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हाशिये पर खड़े नायकों की आवाज

अपनी कहानी नहीं सुना पाईं उपेक्षितों की जिजीविषा बयां करने वाली महाश्वेता
महाश्वेता देवी

स्मृतिशेष : महाश्वेता देवी (1926-2016)

प्रतिवादी जीवन और साहित्य के स्वतंत्र घराने की लेखक ने पूरी जिंदगी उपेक्षित नायकों के इतिहास और वर्तमान को लेकर लिखा। लेकिन जब खुद की बारी आई तो कहानी अधूरी रह गई। समाज में वंचित, खासकर आदिवासी समुदाय के बारे में, उनकी जिजीविषा को लेकर हजारों कहानियां लिखने वाली महाश्वेता देवी अपनी कहानी को अधूरा छोड़कर चली गईं। अपने पहले पति बिजन भट्टाचार्य से तलाक के बाद वह किस मानसिक पीड़ा से गुजरीं, अपने बेटे और कवि नवारुण के लिए क्या किया और क्या नहीं कर पाईं, कैंसर से उनकी मौत कैसे इस लेखिका के लिए भी पीड़ादायक रही - अपना आत्मकथन वह शब्दों में पिरो रही थीं।

बंगाल में बहुचर्चित नंदीग्राम हिंसा (2007) के बाद से उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी और वह अपनी जीवनी लिखने में जुट गई थीं। ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, पद्म भूषण और मैगसेसे समेत कई पुरस्कारों से नवाजी गईं महाश्वेता देवी ने डायरी में लिखना शुरू किया था-अपना अंतिम आख्यान मानकर। तब वह कोलकाता के गोल्फ ग्रीन इलाके में किराए पर रहती थीं। वहां से 2010 में ईएम बाईपास के करीब राजडांगा मेन रोड स्थित मकान में जब शिफ्ट हुईं, तब उनकी वह डायरी खो गई। इसी मकान में कई दफा उनसे मिलने का मौका मिला। कभी उनके साहित्य को लेकर बात करने, कभी आदिवासी मुद्दों पर, कभी उनके सामाजिक कार्यों के बारे में और कभी बंगाल की राजनीतिक परिस्थिति को लेकर बात करने के लिए। ‘शरीर भालो नेई’ कहते हुए वह मिलतीं। बातचीत भले लंबी नहीं होती, लेकिन मुद्दों को लेकर उनकी बेबाकी और दृढ़ता का ओज हमेशा दिखता।

उन्हीं के घर पर एक दफा जॉय जोसेफ से मुलाकात हुई, जो लंबे समय के उनके साथी रहे। उन्होंने ही महाश्वेता दी को ‘कन्विंस’ किया था कि वह अपनी जीवनी लिखें। जॉय को अकसर वह अपना ‘मैनीस्क्रिप्ट’ पढ़ाया करतीं। उनके उसी घर में एक बार मनोरंजन व्यापारी से भेंट हुई। मनोरंजन हमेशा इस बात की चर्चा करते कि ऐसे वक्त में जब भोजन, कपड़े, रहने की जगह, चिकित्सा, स्वाधीनता को लेकर सवाल उठ रहे हों, महाश्वेता देवी जैसे लोगों की जरूरत ज्यादा है। सत्तर के दशक में नक्सली दौर से लेकर सिंगूर, नंदीग्राम, निताई गोलीकांड-हर मुद्दे पर महाश्वेता देवी की कलम गोले दागती रही। आदिवासी, वनवासी, वंचित, दलित और श्रमजीवी लोगों के लिए न्याय के पक्ष में। मनोरंजन से महाश्वेता की मुलाकात 1981 की एक दोपहरी में हुई। तब वह रिक्शा चलाते थे। उस दिन मनोरंजन ने अपनी हिचक तोड़ी और महाश्वेता देवी से पूछ लिया, ‘जिजीविषा का मतलब क्या है?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘बचे रहने की इच्छा।’ उसके बाद कुछ और सवाल, कुछ और बातें। हठात्, महाश्वेता ने रिक्शेवाले को कहा, ‘मेरी एक पत्रिका है वर्तिका। उसमें तुम्हारे जैसे ही लोग लिखते हैं। क्या तुम लिखोगे?’ मनोरंजन ने बताया, ‘मेरी तरह के लोगों के टेढ़े-मेढ़े वाक्यों, गलत शब्दों को ठीक कर दीदी पत्रिका में छापती थीं।’ अब आठ साल से छत्तीसगढ़ में रहते हैं मनोरंजन। कुछ अरसा पहले आई उनकी किताब चंडाल जीवन को खासी तारीफ मिली है।

जब तक शरीर ने साथ दिया, महाश्वेता नियमित पुरुलिया जाती रहीं। वहां के कई गांवों में रहने वाले खेड़िया-शबर आदिवासियों को पुलिस वाले अपराधी मानकर वक्त-बे वक्त उठा ले जाते थे। महाश्वेता ने ‘खेड़िया-शबर आदिवासी कल्याण समिति’ बनाई। इसी संस्थान के ट्रस्ट को उन्होंने मैगसेसे पुरस्कार की अपनी पूरी रकम दान कर दी। पुरुलिया में इस संस्था के कर्ता-धर्ता गोपीबल्लभ सिंह देव, राजनवागढ़ गांव में महाश्वेता के लिए भोजन बनाने वाले त्रिलोचन, लछु शबर जैसे कई लोगों ने गांव में शाल के उस पेड़ के नीचे चबूतरा बना दिया है, जहां वे बैठकर लोगों से बातें करती थीं।

महाश्वेता के पिता मनीष घटक भी साहित्यकार थे। वर्तिका पत्रिका उन्होंने ही शुरू की थी। चाचा ऋत्विक जाने-माने फिल्मकार थे। जब वह आठवीं की छात्रा थीं, तब खगेंद्रनाथ सेन के संपादन वाली पत्रिका रंगमशाल में उनकी पहली रचना छेलेबेला छपी, जो रवींद्र नाथ टैगोर के बचपन पर केंद्रित थी। जब वह कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य थीं, तब अपने सहकर्मी बिजन भट्टाचार्य से शादी की। यह शादी 15 साल चली। शादी टूटने के बाद उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी। बेटे नवारुण से भी अलगाव हो गया था। यह पीड़ा उन्होंने अपने उपन्यास हजार चुराशिर मां में बयान की है। हालांकि कई मौकों पर महाश्वेता ने कहा, ‘बिजन ने मेरी प्रतिभा को आकार दिया और इसे स्थायी रूप दिया। उन्होंने मुझे वह बनाया, जो मैं आज हूं।’

उन्होंने विभिन्न भाषाओं को एकजुट करने का भी काम किया। वह और उनके बेटे मिलकर भाषाबंधन नाम की पत्रिका निकालते थे जिसमें हिंदी समेत विभिन्न भारतीय भाषाओं का साहित्य अनूदित होकर छपता था।

महाश्वेता देवी ने अपने निजी जीवन की पीड़ा को भुलाते हुए हजारों वंचित आदिवासियों और पिछड़ों को अपना स्नेह दिया, उनके लिए आवाज उठाई, लिखा। अब उनके नहीं रहने पर, वही चोट्टी मुंडा, मौसमी संथाल और लछु शबर जैसे लोग उनके काम को आगे बढ़ाते रहने का संकल्प ले रहे हैं।

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