Advertisement

बत्तीस साल बाद वही टार्गेट, वही फार्मूला

जातीय समीकरण हावी होने से विकास गायब, लोगों की नाराजगी भी नतीजों को कर सकती है प्रभावित
नमो तारणहारः भुज में सभा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अभिवादन करते स्थाानीय नेता

अब गुजरात विधानसभा चुनाव में गिनती के दिन रह गए हैं। समूचे देश की नजर उस पर टिकी है क्योंकि यह सामान्य चुनाव नहीं, बल्कि 2019 के आम चुनाव के पहले सेमीफाइनल जैसा माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के ‘चाणक्य’ अमित शाह का यह गृह राज्य है। दिलचस्प यह है कि 1985 में कांग्रेस ने जिस फार्मूले से सफलता हासिल की थी, 32 साल बाद भाजपा उसी तरह गोटियां बिछा रही है। अलबत्ता उसका जिक्र नहीं कर रही है। उस समय कांग्रेस ने जातियों का ‘खाम’ (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुसलमान) गठजोड़ का सहारा लिया था और 149 सीट की ऐतिहासिक सफलता हासिल की थी। इस बार भाजपा ने भी 150 से अधिक सीटों का लक्ष्य रखा है और जातियों को लुभाकर इसे हासिल करना चाहती है।

भाजपा ने गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाया था और मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि वहां किए गए प्रयोगों के बल पर ही आज भाजपा का पूरे देश में बोलबाला है। तो इस बार भाजपा को यहां अपनी रणनीति क्यों बदलनी पड़ी? इसकी वजहें भी कम नहीं हैं। हालांकि यह भी सही है कि पूरा गुजरात एक जैसा मिजाज रखता है। 1995 से भाजपा यहां सत्ता में जमी हुई है जबकि कांग्रेस लगातार कमजोर पड़ती गई है।

गुजरात में इस बार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार चुनाव हो रहा है। मोदी मैजिक की गैर-हाजिरी में यहां सामाजिक स्तर पर कई परिघटनाएं उभर आई हैं। फिर, स्थानीय भाजपा में पहले जैसी एकजुटता का भी अभाव है। मोदी के बाद तीन साल में दो मु्ख्यमंत्री बदले गए। इससे साफ है कि गुजरात भाजपा में जो दिखता है, वैसा रहा नहीं है। इसके अलावा भाजपा ने जिस वोट बैंक के आधार पर राज्य में अपनी नींव रखी थी, वह भी हिल गया है। जिस विकास की यशोगाथा को उसने सफलता का मंत्र बनाया था, आज वह कारगर नहीं रहा। पाटीदार समाज में उथल-पुथल इसका संकेत है।

जब कांग्रेस के माधव सिंह सोलंकी ने ‘खाम’ गठजोड़ कायम किया था तो संख्या और आर्थिक हैसियत के हिसाब से दबदबा रखने वाले पाटीदारों में अपनी औकात घटने के एहसास से नाराजगी पैदा हुई थी। कांग्रेस के विकल्प बनने की कोशिश में भाजपा ने इस नाराजगी को भुनाया था और हिंदुत्व, राष्‍ट्रवाद, और विकास का मिश्रण आगे करके पाटीदार समाज का वोट बैंक हासिल कर लिया था। उसके बाद उसने अपने वोट बैंक का विस्तार किया। भाजपा और पाटीदार समुदाय एक-दूसरे का पर्याय बने रहे या ऐसा माना जाता रहा। लेकिन पाटीदारों के आरक्षण आंदोलन से यह समीकरण बदल गया। पहले भाजपा ने पाटीदारों को लुभाकर अपनी जगह जमाई, अब कांग्रेस उसी कोशिश में है।

पाटीदार आंदोलन के साथ राज्य में ठाकोर (ओबीसी) समाज और दलित समाज भी आंदोलन पर उतर आया। उससे भी कांग्रेस को भाजपा सरकार पर निशाना साधने में मदद मिली। यही नहीं, भाजपा का ब्रह्मास्‍त्र माने जाने वाले सोशल मीडिया पर भी कांग्रेस खूब आक्रामक है। ‘विकास गांडो थयो छे’ (विकास पागल हो गया है) के नारे के साथ कांग्रेस ने दो महीने पहले अपना वार शुरू कर दिया था। अब आइए यह देखें कि जातियों के जिस गणित पर चुनाव लड़ा जा रहा है, उसका गुजरात के अलग-अलग क्षेत्रों में समीकरण क्या है?

कच्छ

कहने के लिए तो कच्छ मात्र एक जिला है मगर उसका अपना अलग ही मिजाज है। भूकंप के बाद कच्छ के कायापलट का श्रेय मोदी सरकार को दिया जाता है, इससे कच्छ भाजपा का गढ़ कहा जाता है। यहां मुस्लिम, पाटीदार, आहिर, गढवी समाज के अलावा लोहाणा समाज के मत निर्णायक हैं। मजेदार यह है कि इस इलाके में विभिन्न आंदोलनों ने अपनी कोई जगह नहीं बनाई है। इसलिए यहां भाजपा की बढ़त मानी जा सकती है।

