मुंबई के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास स्थित है सेवन हिल्स हॉस्पिटल। निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी की कोई परियोजना कैसे एक साझेदार के खर्चे पर दूसरे के लिए फायदे का सौदा हो सकती है, यह भव्य अस्पताल इसका सटीक उदाहरण है। एक दशक पहले 1,500 बिस्तर वाले इस अस्पताल के निर्माण के लिए म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ऑफ ग्रेटर मुंबई (एमसीजीएम) ने हैदराबाद के सेवन हिल्स ग्रुप से हाथ मिलाया था। परियोजना की पूरी लागत एक हजार करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया था। महाराष्ट्र में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी (पीपीपी) वाली इस स्तर की यह पहली परियोजना थी।
एमसीजीएम ने इसके लिए सेवन हिल्स ग्रुप को एयरपोर्ट के पास की 17 एकड़ कीमती जमीन 60 साल के लिए पट्टे पर दी। इसका मकसद निःशुल्क चिकित्सा सेवा को विस्तार देना और निगम अस्पतालों से बोझ कम करना था। समझौते के अनुसार अस्पताल को अपनी क्षमता का बीस फीसदी यानी 1,500 बिस्तर में से 300 गरीबों और सरकारी कर्मचारियों के लिए आरक्षित रखना था।
पहले चरण में 306 बिस्तर वाले अस्पताल का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 2010 में किया। उस वक्त ‘गरीबों’ के लिए वार्ड तैयार नहीं था। शुरुआत में कहा गया कि अस्पताल का एक फ्लोर एमसीजीएम के कर्मियों के लिए होगा, जो बीएमसी के नाम से जाना जाता है। फिर यह बात सामने आई कि ऐसे मरीजों के लिए अलग से इमारत का निर्माण किया जाएगा। दोनों में कुछ भी आज तक नहीं हुआ है।
बाद में अस्पताल ने कहा कि वह गरीबों को 20 फीसदी बिस्तर और ओपीडी सुविधाएं मुफ्त में देगा, लेकिन दवाएं और अन्य जरूरत की चीजें मुफ्त नहीं मिलेंगी। ‘आरक्षित’ बेड खाली नहीं है कहकर अस्पताल गरीब मरीजों को भगाने लगा और समझौते के घोर उल्लंघन के आरोपों पर निगम प्रशासन ने रहस्यमयी चुप्पी साध ली। शोरशराबे के बाद निगम ने अस्पताल प्रशासन को उद्घाटन के महीने भर के भीतर नोटिस भेजा। मामला खिंचता चला गया। अस्पताल को कई बार नोटिस भेजे गए लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो पाया।
नोटिस तो महज बहाना
मुंबई के अन्य निजी अस्पतालों की तरह 306 बिस्तरों के साथ यह अस्पताल भी सफलतापूर्वक चल रहा है। हाल में बीएमसी ने अस्पताल को एक और नोटिस भेजा है। मुंबई की अतिरिक्त निगमायुक्त आइ.ए. कुंदन ने आउटलुक को बताया, “बीएमसी के मरीजों को भर्ती नहीं करने और निःशुल्क चिकित्सा सुविधा नहीं देने के लिए हमने अस्पताल से कड़े शब्दों में स्पष्टीकरण मांगा है। हमने यह भी पूछा है कि अस्पताल में बिस्तरों की संख्या बढ़ाकर 1,500 क्यों नहीं की गई है। उन्होंने कुछ समय पहले नोटिस का जवाब दिया था जिसकी छानबीन की जा रही है। उनसे आवंटित जमीन वापस लेना चाहिए या नहीं, इस संबंध में जल्द फैसला किया जाएगा।”
