इतिहास अनेक संयोगों और विरोधाभासों से भरा पड़ा है। चौदह साल की एमीबाई से शादी करने के कुछ ही अरसे बाद जब सोलह साल का एक किशोर कराची से लंदन के लिए रवाना हुआ, तब उसका नाम मुहम्मदअली जीनाभाई पूंजा था। लंदन में उसने न सिर्फ वकालत की पढ़ाई की बल्कि अपना नाम भी बदल कर मुहम्मद अली जिन्ना कर लिया। वह अविभाजित भारत के न केवल शीर्षस्थ और अत्यधिक धनी वकीलों में गिना गया बल्कि उसने अपने समय के सबसे बड़े राजनीतिक नेता महात्मा गांधी से टक्कर ली, कायदे-आजम (महान नेता) कहलाया और अपने राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करके ही चैन की सांस ली। उसकी दो संतानें थीं और संयोग से दोनों का जन्म ठीक एक ही वक्त पर हुआ था। उसकी पहली संतान थी दीना जो लंदन में 14-15 अगस्त, 1919 की मध्यरात्रि के तत्काल बाद पैदा हुई थी। उसकी दूसरी संतान थी पाकिस्तान जिसका जन्म भी 28 वर्ष बाद ठीक इसी समय हुआ था, बस तारीख एक दिन पहले की थी।
यह भी एक संयोग ही है कि जहां जिन्ना ने एक पारसी परिवार की लड़की रतनबाई पेटिट उर्फ रत्ती से शादी की, वहीं उनकी पुत्री दीना ने भी अपने लिए पारसी परिवार का लड़का नेविल वाडिया ही चुना, हालांकि वह ईसाई हो गया था। रत्ती के पिता सर दिनशॉ पेटिट ने शादी का न सिर्फ विरोध किया, बल्कि 1929 में रत्ती की मृत्यु होने तक उससे बात नहीं की। जिन्ना ने भी दीना की शादी का विरोध किया और 11 सितंबर, 1948 को जिन्ना की मृत्यु होने तक पिता-पुत्री के बीच कोई खास संपर्क नहीं रहा। जिन्ना ने एकाध बार दीना को पत्र लिखा भी तो उसे श्रीमती वाडिया कहकर ही संबोधित किया।
इतिहास का विरोधाभास यह है कि दो राष्ट्रों के सिद्धांत के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण करने वाले जिन्ना की एकमात्र पुत्री और उसके बच्चे और नाती-पोते भारत में ही रहे और यहीं उनका औद्योगिक घराना फला-फूला। दीना वाडिया केवल दो बार पाकिस्तान गईं। पहली बार अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने और दूसरी बार 2004 में जब उन्हें वहां खेले जा रहे क्रिकेट मैच को देखने के लिए आमंत्रित किया गया। यूं आम पाकिस्तानी उनके अस्तित्व से भी बेखबर ही रहा क्योंकि पाकिस्तान में कभी उनकी चर्चा नहीं हुई।
इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह भी था कि शादी से तीन दिन पहले रत्ती ने पारसी धर्म छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर लिया था और इस तरह दीना मुस्लिम थीं। लेकिन नेविल वाडिया से शादी करते समय दीना ने अपना धर्म नहीं बदला। इस्लामी कानून की निगाह में यह गुनाह है और इसकी सजा कोड़े लगाकर दी जाती है। दूसरे, पाकिस्तानियों को यह समझाना भी मुश्किल था कि कैसे खुद कायदे-आजम का परिवार शत्रु देश भारत में न सिर्फ रह रहा है बल्कि वहां फल-फूल भी रहा है। जाने-माने उद्योगपति नुस्ली वाडिया दीना के पुत्र और जिन्ना के नाती हैं।
दीना वाडिया के निधन के बाद से ही जिन्ना एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गए हैं और उनके बारे में वे सभी मिथक दुहराए जाने लगे हैं जिन्हें बहुत-से सदाशयी लोग यथार्थ मानते हैं। मसलन, जिन्ना धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे और वे पाकिस्तान को इस्लामी राज्य नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाना चाहते थे। इसे पुष्ट करने के लिए 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में दिया गया उनका अध्यक्षीय भाषण उद्धृत किया जाता है जिसमें उन्होंने नए राष्ट्र के नागरिकों को संबोधित करते हुए यह आश्वासन दिया था कि पाकिस्तान में सभी नागरिक समान होंगे और राज्य धर्म, जाति और संप्रदाय का विचार किए बिना उनके साथ बगैर किसी पक्षपात के बराबरी का बरताव करेगा। सभी अपने-अपने पूजा स्थलों में जाने के लिए स्वतंत्र होंगे और धीरे-धीरे राजनीतिक अर्थ में न हिंदू हिंदू रह जाएंगे और न मुसलमान मुसलमान। सभी केवल पाकिस्तान के नागरिक होंगे।
लेकिन क्या जिन्ना पिछले एक दशक की अपनी राजनीति को इस तरह एक झटके में भुला सकते थे? 1937 के बाद से उन्होंने लगातार राजनीति में इस्लाम को इस्तेमाल किया, मुल्ला-मौलवियों और पीरों का समर्थन लिया और इस्लाम तथा पैगंबर के नाम पर पाकिस्तान आंदोलन को आगे बढ़ाया। विभाजन की प्रक्रिया में अभूतपूर्व हिंसा, लूटपाट, बलात्कार और हर प्रकार के वहशियाना कांड हुए। विश्व इतिहास में आबादी की सबसे बड़ी अदला-बदली हुई। इस सबके बाद क्या इतिहास-चक्र की दिशा को उलटना संभव था? और क्या जिन्ना वाकई ऐसा करना चाहते थे?
25 जनवरी, 1948 को हजरत मुहम्मद की जयंती के अवसर पर कराची बार एसोसिएशन को संबोधित करते हुए जिन्ना ने कहा कि कुछ शरारती तत्व इस्लामी राज्य की धारणा को नकार रहे हैं और दुष्प्रचार का शिकार हो रहे हैं। हकीकत यह है कि आज भी इस्लामी सिद्धांत उतने ही प्रासंगिक और अमल में लाने योग्य हैं जितने वे 1300 साल पहले थे। जिन्ना ने घोषणा की कि पाकिस्तान का संविधान शरिया के आधार पर ही बनाया जाएगा। अपने इस विचार को उन्होंने कुछ दिन बाद फिर से व्यक्त किया।
जिस तरह विनायक दामोदर सावरकर अपने जीवन के आरंभिक दशकों में धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी थे, उसी तरह जिन्ना का आरंभिक राजनीतिक जीवन भी धर्मनिरपेक्षता की मिसाल था। लेकिन बाद में दोनों ने ही ठीक इससे उल्टी राह पकड़ी और आज दोनों को इस राह के कारण ही जाना जाता है। ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को उनकी समग्रता में ही समझा जाना चाहिए। जिन्ना की राजनीति के घातक प्रभाव को भारतीय उपमहाद्वीप आज तक झेल रहा है।