मोबाइल वॉलेट कंपनी पेटीएम का इरादा है कि कुछेक सालों में ग्राहकों की संख्या 50 करोड़ के पार चली जाए। पचास करोड़ यानी अमेरिका और पाकिस्तान की जनसंख्या, ग्रेट। फिर पाकिस्तान को धमकाने वाले वीर एक धमकी और जोड़ सकते हैं, ‘सुन ले पाकिस्तान जितने कुल लोग पूरे पाकिस्तान में नहीं हैं, उससे दोगुने तो यहां पेटीएम में हैं।’ नोटबंदी को एक साल हो लिया, तमाम डिबेट एटीएम से पेटीएम तक चल निकली है।
एटीएम, पेटीएम, कैश-बैक यह टर्म अब जो न जानता हो, उसे समझिए कि प्रागैतिहासिक काल में है। नोटबंदी को इसका श्रेय जाता है। साल भर पहले पार्कों में कई सासें, बहुओं के बजाय एटीएम की बुराइयां करती मिलती थीं, ‘एटीएम है पर कैश नहीं मिलता।’ साल भर पहले इन दिनों और कोई बात नहीं हो रही थी। सिवाय इसके कि ‘तू एटीएम से पैसे निकाल लाया या नहीं’ या ‘तेरे पास हजार के कितने पुराने नोट हैं।’ सारी समस्याएं खत्म थीं, सिर्फ एक समस्या थी, नकद।
खैर अब कैश-बैक का जिसे नहीं पता, समझो वह वक्त के बैक गीयर में चल रहा है। एक बीस वर्षीय बालिका ने मुझे चहकते हुए बताया कि उसने 800 रुपये कमा लिए हैं, 16,000 रुपये ऑनलाइन खर्च करके, उसे पांच परसेंट का कैश-बैक मिला, 800 रुपये। नई पीढ़ी में कइयों के कमाने के यही अंदाज हैं, 800 की कमाई पर 16,000 खर्च कर मारते हैं। इस कैश-बैक स्टाइल में समृद्ध हो रही है नई पीढ़ी।
वैसे, 800 कमाने के लिए 16,000 खर्च करने वाले कैश-बैक बंदे बहुत जल्दी कैश-लेस भी हो जाएंगे। जब ऐसे सारे बंदे कैश-लेस हो जाएंगे तो फिर कैश-लेस सोसायटी का सपना साकार हो जाएगा।
कोई यह न समझे ये कैश-बैक तकनीक कहीं बाहर से आई है। यह तकनीक भारतीय सब्जीवाले लंबे समय से यूज कर रहे हैं। तीन किलो आलू खरीदने पर थोड़ा सा धनिया मुफ्त में जो यूं ही दे दिया जाता है, वह कैश-बैक ही होता है। टॉप हथियार दलाल ने मुझे बताया कि तोपों से लेकर हेलीकॉप्टर तक की खरीद में खाई जाने वाली वह रकम, जो बतौर किक-बैक, रिश्वत प्रचारित कर दी जाती है, वह दरअसल कैश-बैक ही है। फिर कैश-बैक पर क्यों बवाल। कई कंपनियां तो अखबारों में इश्तिहार देकर बता रही हैं, ‘हम कैश-बैक दे रहे हैं।’ बचपन से ही कैश-बैक का आदी बच्चा जब बड़ा होगा तो उसे यह सुनकर जरा भी बुरा नहीं लगेगा कि देश के लिए खरीदे गए हेलीकॉप्टरों पर कोई कैश-बैक खा गया है। मुझे लगता है कि बीस-तीस सालों में तोपों-हेलीकॉप्टरों पर रिश्वत खाने वालों का काम आसान होने वाला है।
नोटबंदी को एक साल पूरा हुआ। नोटबंदी-जनित अफरा-तफरी पर मुंबई के एक प्रोड्यूसर फिल्म बना रहे हैं, ‘एटीएम से पेटीएम तक।’ इसके डायलॉग लिखने के लिए उन्होंने मुझसे संपर्क किया। मैंने पूछा कि फिल्म हॉरर रहेगी या पॉलिटिकल या लव ट्रैंगलवाली। क्योंकि इस फिल्म में सारी संभावनाएं हैं। एक सीन यह संभव है, कई दिनों तक लोग एटीएम की लाइन में लगे हैं, इतना साथ-साथ रहे हैं कि जेबकटी से लेकर लव तक किया जा सकता था। वैसे लव को थोड़ी दीर्घकालीन जेबकटी का पर्याय भी माना जा सकता है।
फिल्म में लव-ट्रैंगल यूं बनता है, प्रेमिका का नंबर एटीएम में घुसने का आ गया है और उसका प्रेमी उसके पीछे धराशायी हो गया है। प्रेमिका प्रेमी को अस्पताल ले जाएगी या एटीएम में घुसकर अपना कैश निकालेगी। लव ट्रैंगल हो गया न। प्रेमिका-एटीएम और प्रेमी। प्रेमी मरकर भूत बन जाए और एटीएम में आने वाले हर कस्टमर को डराए तो फिल्म हॉरर हो लेगी।
पॉलिटिकल एंगल फिल्म में यूं आ लेगा कि फिल्म में दिखाया जा सकता है कि हर पार्टी एटीएम की लाइन में लगे लोगों की सेवा कर रही है, कोई चाय पिला रहा है, कोई पानी। फिर तमाम पार्टियों के नेता लाइन में लगे बंदों को पीट रहे हैं, ‘तूने उस पार्टीवाले का खाना खा लिया, अब मेरा भी खाना पड़ेगा। खाएगा कैसे नहीं, ठोक-पीटकर हजार का नोट कर दूंगा।’
नोटबंदी खत्म हो गई पर उससे पैदा हुई रचनात्मक संभावनाएं जीवित हैं।