लेकिन छह साल में बीएमसी ने न तो इस विवाद का समाधान किया है और न ही समझौता रद्द किया है। स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता इसे बड़े ‘घोटाले’ में से एक बता रहे हैं, जिसमें दोनों भागीदार हैं। इंटरनेशनल बजट पाटर्नरशिप के कंट्री कोऑर्डिनेटर और स्वास्थ्य कार्यकर्ता रवि दुग्गल ने बताया, “बीएमसी के पास इस तरह का संयुक्त उद्यम चलाने की न तो क्षमता है और न ही निजी सेवा प्रदाताओं को दुरुस्त करने का इरादा। सेवन हिल्स परियोजना के पीछे वास्तविक मंशा एक मूल्यवान सार्वजनिक संपत्ति को निजी कंपनी को सौंप देना था। मीडिया और सिविल सोसायटी ने मजबूती से इस मामले को नहीं उठाया होता तो मिलकर लूटने का यह खेल चलता ही रहता।”
शिवसेना के नेतृत्व वाली बीएमसी द्वारा एक दशक से ज्यादा समय में शुरू की गई कई संयुक्त योजनाएं खस्ताहाल हैं। अस्पतालों में आइसीयू और ट्रामा सेंटर के संचालन में निजी क्षेत्र को शामिल करने को मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है। सेवा प्रदाताओं पर गरीबों के मुफ्त उपचार से इनकार करने, ज्यादा पैसे लेने और अयोग्य कर्मचारियों को रखने के आरोप हैं। इस तरह के दो अनुबंध हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे ट्रामा सेंटर और क्रांतिवीर महात्मा ज्योतिबा फुले अस्पताल में हाल में रद्द किए गए हैं। कुंदन ने बताया कि समझौते की शर्तों का उल्लंघन करने के कारण दोनों केंद्रों का प्रबंधन करने वाली निजी कंपनियों से अनुबंध समाप्त किए गए हैं। कंपनी के प्रवक्ता डॉ. राजेश टेकचंदानी ने उनके दावों को खारिज करते हुए बताया कि फरवरी से एमसीजीएम ने हमारे बिल का भुगतान नहीं किया था। इसलिए हमने अनुबंध समाप्त कर दिया।
नए अनुबंध होने तक जीवन ज्योति ट्रस्ट को दोनों केंद्रों की अत्यंत महत्वपूर्ण सेवाओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गई है। प्रबंधन में लगातार बदलाव के कारण इन आइसीयू में पैदा होने वाले भ्रम और अराजकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। पांच साल पहले एमसीजीएम ने दर्जन भर अस्पताल में एमआरआइ, सीटी स्कैन और डायलिसिस सेंटर के लिए निजी क्षेत्र से समझौते किए थे। जगह आवंटित होने के बावजूद इनमें से आधे केंद्र अभी तक शुरू नहीं हुए हैं। कार्यकर्ता इन कंपनियों द्वारा जमीन पर कब्जा किए जाने की आशंका जता रहे हैं।
12 प्रस्तावित केंद्रों में से छह के शुरू होने में देरी की बात स्वीकार करते हुए कुंदन इनके अनुबंध की समीक्षा करने का भरोसा दिलाती हैं। इस बीच बीएमसी ने सरकारी खजाने से 16 करोड़ रुपये की लागत से एक और संयुक्त योजना ‘आपली चिकित्सा’ की शुरुआत की है। इस योजना के तहत प्राइवेट डायग्नोस्टिक लैब के साथ मिलकर निगम अस्पतालों में मुफ्त जांच की सुविधा उपलब्ध कराई जानी है। इसे उचित बताते हुए वे कहती हैं, “निगम अस्पतालों में मरीजों की भारी भीड़ और डॉक्टर, नर्स एवं टेक्नीशियन की कमी के कारण आउटसोर्सिंग समय की जरूरत है।” निजी क्षेत्र को कर्मचारियों की कमी से जूझना नहीं पड़ता है। जीवन ज्योति ट्रस्ट के प्रबंधक न्यासी बीरेंद्र यादव ने बताया, “ बेहतर वेतन की पेशकश करने के कारण मेडिकल पेशेवरों की कमी हमारे लिए कोई समस्या नहीं है।”
पीपीपी में प्राइवेट हित पर जोर
