काश! बिल्डिंग मरीजों का इलाज कर पाती। तो पांच बसंत देख चुका भोपाल का अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) आज देश भर में वाहवाही लूट रहा होता। पर इसकी कुंडली में शायद कुछ और ही लिखा है। तीन साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी संस्थान में पूर्णकालिक निदेशक की कुर्सी खाली है। मार्च 2015 में डॉ. संदीप कुमार के इस्तीफे के बाद से ही भोपाल एम्स को नये डायरेक्टर का इंतजार है।
वैसे तो भोपाल एम्स की इमारत में 15 अगस्त, 2012 को ओपीडी सेवाओं का उद्घाटन कर दिया गया लेकिन पर्याप्त स्टाफ न होने के कारण 26 जनवरी 2013 को ही ओपीडी सेवाएं शुरू हो पाईं। पिछले वर्षों में वरिष्ठ सलाहकार और डॉक्टरों की कमी के चलते एम्स के कई विभागों को बीच में ही बंद करना पड़ा और कुछ तो पांच वर्ष बाद अब जाकर मुश्किल से शुरू हो पाए हैं। एक समय ऐसा आया जब दो वरिष्ठ सलाहकारों के संस्थान से विदाई लेने के कारण मनोचिकित्सा विभाग को आनन-फानन में बंद करना पड़ा था। लगभग 20 महीने के बाद अगस्त में डॉ. राजीव रंजन के ज्वॉइन करने पर मनोचिकित्सा विभाग में सेवाएं शुरू की जा सकी हैं।
कुल 52 वरिष्ठ सलाहकारों और डॉक्टरों के साथ शुरू हुए इस संस्थान में 2016 में भर्तियों से रोक हटने के बाद अस्पताल के 15 विभागों में लगभग 200 डॉक्टरों की भर्ती की जानी है। आज 182 वरिष्ठ सलाहकार और डॉक्टरों के साथ संस्थान में मूलभूत विभाग-एनाटॉमी, फिजियोलॉजी, मेडिसिन, जनरल मेडिसिन, सर्जरी, स्त्री रोग विभाग ही शुरू हो सके हैं।
भोपाल एम्स में लंबे समय से सेवाएं दे रहे प्रभारी डायरेक्टर डॉ. नितिन एम. नागरकर बात करने से कतराते हैं। उनका कहना है कि वे प्रभारी डायरेक्टर के रूप में जिम्मेदारी निभा रहे हैं, इसलिए किसी भी विषय में बात करना उचित नहीं होगा।
संस्थान के रेजिडेंट डॉक्टरों में से एक ने आउटलुक को बताया, “अब तो हम लोगों को आदत हो गई है बिना डायरेक्टर के रहने की। कई मायने में हमारे एक्टिंग डायरेक्टर काफी हद तक संस्थान की जिम्मेदारी निभा पाने में कारगर साबित हुए हैं।” लेकिन संस्थान के एक वरिष्ठ चिकित्सक की राय अपने साथी से अलग है। वह खीजते हुए कहते हैं, “संस्थान को डायरेक्टर की जरूरत है, क्योंकि उसके बिना कई महत्वपूर्ण काम होने में महीनों लग जाते हैं, पर हम क्या कर सकते हैं? स्वास्थ्य मंत्रालय को चाहिए कि वह समझे, सिर्फ संस्थान खोल देने भर से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती बल्कि उसे चलाने और सही देख-रेख करने के लिए एक कप्तान की भी जरूरत होती है।
हालांकि पिछले कुछ समय से भोपाल एम्स में कुछ सकारात्मक बातें भी हुई हैं। लंबे समय तक वरिष्ठ सलाहकार और डॉक्टरों की कमी के चलते बंद रहे ऑपरेशन थिएटर में आजकल डिसेक्शन टेबल रोज लगने लगी है।
यह खबर छोटी-मोटी सर्जरी वाले मरीजों के साथ ही छात्रों के लिए भी फायदेमंद है, क्योंकि पिछले पांच बैच को तो भोपाल के सरकारी अस्पताल हमीदिया कॉलेज जाकर ऑटोप्सी और डिसेक्शन टेबल का अध्ययन करना पड़ा था। सुधार का असर मरीजों के मामले में भी दिखने लगा है। भोपाल में रहने वाली बीना डी. ने आउटलुक को बताया, “मैं अपनी बेटी का इलाज बेंगलूरू जैसे बड़े शहर में भी करा चुकी हूं। मुझे वहां भी फायदा नहीं मिला। यहां एम्स में पिछले दो सालों से आ रही हूं और बेटी को बहुत आराम है। मरीज ज्यादा हैं पर यहां के डॉक्टर संजीदगी से बेटी को देखते हैं, उसकी बात सुनते हैं, फिर दवाई देते हैं।”
मगर छात्र हैरान हैं कि नये ठेकेदार के आते ही आखिर क्यों उनके मेस के खाने की तासीर बदतर हो गई है। छात्रों को और कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। हॉस्टल में आने वाला पानी प्रदूषित है। पीने के पानी की व्यवस्था सरकारी नलों के भरोसे है। देश में स्वास्थ्य सेवा में क्षेत्रीय असंतुलन दूर करने के उद्देश्य से छह नये एम्स खोले गए थे। भोपाल का एम्स भी आम लोगों को उच्चस्तरीय चिकित्सा शिक्षा प्रदान करने और आपातकालीन स्थिति के लिए अधिकाधिक चिकित्सकों काे तैयार करने के उद्देश्य से किया गया था।
इन सालों में सभी विभागों ने काम करना शुरू तो कर दिया पर इनमें गति की कमी है। आज भी 20 प्रतिशत फैकल्टी पद खाली पड़े हैं। ऐसे में एम्स की कई स्वास्थ्य सेवाओं पर साफ प्रभाव पड़ता दिखाई दे रहा है। जब मध्य भारत के इतने बड़े और सिर्फ पांच वर्ष पुराने अस्पताल की यह हालत है तो देश के अन्य सरकारी अस्पतालों की क्या हालत होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।