कनु राय कलकत्ते से बंबई पार्श्वगायक बनने आए थे पर बंबई इप्टा में काम करते हुए लोगों की सलाह पर इप्टा के लिए संगीत-निर्देशन का दायित्व संभाल लिया। इप्टा में ही उनकी मुलाकात सलिल चौधरी से हुई। सलिल ने आशा भोंसले के साथ कनु से परिवार (1957) में एक दोगाना तो गवा लिया पर उन्हें गायक के बजाय संगीतकार बनने की सलाह दी। लेकिन संगीतकार बनने के लिए अवसर की आवश्यकता थी। कनु राय मीलों पैदल चलकर अनिल बिस्वास से काम मांगने गए। उन्होंने अनिल बिस्वास से गुजारिश की कि कोई काम न हो तो वह उनकी ड्राइवरी करने को भी तैयार हैं। अनिल बिस्वास ने उन्हें एक कोरस में गाने का मौका दे दिया। इस दौरान उनकी दोस्ती बासु भट्टाचार्य से हो गई। फिल्म मधुमती के निर्माण के दौरान बासु भट्टाचार्य ने सलिल से कहा कि वह कनु राय को सहायक के रूप में ले लें, पर सलिल का मानना था कि कनु उनकी शैली में योगदान नहीं दे सकते। जब बासु भट्टाचार्य ने यह बात कनु राय को बताई तो उनका दिल टूट गया क्योंकि उन दिनों वह सलिल के साथ ही रहते थे और कभी-कभी उनकी गाड़ी भी चला दिया करते थे। वह उनके शिष्य जैसे थे। बासु भट्टाटार्य ने अपनी फिल्म उसकी कहानी (1969) में कनु राय को मौका दिया।
कनु राय इतने तंगहाल थे कि उनके पास अपना हारमोनियम तक न था। इस फिल्म की धुनें उन्होंने बिना हारमोनियम के बनाई थीं। फिल्म में मात्र दो गीत गीता के कोमल स्वर में थे। कैफी आजमी का लिखा, ‘आज की कालीघटा’ मुलायमियत और हलके ऑर्केस्ट्रेशन के कारण आकर्षित करता है। हेमंत के स्वर में ‘तेरा है जहां सारा’ बंगाल की लोकशैली की आधुनिक प्रस्तुति थी।
कनु राय ने अनुभव फिल्म के साथ वर्षों से खोई गीता दत्त की वापसी का मार्ग प्रशस्त किया था। इसके कुछ दिनों बाद गीता दत्त दुनिया से विदा हो गईं। अनुभव में संगीत और गीता की गायकी गजब थी। हलके सितार, सरोद का ऑर्केस्ट्रेशन, कोमल सुरों में, ‘मेरा दिल जो मेरा होता’, ‘कोई चुपके से आ के सपने सुला के मुझको जगा के बोले’, ‘मेरी जां मुझे जां न कहो मेरी जां’ जैसे कितने खूबसूरत हलकी पवन की सरसराहट भरे गीत कनु राय ने बनाए थे। अनुभव में कनु राय ने मन्ना डे से राग देस पर आधारित, ‘फिर कहीं कोई फूल खिला’ मुलायम रूमानियत से भरा गीत गवाया था। उन्होंने मन्ना डे की आवाज के उस कोमल तत्व को उभारा जिसे उतनी कुशलता से शायद सलिल ही ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ में उभार पाए। जबकि सलिल या कल्याणजी-आनंदजी के ‘कस्मे वादे प्यार वफा’ में कोमलता पर दर्द हावी था। अनुभव में साउंडट्रैक का संगीत प्रयोगात्मक नई धारा के बासु भट्टाचार्य की फिल्मों की शैली से संगति बैठाता था। संगीत में फोन की घंटी, घड़ी की टिकटिक, रेडियो की आवाज जैसी ध्वनियां शामिल थीं। फिल्म के साउंडट्रैक में एक बांग्ला गीत भी था।