स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का कहना है कि पीपीपी अनुबंध इस तरह तैयार किए जाते हैं जिससे वे दोनों साझेदारों के प्रति निष्पक्ष होने की बजाय निजी क्षेत्र के पक्ष में होते हैं। अधिकारियों ने बताया, “अपोलो के मामले में दिल्ली के मुख्य सचिव संयुक्त उपक्रम के पदेन अध्यक्ष और कुछ अधिकारी बोर्ड के निदेशक होते हैं। लेकिन, दिल्ली सरकार मुफ्त उपचार मुहैया कराने से संबंधित रिकॉर्ड की जांच नहीं कर सकती।” कुछ अनुबंधों में ‘गरीब’ की परिभाषा स्पष्ट नहीं होती तो अन्य में ‘निःशुल्क’ उपचार ठीक से परिभाषित नहीं होते। अस्पताल इन खामियों का फायदा उठाते हैं। दुग्गल ने बताया, “निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के अक्सर वे नेता या सरकारी अधिकारी मददगार या मालिक होते हैं जो सिस्टम की खामियों से परिचित होते हैं और इसी कारण से इसका फायदा उठाने में सक्षम होते हैं।”
देशव्यापी मसला
देश में बीते 15 साल में निजी क्षेत्र सामर्थ्य पर आधारित बिजनेस मॉडल के साथ स्वास्थ्य क्षेत्र की ओर आकर्षित हुआ है। बीएमसी के साथ विवाद पर अस्पताल का पक्ष साफ किए बिना सेवन हिल्स हॉस्पिटल के प्रवक्ता डॉ. अशोक अस्थाना कहते हैं, “अधिकांश संयुक्त परियोजनाएं विवादों में रही हैं।”
दुग्गल गड़बड़ी के लिए सरकार और निजी क्षेत्र दोनों को जिम्मेदार मानते हैं। वे कहते हैं, “इसी तरह का विवाद दिल्ली के अपोलो इंद्रप्रस्थ अस्पताल में दो दशक से चल रहा है। मौजूदा आप सरकार सहित कोई भी सरकार अस्पताल के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम नहीं साबित हुई है, जबकि अस्पताल पर तीन में से एक इनडोर और पांच में से दो ओपीडी मरीजों को मुफ्त चिकित्सा देने की अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन करने का आरोप है।” वैसे, दिल्ली सरकार ने एक रुपये प्रति महीने की दर से 15 एकड़ जमीन पट्टे पर दी है और अस्पताल में उसकी 26 फीसदी हिस्सेदारी है।
गैर-सरकारी संस्था देवस्थली ने गुजरात के एक अध्ययन का हवाला देते हुए बताया कि पीपीपी के तहत निजी चिकित्सक केवल उन्हीं गरीब महिलाओं को मुफ्त में सुविधा देते थे जिनकी नॉर्मल डिलिवरी होती थी। ऐसा नहीं होने पर वे महिला को सरकारी अस्पताल भेज देते थे। कुछ डॉक्टरों पर गरीबों से पैसे लेने के आरोप भी लगे थे।
सरकार से मुफ्त/सस्ती जमीन लेने के बावजूद गरीबों को मुफ्त/रियायती उपचार(10 फीसदी बिस्तर) नहीं देने के आरोप देशभर के निजी अस्पतालों पर हैं। दुग्गल ने बताया, “इस संबंध में जसलोक, ब्रीच कैंडी और अन्य अस्पतालों के खिलाफ 1993 में अदालत में मामले दायर किए गए थे जो आज भी लंबित हैं। इस बीच, अस्पतालों की लूट जारी है।”
गरीब सर्वाधिक पीड़ित
इस अव्यवस्था के बीच गरीब मरीज सर्वाधिक पीड़ित हैं। जानकारी के अभाव में जब वे संयुक्त भागीदारी वाले अस्पतालों में जाते हैं तो उन्हें इलाज से मना कर दिया जाता है या फिर उपचार के बदले भुगतान के लिए विवश किया जाता है। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार 87 फीसदी के साथ स्वास्थ्य पर जेब से सबसे ज्यादा खर्च करने वालों में भारतीय अव्वल हैं। देश में 90 फीसदी से ज्यादा बेड निजी अस्पतालों में हैं। माना जाता है कि हर पांच में तीन भारतीय इलाज के लिए कर्ज लेता है या संपत्ति बेचता है और अस्पताल में भर्ती होने पर तीन में से एक आदमी गरीबी रेखा के नीचे चला जाता है।
जिम्मेदार कौन?
