स्त्री लेखकों में नासिरा शर्मा ने न केवल उपन्यासों की नई दुनिया रची है बल्कि विश्व और मध्य एशिया के ज्वलंत विषयों को अपनी किस्सागोई में समेटा भी है। उनका लेखन न किसी वाद के वशीभूत रहा न सतही विमर्शों में स्थगित होने वाला। गंगा–जमुनी परिवेश से जुड़े कथानक पर उनकी जितनी पकड़ है उतनी उनके समकालीनों में किसी की नहीं। वे इलाहाबादी, लखनवी परिवेश और अवधी तहजीब के जीवंत चित्रण में सिद्धहस्त हैं, वहीं इलाहाबाद जीरो रोड से दुबई तक रिश्तों के पुल बनाने वाली भी। नासिरा शर्मा ने अपने ताजा उपन्यास शब्द पखेरू के साथ हिंदी की औपन्यासिकता में एक बार फिर हलचल पैदा की है।
हाल ही में अफ्रो एशियाई कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक एवं बुद्धिजीवियों से बातचीत के छह खंडों वाली पुस्तक के लिए खासा चर्चित नासिरा शर्मा का उपन्यास शब्द पखेरू फिर एक बार शाल्मली और ठीकरे की मंगनी की तरह एक बैठक में पढ़ा जाने वाला उपन्यास है। कैसे इधर के दशक में युवा पीढ़ी ने इंटरनेट के एकांत को अपना अधिवास बना लिया है और दिन-रात ऑनलाइन रहने की व्याधियों का शिकार हो चली है। चैट बाक्स के उजाले में झूठी संवेदना के जाल में तथाकथित प्रेम की पींगें बढ़ाते हुए किस तरह मनी ट्रैफिकिंग एवं मनी लॉन्डरिंग के अपराधपूर्ण, कपटपूर्ण कृत्यों का अंग बन रही है। इस पर यह उपन्यास एक उदाहरण के जरिए होशियार करता है। उपन्यास की पात्र शैलजा के जरिए आज के युवा किस तरह शॉर्टकट से पैसे कमाने के लोभ में साइबर क्राइम का शिकार हो रहे हैं, इस जमीनी सच्चाई को सामने लाने का यत्न किया गया है।
शब्दों की सच्चाई किस तरह उत्तरोत्तर हमारे बीच से लुप्त हो रही है, किस तरह नकली संवेदना और फरेब से लिपे-पुते चेहरे चैट बॉक्स में मुहब्बत की हलफ उठाते हुए युवतियों के जज्बात से खेलते हैं और उसे मनी ट्रैफिकिंग के जाल का हिस्सा बनाने की चेष्टा करते हैं, यह उपन्यास इसका नायाब उदाहरण है। उपन्यास की एक पात्र तथाकथित आर्मी आफिसर की प्रायोजित मुहब्बत के जाल में फंस जाती है और एक दिन मनी ट्रैफिकिंग के मोड़ तक पहुंच जाती है। गनीमत यही कि उसे उसकी सहेली के चाचा अपनी अनुभवी आंखों से भांप कर बचा लेते हैं। सच्चाई के उद्घाटित होते ही मुहब्बत में भीगे शब्दों के पखेरू उड़ चुके होते हैं ।
नासिरा जी केवल समस्याएं ही नहीं उठातीं, उनके समाधान भी देती हैं। चाहे वह शाल्मली हो, ठीकरे की मंगनी, पारिजात या जीरो रोड। उनका कोई भी उपन्यास समाधानों के साथ खत्म होता है। इस उपन्यास में भी ऐसा होता है। कहानी सूर्यकांत वर्मा, पत्नी साधना, बेटियां मनीषा और शैलजा, घर के कामकाज देखने वाली कंचन और शैलजा की सहेली की है। पत्नी साधना बीमार हैं। पिता के रूप में आत्मविश्वास खो चुके सूर्यकांत उपचार में इतने त्रस्त हो चुके हैं कि उन्हें लगता है अब नौकरी से मुक्ति ले ली जाए ताकि पत्नी की सही देखभाल हो सके। पहले तो नर्सों के हवाले कर सूर्यकांत भी लगभग अपने दायित्व से निरपेक्ष-से होते जाते हैं पर धीरे-धीरे बेटियों के सहयोग से रास्ता सुगम होता है। नौकरी से इस्तीफे का पत्र लेकर बड़े अधिकारी से मिलते हैं तो वह सूर्यकांत को कर्तव्यों के प्रति फिर उन्मुख कर देता है कि इस समस्या का समाधान इस्तीफा नहीं, बल्कि हालात से मुठभेड़ है।
यही होता भी है। नई पोस्टिंग पर सूर्यकांत के जाते ही बेटियां कहीं ज्यादा आत्मविश्वास के साथ घर और मां को संभाल लेती हैं। मां की हालत में सुधार नजर भी आता है। वे गांव भी हो आते हैं। छिटपुट घटनाओं के बीच शैलजा फेसबुक पर किसी फ्रैंक जॉन के झांसे में आती है तथा उसका भेद खुलते ही ऑनलाइन एक दूसरा शख्स क्रिस एलेन आ धमकता है जो खुद को अमेरिकन आर्मी ऑफिसर बताकर दोस्त बनता है। शैलजा जो गूगलपरस्त और इंटरनेट बेबी की तरह है, अपने कैशोर्य-उन्माद में इस जाल को भांप नहीं पाती। वह क्रिस एलेन की भावुकता में बिंध जाती है और उसके साथ घर बसाने के सपने देखने लगती है।
उपन्यास सहज घरेलू जीवन की किस्सागोई है। छोटा परिवार। पर मां के बीमार होते ही जैसे पूरा घर व्याधिग्रस्त हो उठता है। बाद में पिता का आत्मविश्वास लौटते ही जैसे अच्छे दिनों की आहट आने लगती है। बेशक वह अति आधुनिक प्रेम के रंग में भीग कर भी बदरंग रह गई थी।
शब्द पखेरू जहां संदेश देता है कि रोगी को दवाओं की कम, प्यार और देखभाल की ज्यादा जरूरत होती है वहीं युवा पीढ़ी को नसीहत देता है कि ‘पैसा मेहनत से कमाया जाता है, शार्टकट से नहीं।’