हिंदुस्तानी संगीत में पूरब अंग की ठुमरी गायकी का विशिष्ट स्थान है। पूरब की इस सर्वाधिक लोकप्रिय और विकसित गायन शैली का चार-पांच सौ साल पुराना इतिहास है। इस गायन की कालजयी यात्रा में कई रोमांचक पड़ाव हैं। इस शैली की शुरुआत और विकास कब कैसे हुआ, इसके ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते लेकिन गायन की दृष्टि से ठुमरी पूर्ण और भावप्रधान है। व्याकरणबद्ध होते हुए भी इसमें अभिव्यक्ति की गुंजाइश है। भक्ति और शृंगार रंगों में सजी ठुमरी अटूट भारतीय परंपरा का ठोस प्रमाण है। पुराने उत्सवों, महफिलों से गुजरते हुए अब भी यह सरस गायकी आधुनिक मंचों पर अपने रंग बिखेर रही है। अन्य गायन शैलियों की तरह ठुमरी लगातार अपना परिष्कार करती रही है। वह लोक प्रचलन के शास्त्र बनाती रही, उसका व्याकरण तैयार करती रही। लोक और शास्त्रीय संगीत के बीच एक सेतु बनाने में इस गायकी की खास अहमियत है। ठुमरी की पंरपरा लोक और शास्त्र के बीच आवाजाही का प्रमाण और परिणाम दोनों है।
सदियों से पूरब की इस गायकी की धारा बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के स्थानों में बहती रही और कलानुरागियों को रसमग्न करती रही। ठुमरी के खास गढ़ बनारस, गया रहे। इन स्थानों पर ठुमरी के साथ कजरी, चैती, दादरा, झूला आदि गायन को मनमोहक अंदाज में विकसित किया गया। ठुमरी में बनारस की विशिष्ट ठुमरी गायन शैली भक्ति और शृंगार रस में संवरकर खूबसूरत नए अंदाजों में उभरी। बनारसी गायन में बनारस के भारतेन्दु, कबीर, तुलसी की रचनाओं का भी गहरा प्रभाव रहा। सोलह मात्रा या दादरा ताल में निबद्ध ठुमरियों में दोहा और थोड़ी बहुत शेरो शायरी गाने का प्रचलन था पर बनारस गायकी में खास बात पुकार थी। कहते हैं, बनारस में ठुमरी का ईजाद उस्ताद मोहजुद्दीन खां के जरिए हुआ। वह गया भी जाते थे। खां साहब की गायन शैली को ठुमरी की विरल गायिका सिद्धेश्वरी देवी ने लोक और शास्त्रीय संगीत के मिश्रण में नए रूप में ढाल दिया। पुराने समय में एक दौर था जब बनारस में एक से बढ़कर एक ठुमरी के फनकार हुए। उनमें बड़ी मोतीबाई, रसूलन बाई, गौरह जान की मां बड़ी मलिका जान से लेकर पंडित महादेव मिश्र ने अपने भरे-पूरे और अनोखे अंदाज में जो रंग भरे वे आज भी संगीत रसिकों को मंत्रमुग्ध करते हैं। गायन के शास्त्रीय पक्ष में पेंचदार ताने, खटका, मुर्की, बहलावा आदि का सुंदर प्रयोग होता है। हाल ही में दिवंगत हुईं, इस समय बनारस की शिखर ठुमरी गायिका गिरजा देवी ने पुराने जमाने की महफिलों का जिक्र करते हुए कहा था, ‘‘जो ठुमरी, चैती, कजरी आदि राज दरबारों की महफिलों में गाई जाती थी उसका रंग ही अलग था। लोगों के मन के मुताबिक ठुमरी, कजरी, दादरा आदि गाया जाता था। अब न वे महफिलें हैं न रसभरा वातावरण। पुरानी बनारस गायकी में न वह मिजाज है न तड़प।’’
गया में ठुमरी गायन अलग शैली और अंदाज में विकसित हुई। यहां पर चपलता से हटकर ठाह की ठुमरी विकसित हुई। यहां चौदह मात्रा की जत ताल का प्रयोग बहुत था। गया की ठुमरी में सपाटदार तानें, चैनदारी और अलग तरह का सकून नजर आता है। दो-तीन स्वरों के मेल से स्थाई, विविध बोल बनाव से भाव भरना बहुत सरस है। पंडों द्वारा आयोजित महफिलों में गायक या गायिका के साथ तीन-चार हारमोनियम की संगत विस्मित करने वाली होती थी। पिंडदान के केंद्र गया में पितृपक्ष के समय लोग पिंडदान करने आते थे और पूरबिया गायकी का आनंद लेते थे।
वैसे तो ठुमरी के साथ संगत में सारंगी बजती थी पर ठुमरी गायन में हारमोनियम संगत की शुरुआत ग्वालियर के भैया गणपत राव ने गया में की। बाद में उन्हीं से गया में कई लोगों ने हरमोनियम की शिक्षा ग्रहण की। गया की मशहूर गायिका ढेला बाई अपनी सुरीली गायकी की बुंलदी पर थीं। गया की ठुमरी को शोहरत प्रदान करने में उनका बड़ा योगदान है। कोलकाता से पूरब गायन के फनकार पंडित रामूजी मिश्र जब गया आए तो उन्होंने गया गायकी को नया विस्तार और आयाम दिया। रामूजी मिश्र बनारस के थे। उन्होंने बनारस गायन के विशेष लक्षणों को जोड़कर गया शैली को मनमोहक बनाया। हालांकि गया में अब पुराना माहौल नहीं है पर कुछ संगीत साधक इस गायकी को जीवंत रखे हुए हैं।
मध्य युग में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय अलग अंदाज में ठुमरी का उदय हुआ। उनके वक्त ताल, लय और सुर की बंदिश में बंधी ठुमरी ईजाद हुई। उन्होंने ही दरबारी ठुमरी को लोकप्रियता प्रदान की। लखनऊ के छतर मंजिल में सजने वाली ठुमरी की महफिलों की यादें अब इतिहास में दर्ज हैं। जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा करने के बाद वाजिद अली को कोलकाता भेज दिया तब उन्होंने अपने वतन की याद में ‘बाबुल मोरा नहिर छूटल जाए’ की जो भावपूर्ण रचना की उसकी तासीर आज भी मन को प्रभावित करती है। वह गायन के साथ कथक के भी प्रेमी थे। उस समय पंडित बिरजू महाराज के पूर्वज ठाकुर प्रसाद दरबारी नर्तक थे। यहीं नृत्य के साथ ठुमरी गायन की नई परंपरा शुरू हुई, जिसकी झलक आज भी दिखाई पड़ती है।
आगे चलकर ठुमरी में नई शैली पंजाब में विकसित हुई। पंजाब में पटियाला के गायक काले खां जब लखनऊ गए तो पूरब की इस गायन शैली से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने वहां ठुमरी सीखी और पंजाब में आकर इसका प्रचार-प्रसार किया। यहां उन्होंने ठुमरी को टप्पा अंग पर विकसित किया। पंजाब की दमदार गायकी में पेंचदार तानें, खटका, मुर्की और जबड़े का अलग ही काम है। इस गायकी को लोकप्रियता प्रदान करने में सबसे बड़ी देन उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की है। उनके अलावा उस्ताद बरकत अली खां और मुरब्बर अली खां ने भी इस गायकी को अपने रंग दिए।
(लेखक संगीत समीक्षक हैं)