निजी क्षेत्र और कार्यकर्ता दोनों अव्यवस्था के लिए अलग-अलग कारणों से सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। डॉ. अस्थाना ने बताया, “देश भर में सभी पीपीपी परियोजनाओं की स्थिति एक जैसी है। सरकार या नगरपालिका एकमात्र ऐसी साझीदार हैं जो सभी पीपीपी परियोजनाओं में शामिल होती हैं। कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि समस्या के लिए जिम्मेदार कौन है।” भुगतान में देरी, नौकरशाही के रवैए और नेताओं व अधिकारियों के गठजोड़ के कारण भी कुछ प्रोजेक्ट प्रभावित होते हैं।
स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली एनजीओ पद्मा देवस्थली सेंटर फॉर इन्क्वायरी इन टु हेल्थ एंड एलायड थीम्स (सीईएचएटी) ने बताया, “अध्ययन बताते हैं कि पीपीपी परियोजनाओं की योजना और क्रियान्वयन को लेकर सरकार की जल्दबाजी, अपर्याप्त जानकारी और अनुभव की कमी के कारण कई परियोजनाएं बंद हो गईं।” कार्यकर्ताओं ने बताया कि आम तौर पर सरकार ऐसी परियोजनाओं का ऑडिट नहीं करवाती जिससे निजी क्षेत्र को खुली छूट मिल जाती है। एक ‘साझेदार’ होने के बावजूद निजी कंपनियों को मूल्यवान संपत्ति सौंपने के बाद सार्वजनिक प्राधिकरण मूकदर्शक हो जाते हैं।
मिसाल के तौर पर, 2004 में निगम ने अपने करीब 20 मातृत्व केंद्र निजी लोगों को एक रुपये प्रति वर्गफीट की दर पर सौंप दिए थे। 2014 में हाईकोर्ट के निर्देश पर इन केंद्रों की जांच के लिए बीएमसी ने एक समिति का गठन किया। जांच में पाया गया कि केवल पांच केंद्र ही समझौते की शर्तों के अनुसार चल रहे हैं। दुग्गल कहते हैं, “लोगों को लूटने में निजी क्षेत्र और सरकार दोनों साथ हैं। उनकी दोस्ताना लड़ाई से ऐसे फैसलों का रास्ता साफ होता है जिसमें दोनों का फायदा हो।”
क्या है समाधान
कार्यकर्ता निजी साझेदार की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए सरकार के मजबूत दखल की मांग करते हैं। देवस्थली के मुताबिक,“इस तरह के अस्पतालों में भागीदारी से पहले चिकित्सकीय मानकों के अनुपालन और नैतिक दबाव बनाए रखने के लिए मेडिकल रिकॉर्ड का ऑडिट सुनिश्चित कराना जरूरी है। इसके अलावा, सभी पीपीपी परियोजनाओं के परिणामों का पूर्ण मूल्यांकन जल्द से जल्द होना चाहिए।”
कुछ कार्यकर्ताओं की मांग है कि ऐसी सभी परियोजनाएं निजी क्षेत्रों से वापस ली जानी चाहिए, क्योंकि नागरिकों की देखभाल सरकार की जिम्मेदारी है। मुंबई विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक का कहना है,“पीपीपी स्वास्थ्य और सामाजिक जिम्मेदारी से सरकार के पीछे हटने के अलावा कुछ भी नहीं है, जिसे खत्म कर देना चाहिए। राज्य की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में आता है। बीपीएल की सरकार की परिभाषा गलत होने के कारण संयुक्त उद्यम इस वर्ग को सेवा मुहैया नहीं करा सकते।”
पीपीपी की शुरुआत कब
करीब 25 साल पहले वर्ल्ड बैंक ने पूरी दुनिया में स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए संयुक्त उद्यम मॉडल की सलाह दी थी। सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र के संसाधनों पर दबाव, अक्षमता और जिम्मेदारी की कमी इस सलाह के मुख्य कारण माने गए थे। बाद में 10वीं पंचवर्षीय योजना में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को बेहतर बनाने के लिए निजी क्षेत्र की क्षमताओं के दोहन पर बल दिया गया था। इसने संयुक्त उद्यमों के लिए निजी सेवा प्रदाताओं को आमंत्रित करने के लिए राज्यों को प्रेरित किया।