Advertisement

राष्ट्रवाद और लेखक बिरादरी

आजकल जारी राष्ट्रवाद पर अनेक गोष्ठियों-सेमिनारों से वाकई समाज को क्या हासिल
बीच बहस मेंः चंडीगढ़ में हाल में आयोजित एक गोष्ठी में जानी-मानी शख्सियतें

क्या यह महज संयोग है कि अचानक ‘राष्ट्रवाद’ को लेकर बहुतेरे लेखक संगठनों/समूहों में दिलचस्पी जाग उठी है? भारी-भरकम खर्च वाले बड़े-बड़े आयोजन हो रहे हैं और उसमें बड़ी संख्या में लेखक-कवि-कलाकार शामिल हों इसके लिए हवाई यात्रा का खर्च भी उठाया जा रहा है। लेखक-कवि जा भी रहे हैं। कोलकाता में 12 से 15 अक्टूबर तक लिटरेरिया नामक किसी संस्था की ओर से चार दिनों का शिविर हुआ जिसकी शुरुआत ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, इतिहास बोध व वर्चस्व की राजनीति’ विषय पर संगोष्ठी के साथ हुई थी। इसमें जैसा कि कहा गया कि करीब पांच लाख रुपये खर्च हुए (फेसबुक के एक स्टेटस में दी गई जानकारी के अनुसार)। हालांकि वहां राष्ट्रवाद को लेकर क्या बहस हुई, यह अभी लोगों को जानना बाकी है।

इसी तरह से एक संगोष्ठी ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पत्रकारिता’ विषय पर 19 नवंबर को चंदौली में पत्रकारों के किसी संगठन ने आयोजित की। लेकिन 28-29 अक्टूबर को चंडीगढ़ में ‘राष्ट्रवाद और संस्कृति’ विषय पर बहस बड़े व्यापक तरीके से करने की कोशिश की गई। वहां तीनों बड़े लेखक संगठन प्रगतिशील लेखक संगठन, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और इन तीनों के अलावा कई स्वतंत्र लेखक इकठ्ठे हुए और विचार किए (बहस के बाद वे किस नतीजे पर पहुंचे इसे अभी बताया नहीं गया है) और जाहिर तौर पर यहां भी खर्च लाखों में हुआ। यह लाखों खर्च वाली बात इसलिए बार-बार कही जा रही है क्योंकि वाजिब तौर पर यह जानने की जरूरत महसूस होती है कि यह खर्च कौन उठा रहा है और क्यों उठा रहा है? क्या पता ऐसी और भी कई गोष्ठियां जहां-तहां हो रही हों या होने की योजना बन रही हो।

सवाल यह है कि ‘राष्ट्रवाद’ को लेकर किए जा रहे इन कार्यक्रमों का मतलब क्या समझा जाए? इन्हें किस रूप में देखा जाए? ये सारी संस्थाएं जो एक-दूसरे से अलग हैं क्या स्वतंत्र ढंग से सोचते हुए इस विषय तक पहुंची हैं या उन्हें इस विषय तक विभिन्न तरीकों से फंड्स के जरिए ले जाया गया है?