सौराष्‍ट्र

सौराष्‍ट्र का मतलब है राजकोट, जामनगर, भावनगर, जूनागढ़, पोरबंदर, अमरेली, सुरेंद्रनगर सात जिलों का क्षेत्र। अनोखा मिजाज, अनोखी तासीर रखने वाले सौराष्‍ट्र की समस्याएं और जरूरतें भी अलग  किस्म की हैं। पाटीदार और कोली समाज पूरे सौराष्‍ट्र में फैला हुआ है। ओबीसी में आहिर, कारडिया राजपूत के दबदबे वाले कुछ इलाके हैं। मोरबी, भावनगर, गरियाधार और अमरेली में पाटीदार आंदोलन के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। किसानों की नाराजगी को अब भाजपा भी नजरअंदाज नहीं कर सकती। मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और भाजपा के प्रदेश प्रमुख जीतू वाघाणी सौराष्‍ट्र के ही हैं। कांग्रेस ने मजबूत उम्मीदवार उतारकर जंग को एकतरफा बनने से रोका है। कांग्रेस को हार्दिक पटेल फैक्टर का भी फायदा हो सकता है यानी पिछले चुनाव के मुकाबले यहां भाजपा को नुकसान झेलना पड़ सकता है।

दक्षिण गुजरात

नर्मदा पार के बाद महाराष्‍ट्र की सरहद तक का यह क्षेत्र पचरंगी है। यहां सूरत जैसा महानगर भी है, जहां गैर-गुजरात‌ियों की संख्या ज्यादा है तो आदिवासियों का असर भी ज्यादा है। भाजपा का विजय झंडा लहराने के बाद भी कांग्रेस ने इस इलाके में अपना प्रभुत्व बनाए रखा था। लेकिन बाद में मोदी मैजिक ने कांग्रेस के इस गढ़ में सेंध लगाने में सफलता पा ली थी। कांग्रेस ने यहां जाति समीकरणों को संतुलित करके आदिवासी सीटों पर ध्यान लगाया है। हालांकि सूरत के अलावा यहां पाटीदार आंदोलन का असर थोड़ा है, इसलिए भाजपा की बढ़त मान सकते हैं।

मध्य गुजरात

भरूच, नर्मदा, वडोदरा और चरोतर का यह प्रदेश समृद्ध है। सामाजिक संरचना भी यहां संतुलित है। भरूच जिले की तीन सीटों को अलग करने के बाद सांप्रदायिक तनाव भी यहां स्थिर है। पिछले दो दशक से यह क्षेत्र सामाजिक उथल-पुथल से दूर रहा है। इसलिए कांग्रेस अब भी खुद के लिए यहां असर ढूंढ़ रही है। इसलिए भाजपा की बढ़त मान सकते हैं।

अहमदाबाद और गांधीनगर

राजनीति, आर्थिक और सामाजिक लिहाज से यह सबसे महत्व का क्षेत्र है। राजधानी के तौर पर गांधीनगर और मेट्रो सिटी के रूप में अहमदाबाद का बहुत महत्व है। पिछले तीन चुनावों में अहमदाबाद शहर की तीन सीटों पर कांग्रेस को धोबी पछाड़ मिली है, पर इस बार पाटीदार आंदोलन के अलावा ठाकोर समाज की नाराजगी और उसके साथ ‘विकास पागल हो गया है’ नारे के जोर से कांग्रेस को उम्मीद है। टूटी-फूटी सड़कें, रास्तों पर भटकते जानवर, बेकाबू ट्रैफिक जैसी समस्या लोगों को भाजपा से नाराज कर रही है। इसी नाराजगी को कांग्रेस अपनी तरफ मोड़ पाती है या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा।

उत्तर गुजरात

राजनीतिक जागृति उत्तर गुजरात के डीएनए में है, और यह हिस्सा सहकारी संस्थाओं का मायका कहा जाता है। कृषि के साथ पशुपालन से जुड़े पाटीदार, आंजणा चौधरी और अब तो ठाकोर समाज की सक्रियता भी काफी निर्णायक होती जा रही है। पाटीदार आंदोलन के केंद्र विसनगर, वीजापुर इसी क्षेत्र में आते हैं। आंदोलन को तेज करने वाला महेसाणा उत्तर गुजरात का मुख्य केंद्र है। कड़वा पाटीदार में काफी नाराजगी है, जिसे वह अक्‍सर व्यक्त करता रहता है। अल्पेश ठाकोर की वजह से ठाकोर फैक्टर भी कांग्रेस के लिए आशा की किरण जगा रहा है।

उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल और पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के गढ़ और पीएम मोदी के जन्मस्थान का यह क्षेत्र भाजपा का वोट बैंक कहा जाता है। लेकिन कांग्रेस इसमें सेंध लगाने के लिए हर समीकरण आजमा रही है जो भाजपा को बहुत भारी पड़ सकता है। इसलिए कांग्रेस यहां अपने को सुधार सकती है।

कुल मिलाकर, भाजपा को मोदी की कमी महसूस हो रही है, यह कड़वी वास्तविकता नकारी नहीं जा सकती। लोगों की नाराजगी भी अब बाहर आ रही है, यह भी सच है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस इस असंतोष को अपनी ओर मोड़ सकेगी या ऊपर से दिख रही एकता के नीचे दबी गुटबंदी में यह अवसर भी जाया हो जाएगा? एक बात तय है कि विकास के मुद्दे और दावों के विपरीत यह चुनाव सिर्फ और सिर्फ जातिवाद पर ही लड़ा जा रहा है। देखते हैं, क्या होता है।

(अतिथि लेखक, दिव्य भास्कर डॉटकॉम के संपादक हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement