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जमीन से जुड़ा अभिनेता

संजय मिश्रा आज के दौर का जाना-पहचाना नाम हैं। कॅरिअर और जिंदगी के बीच संतुलन साधता यह अभिनेता सहजता की मिसाल है
सीमाओं से परेः कड़वी हवा में संजय मिश्रा

लोकप्रिय सिनेमा और लीक से हटकर बनीं फिल्में विपरीत ध्रुवों के समान हैं, जिनके बीच का सफर सुगमता से कर पाना मंजे हुए अभिनेता के लिए भी दुष्कर होता है। संजय मिश्रा के लिए यह दूरी सुगमता से पाट लेना सर्कस के किसी कलाकार की तरह बाएं हाथ का खेल लगता है। एक तरफ वह रोहित शेट्टी की कॉमेडी फिल्मों में ऊटपटांग किरदार सहजता से निभाते हैं। दूसरी ओर मनीष मूंदड़ा की फिल्मों में संवेदनशील वृद्ध की भूमिका में संजीदा दिखते हैं। उनके समकालीन कम अभिनेता ऐसा कर पाने में पारंगत हैं। राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र संजय की नई फिल्म, कड़वी हवा उनके असाधारण अभिनय क्षमता को दिखाती है। आंखों देखी (2014), मसान (2015) और इस साल ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित न्यूटन (2017) के निर्माता मूंदड़ा द्वारा बनाई गई यह फिल्म जलवायु परिवर्तन पर आधारित है। संजय ने इस फिल्म में सत्तर साल के दृष्टिहीन का किरदार निभाया है। जिसने सूखाग्रस्त इलाके में रहते हुए अपने जीवनकाल में उस जीवनदायिनी हवा को प्रदूषित होते देखा है, जिसमें वह हर क्षण सांस लेता रहा है। उस हवा को उसने प्रदूषण के कारण काल के रूप में बदलते हुए महसूस किया है।

सम-सामयिक विषय पर बनी इस सार्थक फिल्म के प्रदर्शन से सिर्फ एक महीने पहले संजय रोहित शेट्टी की इसी साल आई सबसे सफल फिल्म, गोलमाल अगेन में हास्य किरदार में दिखे थे। ऐसे किसी व्यक्ति के लिए जो उनकी अदाकारी की असीमित सीमाओं या उनके द्वारा पहले निभाई गई भूमिकाओं से अनभिज्ञ है, व्यावसायिक और सार्थक सिनेमा के बीच ऐसा सामंजस्य देख कर आश्चर्य कर सकता है। लेकिन उनके लिए यह स्वाभाविक प्रक्रिया है, अनुभवी रंगकर्मी की तरह।

 

संजय आउटलुक के साथ विशेष साक्षात्कार में कहते हैं, ‘‘कड़वी हवा  पहली फिल्म है जो जलवायु परिवर्तन जैसे ज्वलंत मुद्दे पर है। जब आप ऐसे किसी प्रयास का हिस्सा होते हैं जो पहली बार हो रहा हो तो यह आपको विशेष महसूस कराता है। फिल्म का हिस्सा बनकर मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूं। मेरी ख्वाहिश है, मेरे बच्चे महसूस करें कि उनके अभिनेता पिता ने अपने कॅरिअर में कुछ सकारात्मक किया।’’

बिहार में जन्मे, बनारस में पले-बढ़े संजय को उम्मीद है कि यह फिल्म पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता लाएगी। वह कहते हैं, ‘‘क्या यह अफसोसजनक नहीं है कि आज हम कड़वी हवा लेने को विवश हैं? मैं समझता हूं, हमें उन तमाम मुद्दों पर बात करनी चाहिए जिसने ऐसा वातावरण बनाया। मुझे लगता है इस फिल्म को देखकर दर्शकों को गुस्सा आना चाहिए।’’ इस वर्ष के राष्ट्रीय पुरस्कारों में विशेष रूप से उल्लेखित कड़वी हवा, संजय मिश्रा और रणवीर शौरी द्वारा अभिनीत दो किरदारों पर आधारित  फिल्‍म है जिनकी जिंदगियां जलवायु परिवर्तन के कारण दुरूह हो गईं। उनमें से एक सूखाग्रस्त बुंदेलखंड का निवासी है जिसका गांव बंजर हो गया तो दूसरा ओडिशा के समुद्री तट के निकट बसे इलाके का बाशिंदा है जहां आंधी-तूफान भयंकर तबाही लाता है।

संजय को अफसोस है कि आज समाज जातिवाद, सांप्रदायिकता में फंसा है। वह कहते हैं, ‘‘हरियालीवाद पर बात करने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है। जिधर देखो उधर बेतरतीब शहर उग आए हैं। आखिर यह किसका दोष है? हाल ही में एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में मैं झारखंड के लोहरदगा गया था। वहां मैंने चारों तरफ फैले कंक्रीट के जंगल देखे। अधिकतर शहरों की सड़कें संकरी हैं। क्या उनके निर्माण के समय यह सोचा गया कि लोग बीस साल बाद सिर्फ साइकिलों पर चलेंगे?’’ वह यह भी कहते हैं कि अब भी परिस्थितियां बदली जा सकती हैं बशर्ते कुछ ठोस प्रयास सरकार और समाज द्वारा किए जाएं। ‘‘आखिर हम बाढ़ग्रस्त बिहार के पानी को सूखाग्रस्त राजस्थान की ओर क्यों नहीं मोड़ सकते? क्या हम बारिश के पानी इकट्ठा कर उन लोगों के लिए उपलब्ध नहीं करा सकते जो बूंद-बूंद के लिए तरसते हैं?’’