दरअसल देखा जाए तो यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पुराना एजेंडा है जिसे भाजपा के सत्ता में आने के बाद बौद्धिक बहस की मुख्यधारा में लाने की कोशिश तेज हो गई है। संघ से जुड़े राकेश सिन्हा ने इसका बीड़ा उठाया है। उनका मानना है कि भारत में राष्ट्रवाद पर चल रही बहस, जो 1920 में बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद स्थगित हो गई थी, फिर से शुरू किया जाना जरूरी है क्योंकि आज बुद्धिजीवी सहित आम भारतीय भी इस गलतफहमी का शिकार है कि राष्ट्रवाद एक यूरोपीय अवधारणा है जिसने यूरोप में फासीवाद को पैदा किया, नाजीवाद को पैदा किया और जापान में सैन्यवाद को बढ़ावा दिया। उनका कहना है कि हमें समझना होगा कि यूरोपीय राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद में अंतर है। जहां यूरोपीय राष्ट्रवाद ने राष्ट्रों को पैदा किया था, वहीं भारतीय राष्ट्रवाद को राष्ट्र ने पैदा किया है। उनका मानना है कि ये बहस कहीं अधूरी छूट गई थी। वे कुछ सूत्र भी पकड़ाते हैं। वे महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच राष्ट्रवाद को लेकर चली लंबी बहस की याद दिलाते हैं जिसमें गांधी ने कहा था कि उनके राष्ट्रवाद में ही गहरा अंतरराष्ट्रवाद है। इसी कड़ी में वे दीनदयाल उपाध्याय का भी हवाला देते हैं कि उन्होंने एकात्म मानववाद दर्शन के चार बीज वक्तव्यों में से दूसरे में गांधी के इसी विचार को आगे बढ़ाया था लेकिन वह सब बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे ही रह गया जिसे आज पूरा करना हमारा दायित्व है।

लेकिन यह भी तथ्य है कि गांधी या टैगोर का राष्ट्रवाद संघ की अवधारणा से अलग है और उसमें एक समग्र तथा समावेशी भावना है। फिर सवाल यह भी है कि आज जिस दौर में हम रह रहे हैं, वह आजादी से पहले के समय से बिलकुल अलग है। उस समय के बहुत सारे हथियारों से आज नहीं लड़ा जा सकता, जो आजादी की लड़ाई में काम आ रहे थे। जो राष्ट्रवाद उन दिनों पूरे भारत को एक देश के रूप में दुनिया के सामने पेश कर रहा था, उसका अनुदार स्वरूप हमें पूरी दुनिया से अलग-थलग कर सकता है।

असहयोग आंदोलन या विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के जरिए गांधी जिस राष्ट्रवाद की भावना को जगा रहे थे, वह न सिर्फ विदेशी हुकूमत से लड़ने का हौसला पैदा कर रही थी बल्कि साथ ही एक देश का निर्माण भी कर रही थी। इसलिए यह कहना कि भारतीय राष्ट्रवाद यूरोपीय राष्ट्रवाद की राह नहीं जा सकता, एक अवैज्ञानिक सोच और इतिहास की गलत अवधारणा को दर्शाता है। भारत के लिए भी राष्ट्रवाद उतना ही नकारात्मक साबित हो सकता है जितना यूरोप के लिए साबित हुआ था। यह गरीब से गरीब लोगों से भी उसकी एक-एक पाई ले कर बदले में उसे सिर्फ नफरत और युद्ध दे सकता है।

यह एक ओर विदेशी पूंजी का आह्वान करना और दूसरी ओर राष्ट्रवाद का पलीता लगाकर देश को गरीबी और गुलामी की ओर ढकेलने की सरकार की मंशा को ही दर्शाता है। यह उन्हें भी पता है कि पूंजी अकेले नहीं आती, अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाती है।

ऐसे में यह सवाल बरबस उठता है कि हमारी भाषा के धुरंधर लेखक-कवि ऐसे आयोजनों से कहीं सत्ता में भागीदारी की कोई जगह निकालने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? अगर नहीं तो फिर वे वह क्यों नहीं करते जो इस वक्त साहित्य को करना चाहिए जैसा कि एदुआर्दो गालेआनो कहते हैं, “साहित्य की यह भूमिका है कि वह व्यवस्था द्वारा थोपी गई ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के खिलाफ जनता के संघर्षों को आवाज देती ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ को पहचाने और उसे उभारने का काम करे।’’

प्रतिरोध की संस्कृति को अपसंस्कृति कहकर खारिज करने की सत्ता की प्रवृत्ति से टकराने की जगह उसके ही एजेंडे पर काम करना आवाम के एक बड़े हिस्से के साथ धोखा है, जो संघर्ष में रात-दिन जूझ रही है।

(लेखक कवि और पत्रकार हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement