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कोसी की अंतहीन त्रासदी

बिहार में बाढ़ से सैकड़ों गांव बने टापू, फंसे लोगों को मदद की जगह मिल रहा है सिर्फ आश्वासन
बाढ़ से बचाव की कोशिश

नेपाल के जल ग्रहण क्षेत्रों में लगातार बारिश से बिहार के 10 जिलों में बाढ़ का संकट गहरा गया है। महानंदा, कोसी, परमार बकरा, कंकई, गंडक, कमला बलान सहित कई नदियां लगातार कहर बरपा रही हैं। चारों तरफ पानी ही पानी है। इस जल प्रलय में लाखों लोग बेघर हो गए हैं, दर्जनों पानी में बह गए। ध्वस्त सड़कें, यातायात का साधन नहीं और सामने नदियां लीलने को तैयार। खेतों में फसल की जगह कोसी का पानी तांडव कर रहा है। कोसी बांध पर फंसे लोग भूख से बेहाल हैं। लोग बच्चों के साथ आकाश निहार रहे हैं। आकाश में चक्कर काटता हेलीकॉप्टर सिर्फ उम्मीद भर जगाता है।

यह तस्वीर किसी एक गांव की नहीं बल्कि पूरे इलाके की है। हर साल कोसी नियत समय पर त्रासदी लाती है। इस बार भी बाढ़ से मरने वालों की संख्या 90 तक पहुंच गई है। 11.83 लाख हेक्टेयर में बाढ़ का कहर है, 90 हजार हेक्टेयर में फसलों का नुकसान और 1789 गांव बाढ़ की चपेट में हैं। बिहार में हर साल 3,000 करोड़ का नुकसान होता है। सरकारें हर वर्ष इन पीड़ितों को त्रासदी से उबारने का आश्वासन देती हैं लेकिन होता कुछ नहीं है। कोसी जब जान-माल लीलने लगती है तो सरकारी तंत्र राहत कैंप, खाने का पैकेट अन्य तात्कालिक सुविधाएं प्रदान करने में जुट जाती है। इस बार भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रभावित इलाकों का हवाई दौरा करके पीड़ितों की सहायता के लिए बाबुओं को मुस्तैद रहने का निर्देश दिया है। एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की टीम संकटमोचन के तौर पर तैनात कर दी गई है। लाखों बाढ़ पीडि़तों को शिविर में रखा जा रहा है। 200 के लगभग राहत कैंप चलाए जा रहे हैं।

लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या पीड़ितों तक मदद पहुंच पाती है? यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बिहार में बाढ़ का खेल पीड़ितों के लिए जितना त्रासदपूर्ण है, बचाव से जुड़े तंत्र के लिए उतना ही राहत व सकून देने वाला है। बिहार में बाढ़ की त्रासदी उस वक्त से है जब देश गुलाम था और नदियां आजाद थीं। देश आजाद हुआ और बिहार की नदियां बंधने लगीं। 1957 से 1987 तक बिहार की तमाम प्रमुख नदियों पर अंकुश लगाने के लिए 3,454 किलोमीटर लंबे तटबंध बनाए गए। लेकिन इस तटबंध बनने के साथ जहां जनता में राहत की सुगबुगाहट थी, वहीं राजनेताओं की वरुण देव से प्रार्थना चलती रही, ‘प्रभु बाढ़ जरूर देना। बाढ़ नही आएगी तो बिहार की राजनीति में सुखाड़ आ जाएगा।’ बाढ़ आती रही, तटबंधों की लंबाई बढ़ती रही और बाढ़ पर राजनीति भी फलती-फूलती रही। जो तटबंध बाढ़ से सुरक्षा के लिए बनाए गए वे निरर्थक ही नहीं बल्कि स्थायी बाढ़ और भीषण तबाही के कारण भी साबित हुए।

इस बाबत आप्त प्रधान सचिव व्यासजी ने बताया कि बिहार में बाढ़ अपनी नदियों से नहीं आती, यहां राज्य की सीमा से सटे नदियों से बाढ़ का प्रकोप होता है। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बिहार देश में सबसे अधिक बाढ़ से ग्रस्त होने वाले राज्यों में एक है। नेपाल की तराई से लेकर, उत्तराखंड से गंगा और झारखंड की नदियां भी यहां बाढ़ का तांडव करती हैं। नेपाल की अपनी लाचारी है। बारिश होने पर वहां से बिहार की नदियों में पानी छोडा़ जाता है। बाढ़ राहत के लिए युद्धस्तर पर काम किया जा रहा है। अब तक 60 करोड़ रुपये जिलों में बांटे जा चुके हैं। राहत के लिए लगभग 10 अरब रुपये खर्च होने का अनुमान है। इससे पूर्व भी बाढ़ राहत के लिए लगभग इतनी ही राशि खर्च की गई थी।

बाढ़ से सबसे ज्यादा पूर्णिया जिला प्रभावित है। किशनगंज, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, कटिहार, भागलपुर, दरभंगा व गोपालगंज जिलों में भी हालात अलग नहीं हैं। कई जिलों के कई गांवों में सरकारी तंत्र सिर्फ कागजी घोड़े दौड़ा रहा है। बाढ़ में फंसे बहुत से लोगों को कई दिनों से भोजन नहीं मिला है। बच्चों को देखकर मांओं का कलेजा मुंह को आ जाता है। इस आपदा की घड़ी में भी बाबुओं को अपनी जेब गरम करने की पड़ी है। पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर इस त्रासदी का ठीकरा फोड़ने में लगे हैं।

बहरहाल, बिहार में नदियों का शाप तब वरदान में बदलेगा जब इस पर सामूहिक प्रयास लगाया जाएगा। केंद्र व राज्य सरकार की सामूहिक योजना ही इसे नई दिशा दे सकती है। पिछले दिनों केंद्र सरकार के जल संसाधन नदी विकास मंत्रालय द्वारा विभिन्न नदियों में गाद और कटाव की समस्या के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की समिति बनाई गई है जो गाद और कटाव के कारणों का अध्ययन करेगी। समिति अपने सुझाव भी देगी, लेकिन अमल कब होगा यह एक यक्ष प्रश्न है।

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