आंखों देखी के लिए फिल्म फेयर क्रिटिक्स, सर्वोत्तम अभिनेता का पुरस्कार जीतने वाले संजय कहते हैं, ‘‘जलवायु परिवर्तन पर जागरूकता लाना मात्र फिल्मकारों और अभिनेताओं का दायित्व नहीं है। यह समाज के हर व्यक्ति की सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी है। आजकल हर जगह स्मार्ट सिटीज की बात हो रही है लेकिन हमें स्मार्ट सिटीज नहीं, स्मार्ट मेंटालिटी (मानसिकता) की आवश्यकता है। हम अचानक स्वच्छता अभियान की शुरुआत कर देते हैं जबकि हमें इन सब मुद्दों पर स्कूल स्तर पर ही बच्चों को सीख देने की जरूरत है। अगर हम छात्रों को ध्वनि प्रदूषण के बारे में जागरूक नहीं करेंगे तो क्या वे बड़े होकर सड़कों पर बेवजह हॉर्न नहीं बजाएंगे?’’

संजय जैसे अभिनेताओं के लिए आज का दौर स्वर्णिम है क्योंकि उन्हें कड़वी हवा जैसी फिल्मों में काम करने का मौका मिल रहा है जो नई और ठोस कहानियां कह रही हैं। हाल के दिनों में कई बड़े बजट की फिल्मों के फ्लॉप होने और छोटी फिल्मों के सफल होने के कारण बड़े निर्माता और स्टूडियो भी अच्छे विषयों की तलाश में रहते हैं। ऐसा लगता है मानों फार्मूला फिल्मों के दिन लद गए हैं। वह कहते हैं, ‘‘बड़े निर्माता और बैनर पहले सिर्फ प्रेम कहानियां बनाने में विश्वास रखते थे। आखिर कितने सालों तक आप वही घिसी-पिटी युवाओं के रोमांस की कहानियां दिखाएंगे? क्या अन्य आयु-वर्ग के लोगों की जिंदगी में कम रोमांच और ड्रामा होता है। हालांकि प्रेम कहानियों का दौर लंबा चला। कुंदनलाल सहगल, दिलीप कुमार से लेकर आमिर खान तक।’’

संजय के अनुसार, ‘‘फिल्म इंडस्ट्री हमेशा ‘विषयों की राजनीति’ का शिकार होती रही। हमेशा कहा गया कि दर्शक विशेषकर युवा पीढ़ी, प्रेम कहानियों को पसंद करती है। कभी किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि युवा दर्शक वाकई क्या चाहते हैं। मैं तो कई ऐसे युवाओं से मिला हूं जिन्हें आंखों देखी बहुत पसंद आई। बावजूद इसके कि फिल्म की कहानी एक बुजुर्ग पर केंद्रित थी। मुझे लगता है अब विषय वस्तु भी किसी कलाकार को स्टार बना सकती है। कलाकार अब किरदार के समक्ष गौण हो गया है।’’ खुद का उदाहरण देते हुए संजय बताते हैं, लोग उन्हें उनके द्वारा निभाए गए किरदारों के कारण जानते हैं। ‘‘मैं ऐसा स्टार नहीं हूं जो चार कमांडो के साथ चलता है, न ऐसा हूं जिसके आने पर कहा जाए, अब आ रहे हैं संजय मिश्रा। लेकिन मुझे खुशी है कि मैं अपने नाम से ज्यादा अपने काम से पहचाना जाता हूं।’’

प्रेस इन्‍फार्मेशन ब्यूरो के पूर्व अधिकारी के पुत्र, संजय का सफलता का सफर आसान नहीं था। 1989 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाद उन्हें अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने में नौ साल का समय लगा। पिता के कहने पर संजय 1991 में मायानगरी मुंबई में जोर-आजमाइश करने पहुंचे। हालांकि उनका इरादा फोटोग्राफी करने का था। ‘‘नौ साल के संघर्ष के दौरान मुझे सत्या और दिल से जैसी फिल्मों में छोटे रोल और कुछ विज्ञापनों के अलावा कोई खास काम नहीं मिला। बाद में 1999 के क्रिकेट वर्ल्ड कप के दौरान ईएसपीएन चैनल पर मुझे एप्पल सिंह का किरदार निभाने का मौका मिला जिससे कुछ लोग मुझे जानने लगे। लेकिन टेलीविजन सीरियल ऑफिस ऑफिस, जिसमें मंजे हुए कलाकार काम कर रहे थे, मेरे लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। इसने मुझे अपनी सिनेमाई अभिनय क्षमता विकसित करने का अवसर दिया। इसके बाद मुझे कई फिल्मों के ऑफर मिले। पर अब भी मुझे कामयाबी की हर सीढ़ी पर साबित करना पड़ता है कि मैं एक पायदान और ऊपर चढ़ सकता हूं।’’

बाद के सालों में गोलमाल सीरीज और अन्य कई फिल्में जैसे, फंस गया रे ओबामा, आलू चाट, सारे जहां से मंहगा और अनारकली ऑफ आरा ने उन्हें एक उम्दा कलाकार के रूप में स्थापित किया। लेकिन सफलता के इस सफर के दौरान उनकी जिंदगी में कुछ ऐसा अप्रत्याशित हुआ जिसकी कल्पना उन्होंने भी नहीं की थी। 2009 में जब उनकी कुछ फिल्में हिट हो चुकी थीं वह बुरी तरह बीमार पड़ गए। ‘‘एक महीने जब मैं अस्पताल में रहा, मैंने मृत्यु को करीब से देखा। वहां से छुट्टी मिलने के मात्र पंद्रह दिन बाद मेरे पिता गुजर गए। यह मेरे लिए ऐसा धक्का था जिससे मैं उबर नहीं पाया। पिता की अंत्योष्टि के समय मैं सोच रहा था, नियति ने अंतिम समय में मेरी जिंदगी की स्क्रिप्ट अचानक क्यों बदल दी। कुछ दिनों पहले तक मैं जाने वाला था और चले गए मेरे पिता। इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने मैं गंगा मैया के किनारे ऋषिकेश चला गया। सब कुछ छोड़कर मैं सोचने लगा, जिंदगी आखिर है क्या? मैं बुद्ध जैसी स्थिति में था।’’

कुछ दिनों बाद जब संजय के पैसे खर्च हो गए तो उन्होंने वहीं के एक ढाबे में रसोइए की नौकरी कर ली। लेकिन लोग उन्हें पहचानने लगे। वह कहते हैं, ‘‘लोग पूछते, ‘अरे आप? आप तो उस फिल्म में थे न?’ लोग पूछते और मेरे साथ सेल्फी लेते। इसे देख ढाबे के बुजुर्ग मालिक को आश्चर्य लगता कि किस व्यक्ति को नौकर रख लिया है। उसी दौरान मुझे फोन आया ‌कि रोहित शेट्टी मुझे अपनी आने वाली फिल्म ऑल द बेस्ट के लिए ढूंढ़ रहे हैं। मेरे पिता की भी यही इच्छा थी कि मैं अपनी बीमारी के बाद जल्दी से जल्दी अपने काम पर लौट जाऊं। मैं कैमरे के सामने लौट गया। मेरी सर्जरी के घाव तब तक पूरी तरह भरे भी नहीं थे।’’ संजय का मानना है कि आज वह कड़वी हवा जैसी फिल्म करने में इसलिए सक्षम हैं क्योंकि उन्होंने संघर्ष का लंबा जीवन जिया है। ‘‘उन दिनों मैंने बहुत सीखा। अगर मुझे आसानी से काम मिल गया होता, अगर उतने साल काम न मिलने की कुंठा न होती तो शायद यह कठिन होता।’’ जीवन और कॅरिअर के प्रति इसी नजरिये ने उन्हें प्रसिद्धि मिलने के बावजूद जमीन से जोड़े रखा। ‘‘मैं स्टारडम को कभी अपने व्यक्तित्व पर हावी नहीं होने देता। मेरी उम्र बावन से ऊपर हो चुकी है। एक आम भारतीय की औसत जिंदगी सत्तर-पचहत्तर साल की होती है। मैं बाकी बचे अपने 20-22 साल जीवन का आनंद लेना चाहता हूं। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जो मुझे इस आनंद से वंचित करे।’’

संजय अब भी ट्रेन से सफर करते हैं, सड़क किनारे रुक कर खुद ताजा सब्जियां खरीदते हैं और शूटिंग के दौरान अपने भोजन का खुद इंतज़ाम करते हैं। ‘‘अभी झारखंड में मुझे जिस तरह पालक और गोभी मिली उनके स्वाद ने चालीस साल पुरानी याद ताजा कर दी।’’ संजय फिलहाल अपने काम में व्यस्त हैं। लेकिन कॅरिअर मात्र उनके जीवन का उद्देश्य नहीं है। ‘‘मैं अपनी दूसरी जिंदगी भी जी रहा हूं। अगर मैं सिर्फ काम ही करता तो उस टेलीविजन सीरियल के अभिनेता की तरह होता जिसके पास अपनी जिंदगी जीने के लिए वक्त ही नहीं है।’’

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