सैयद हैदर रजा: 22-02-1922, 23-07-2016
हमारे समय के महत्वपूर्ण चित्रकार सैयद हैदर रजा हमारे बीच नहीं हैं। रजा साहब का जाना भारतीय कला जगत की आकाशगंगा से ऐसे नक्षत्र का लोप होना है जिसकी रोशनी में हम अपनी परंपराओं की झलक, विमर्शों और मूल्यों की प्रांजलता देख सकते थे। रजा के रूप में यह मात्र किसी व्यक्ति का अवसान नहीं बल्कि हमारे समाज की उस कड़ी की विलुप्ति है जिसका मानस अपने संस्कारों की अविरल धारा से सिंचित और संस्कृति के अक्षुण्ण दीपक से आलोकित था। वह समाज, जिसके आंगन के चहुंओर रस, सच्चाई, आत्मीय आग्रह और आध्यात्मिक चेतना रची-बसी थी। रजा, जीवन भर इस आंगन की चौकसी ही नहीं करते रहे बल्कि उसका भूगोल भी बढ़ाते रहे।
सन 1922 में ककैया नाम के छोटे से गांव में जन्मे रजा का बचपन कान्हा के जंगलों में विचरते हुए, मंडला में नर्मदा जी के घाटों पर टहलते हुए, दमोह में फुटेरा तालाब के नजदीक स्थापित नंदी के शिल्प के इर्द-गिर्द अठखेलियां करते और गुरु-गोविंद पाठशाला के परिसर में भटकते हुए बीता था। नागपुर और मुंबई से अपनी शिक्षा के बाद मात्र 30 साल की आयु में फ्रेंच भाषा में दक्ष होकर, चित्रकला में उच्च शिक्षा के लिए सन 1952 में वह पेरिस पहुंच गए थे। वह 60 सालों तक फ्रांस में रहे लेकिन अपनी मातृभूमि भारत से उन्होंने जीवनग्राही संबंध बनाए रखा। इन छह दशकों में किसी लघु-चित्र की भांति उन्होंने फ्रांस की धरती पर अपने इर्द-गिर्द एक लघु-भारत बना लिया था। मंडला में नर्मदा के घाटों से निकल कर वह पेरिस में सीन नदी के तट पर टहलते हुए भारतीय दर्शन का स्मरण करते रहे। रजा की सभ्यता का आंगन अपने विस्तार से दो नदियों, दो द्वीपों, दो समाजों और पूरब-पश्चिम का संगम बन चुका था जहां उनकी भारतीय चेतना अपने चरम पर हमें दिखती है।
यूरोप की चकाचौंध में रजा ने अपने संस्कारों के बल से अपने मानस को ढहने से बचाए रखा। यूरोपीय कला जगत के स्थापित मानदंडों को ठीक से समझकर फिर उन्हें ताक पर रखकर उन्होंने अपनी परंपराओं की आंच में अपने चिंतन को जिलाए रखा। उनका चिंतन यूरोपीयन कला के संदर्भों के समक्ष, अपनी जड़ों और अपने उन सांस्कृतिक औचित्यों का चिंतन था जो उनके चित्रों से अब हमारे सामने है। अमूर्त शैली में बने उनके चित्र, फ्रांसीसी ही नहीं बल्कि भारतीय समाज के लिए भी आश्चर्य का रूप रहे। उन्होंने हमारी ही परंपराओं से हमें अवगत कराया और आधुनिक समय में हाशिये पर आतीं उन परंपराओं को मुख्यधारा से जोड़ने का काम भी बखूबी किया। संभवत: यही रजा की अतुलनीय लोकप्रियता का कारण भी है। उनकी लोकप्रियता मीडिया से नहीं वरन आत्मीयता से उपजी है। ‘छैतहिं उपजे जग-संसारा’ की तर्ज पर उन्होंने अपना लोक स्वयं के स्पर्शों से ही रचा और उसे अपनी आत्मीयता से सिंचित भी करते रहे। भारत हो या फ्रांस, उनसे मिलने वालों में आभिजात्य वर्ग के वे लोग थे जिनके घरों की दीवारों पर उनके चित्रों का होना शान का कारण था। इसके बरक्स उन युवा चित्रकारों की भीड़ थी जो रजा से मिलना अपना सौभाग्य मानते थे। उनसे मिलने वालों में राजनेताओं की मंडली भी थी और विद्वानों की टोली भी। वर्ग कोई भी रहा हो, सभी मानते थे कि रजा से मिलने का अर्थ अपने जीवन और उसके औचित्य पर चिंतन का उपक्रम हो जाता था। उन्होंने जीवन भर धूर्तों को संभलने-सुधरने का मौका दिया, फनकारों का उत्साह बढ़ाया और कमजोरों की दिल खोलकर मदद की।
हिंदी, अंग्रेजी या फ्रेंच रजा के यहां भाषा महत्वपूर्ण थी। तीनों ही भाषाओं में उनकी गहरी पकड़ थी। वह भाषा का अपव्यय नहीं करते थे। वह जो बोलते, सरलता से बोलते। उनका हर वाक्य शुद्ध और सटीक होता था। उनकी हिंदी सुन-पढ़ कर हिंदी-भाषी हैरान हो सकता था, अंग्रेजी से अंग्रेज चौंक सकते थे और उनकी फ्रेंच से तो अनेक बार मैंने स्वयं फ्रांस में लोगों को विस्मित होते देखा था। वह कहते थे, ‘एक मनुष्य भीतर से क्या और कैसा है यह उसके संसर्ग के बाद ही समझा जा सकता है। लेकिन किसी की भाषा और भाषा के साथ उसके बर्ताव से तत्काल व्यक्ति और उसके संस्कारों की टोह ली जा सकती है।’ वह सभी युवा कलाकारों को सीख देते हुए कहते थे, ‘चित्रों में अगर भाषा खोजनी है, अपना मुहावरा गढ़ना है तो पहले मातृभाषा से संबंध बनाना जरूरी है।’ रजा के यहां भाषा, अपनी परंपरा के परिसर में उतर सकने की सीढ़ी थी। वह कहते थे, ‘फ्रेंच भाषा को उन्होंने बेहद कड़े परिश्रम से सीखा और साधा भी लेकिन आत्मिक-विमर्श तो अपनी मातृभाषा में ही होता है।’
60 वर्षों तक फ्रांस में रहकर भी उन्होंने फ्रांस की नागरिकता नहीं स्वीकारी। स्थानिक पहचान का महत्व उनकी निजता नहीं डिगा सका। सन 2010 में फ्रांस में अर्जित सब कुछ छोड़ कर भारत लौट आए। वहां उन्होंने अपना घर दान दे दिया। वह ऐसा घराना बना कर गए जिसमें हमारी भारतीय परंपराओं की अखंड चेतना हाशियों पर धकेलने वाली तमाम ताकतों के बीच अडिग बनी रहेगी। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें मंडला में दफन किया गया। परिश्रम से भरे जीवन में अंतत: उन्होंने वहीं विश्राम किया जहां से उन्हें अपना बिंदु-विस्तार मिला था।
(चित्रकार और रजा के शिष्य-न्यासी, रजा फाउंडेशन, दिल्ली)