मन्ना डे के स्वर के दर्द को कनु राय ने आविष्कार (1973) के गाने, ‘हंसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है’ में खूबसूरती से उभारा था। यह गीत न सिर्फ लोकप्रिय हुआ बल्कि आज भी मन्ना डे के सर्वश्रेष्ठ गीतों में इसकी गिनती होती है। बासु भट्टाचार्य की इस चर्चित फिल्म में कनु राय ने आशा से भी सुंदर गीत ‘नैना हैं प्यासे मेरे’ गवाया था। उस समय तक अनजान जगजीत-चित्रा की जोड़ी से भी उन्होंने इसी फिल्म के लिए प्रसिद्ध पारंपरिक गीत, ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ गवाया था। कनु राय द्वारा संगीतबद्ध बासु भट्टाचार्य की ही एक और फिल्म तुम्हारा कल्लू (1975-शंकर शंभू के साथ) को समीक्षकों ने बहुत सराहा था। इसमें कनु राय ने पूरबी लोकशैली में एक गीत कंपोज किया था, ‘दरदियो न जाने ओ मोरे राजा’ (मदन चोपड़ा, साथी)। इस पूरी फिल्म में हलके रसीले एकतार का प्रयोग था।
कनु राय के संगीत का मील का पत्थर साबित हुई बासु भट्टाचार्य की ही गृहप्रवेश (1979)। राग-बिहाग में ‘बोलिए सुरीली बोलियां’, (भूपेंद्र, सुलक्षणा पंडित), खुशबू की तरह स्वर तरंगें बिखेरती ‘जिंदगी फूलों की नहीं’ (भूपेंद्र), एकाकीपन को सजीव करता ‘लोगों के घर में रहता हूं’, (भूपेंद्र), लाजवाब गजल ‘मचलकर जब भी आंखों में छलक जाते हैं दो आंसू’ (भूपेंद्र) जैसे गुलजार के लिखे और कनु राय के स्वरबद्ध किए गीत प्रभावशाली थे।
पंकज मित्र के स्वर में एक अलग ही शैली में गवाया ‘पी के याद आए पिया’ लीक से हटकर बनाई हुई रचना थी। यदि फिल्म के श्रेष्ठतम दो गीतों को चुनना हो तो मैं सुलक्षणा पंडित के स्वर में ‘आप अगर आप न होते तो भला क्या होते, लोग कहते हैं कि पत्थर के मसीहा होते’ रखूंगा। गुलजार के इस काव्यात्मक गीत को दादरा ताल पर कनु राय ने इतनी संवेदना से तराशा कि यह गीत देर तक मस्तिष्क पर हावी रहता है। दूसरे नंबर पर मैं चंद्राणी मुखर्जी के गाए ‘पहचान तो थी पहचाना नहीं, मैंने अपने आपको जाना नहीं’ को रखूंगा।
सई परांजपे स्पर्श (1980) में कनु राय ने सुलक्षणा पंडित से खुशी और गम दोनों ही मन:स्थितियों के सुंदर गीत, ‘प्याला छलका उजला दर्पण जगमग मन आंगन’ और ‘खाली प्याला धुंधला दर्पण, खाली-खाली मन’ के माध्यम से पुन: भावनाओं को स्पर्श करती कृतियां दीं। फिल्म में उन्होंने उस्ताद अमजद अली खां के सरोद वादन का भी उपयोग किया था। फिल्म मयूरी के लिए कनु राय ने अभिनेत्री नूतन से भी गीत गवाए। ‘मेरा जीवन एक बर्फीली धारा’, ‘ये कैसी है खामोशी’ और अमित कुमार के साथ ‘तुम-तुम न रहे’ जैसे गीत नर्म, कोमल कंपोजिशंस के अच्छे उदाहरण थे।
श्यामला (1979) का ‘बलमा मेरे बलमा’ (दिलराज कौर, मुकेश) गीत के लिए कनु राय ने चालीस वादकों का इस्तेमाल किया था। हालांकि यह गीत कनु राय के अन्य गीतों के मुकाबले कमजोर ठहरता है। वह फिर नहीं आई का संगीत पक्ष हालांकि सशक्त था पर फिल्म चली नहीं। अपने अंतिम दिनों में कनु राय बासु भट्टाचार्य की बांग्ला फिल्म श्मशान पर काम कर रहे थे। जीवन के अंतिम दिनों में निराशा और कैंसर के बीच 20 दिसंबर, 1982 को मुंबई के जे.जे. अस्पताल में उनकी मृत्यु हुई।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)