मौजूदा पीएमईएसी उसी तरह की भूमिका निभा सकती है।
(लेखिका नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं)