वही मुद्दा कहीं ऐसे छूट गया जिसके बूते समूचे देश में एक लहर पैदा की गई थी और नरेंद्र मोदी का केंद्रीय नेता के तौर पर उदय हुआ था। विकास के जिस गुजरात मॉडल को देश में खुशहाली के पर्याय की तरह पेश किया गया था और जिसके बूते ‘अच्छे दिन’ के सपने दिखाए गए थे, गुजरात के इन चुनावों में उसी पर सवाल उठे तो सत्तारूढ़ भाजपा ने उसे पीछे छोड़कर उपेक्षा, अपमान और पाकिस्तान को अपना हथियार बनाना ज्यादा माकूल समझा। मामला यहीं नहीं रुका। अशालीन टिप्पणियों और तरह-तरह की सीडी और सोशल मीडिया अभियानों से ऐसा माहौल बना, जिससे सबसे बदरंग होली खेलने वाले भी शरमा जाएं। इसका लोगों के मानस पर क्या असर पड़ा, यह तो 18 दिसंबर को जाहिर होगा, जब गुजरात के साथ ही हिमाचल के नतीजे सामने आएंगे। बेशक इन नतीजों से सिर्फ इन दो राज्यों ही नहीं, बल्कि समूचे देश की सियासत प्रभावित होगी।
शुरू में तो जरूर ऐसा लग रहा था कि कुछेक अपवादों को छोड़कर विकास और राज्य में भाजपा के 22 साल के राजकाज पर बात होगी। अक्टूबर के मध्य में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने नवसर्जन यात्रा शुरू की और ‘विकास गांडो थयो छे’ या ‘विकास पागल हो गया है’ का नारा उछाला तो राज्य की भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कई परियोजनाओं की घोषणा करके मानो अपने जवाबी नारे ‘हूं छूं विकास, हूं छूं गुजरात’ को मजबूत करना चाहा था। लेकिन चुनाव ऐलान के बाद जब 2015-16 में विभिन्न आंदोलनों के जरिए उभरे तीन युवा नेताओं पाटीदार अनामत आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी ने भाजपा विरोध के नाम पर अपना दांव कांग्रेस की ओर लगा दिया तो भाजपा ने विकास पर दांव लगाना शायद गैर-मुनासिब समझा।
बेशक, गुजरात के विकास पर राहुल भी तीखे सवाल उठा रहे थे और वे गुजरात के विकास को मुट्ठी भर उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने वाला बता रहे थे। यह कहना तो शायद उलझन वाला है कि उनके इन बयानों से ठीक वैसा ही माहौल बना, जैसा करीब दो साल पहले ‘सूट-बूट की सरकार’ वाले जुमले से बना था। उसके बाद बिहार चुनावों के पहले मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव की कोशिश छोड़ दी थी। असल में गुजरात मॉडल की तीखी आलोचनाएं तीनों युवा नेताओं हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश की ओर से आईं, जो ज्यादा भरोसेमंद लग रही थीं और जिसके असर से माहौल बदला-बदला-सा दिखा। उनकी इस आलोचना ने नोटबंदी और माल व सेवा कर (जीएसटी) की खासकर छोटे उद्योगों और कारोबारियों और अनौपचारिक क्षेत्र पर पड़ी मार से त्रस्त माहौल को और गंभीर बना दिया।
नतीजा यह हुआ कि पहली बार भाजपा और मोदी के खिलाफ हंसी-मजाक और तरह-तरह के चुटकुले चल पड़े। गुजरात की राजनीति के गहरे जानकार वरिष्ठ पत्रकार अजय उमट कहते हैं,“पिछले डेढ़ दशक से तो खासकर मोदी के खिलाफ बातों पर गुजराती नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे। समाज में उनका जो आभामंडल तैयार हो गया था, उसे तोड़ने में तीनों युवा नेताओं के आंदोलनों के अलावा आर्थिक तंगहाली ने बड़ी भूमिका अदा की है।” हालांकि विकास पर सवाल उठने पर चुनाव प्रचार के बीच के दौर से मोदी को उसी आभामंडल को जगाने के लिए अपने अपमान और ‘राष्ट्रवाद’ को मुद्दा बनाना शायद जरूरी लगा। लेकिन, गुजरात के ही राजनीति विज्ञानी अच्युत याज्ञिक के मुताबिक मोदी यह भूल गए कि वक्त बदल गया है। वे कहते हैं,“मोदी का यह आभामंडल 2002 के दंगों के अलावा उद्योगों की चमक-दमक से पैदा हुआ था। दंगों ने उन्हें कट्टर हिंदुत्व का नायक बनाया था तो नए-नए उद्योगों के लगने और शहरीकरण के विस्तार से मोदी एक खास तरह के विकास के पैरोकार भी माने जाने लगे। लेकिन गुजरात दंगों के बाद एक पूरी नई पीढ़ी आ गई है जिसके लिए शिक्षा और रोजगार के मसलों की अहमियत ज्यादा है।” बढ़ते उद्योगीकरण और बड़े कारोबार को प्रश्रय से शिक्षा और रोजगार दोनों ही मोर्चों पर मुश्किलें काफी बढ़ी हैं।
ऐसे में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल का दावा भरोसेमंद लगने लगा कि “सर्वे कर लो अगर ज्यादातर पाटीदारों की आर्थिक हालत बेहतर लगी तो मैं आंदोलन वापस ले लूंगा। किसी भी समाज के 10-12 प्रतिशत लोगों की खुशहाली पूरे समाज का आईना नहीं होती।” इसी तरह कांग्रेस में शामिल होकर चुनाव लड़ने वाले ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर का यह कहना भी बेदम नहीं लगता कि आरक्षण भी विकास का ही हिस्सा है क्योंकि “अगर यह मांग संपन्न माने जाने समुदायों से भी उठ रही है तो क्या और कैसा विकास हुआ है, यह साफ हो जाता है।” मेवाणी तो धड़ल्ले से दलित और मुसलमानों पर अत्याचार की बात भी उठा रहे हैं, जिसे उठाने से कांग्रस ने भी परहेज किया। राहुल गांधी लगातार मंदिरों में भी गए, जिसकी भाजपा ने काफी आलोचना की। यह भी कहा गया कि उनका नाम सोमनाथ मंदिर में गैर-हिंदू के तौर पर दर्ज है। कांग्रेस ने इसे भाजपा की साजिश ही नहीं बताया, बल्कि उसके प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने राहुल को जनेऊधारी हिंदू बताया। जाहिर है, कांग्रेस अपनी मुस्लिम समर्थक छवि से निजात पाना चाहती है या फिर भाजपा के आरोपों की काट के लिए उसने रणनीति बदली है।
लेकिन भाजपा या कहें खुद मोदी ने कांग्रेस को मुस्लिम पैरोकार बताने के अपने पुराने दांव पर भरोसा करना ज्यादा जरूरी समझा। पहले सूरत के खास इलाकों में अहमद भाई (कांग्रेस नेता अहमद पटेल) को मुख्यमंत्री बनाने संबंधी अनाम पोस्टर लगे। अहमदाबाद से सटे इलाके में मोदी ने खुद कहा कि कांग्रेस पाकिस्तान की शह पर अहमद भाई को मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। उसके बाद उन्होंने गोधरा और साणंद की सभाओं में दावा किया कि दिल्ली में पाकिस्तानी अधिकारियों के साथ कांग्रेस नेताओं की एक बैठक हुई जिसमें अहमद भाई को मुख्यमंत्री बनाने की योजना बनी। कांग्रेस ने इसे कोरा बकवास बताया। लेकिन 2012 के चुनावों में भी प्रचार के आखिरी दौर में मोदी यही आरोप लगा चुके हैं कि कांग्रेस अहमद भाई को मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। इस बार वे कुछ आगे बढ़ गए तो हो सकता है कि वजह पिछले दिनों राज्यसभा चुनावों के दौरान अहमद पटेल को हराने की भाजपा की नाकाम कोशिशें हों।
मोदी ने इसके पहले कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर की टिप्पणी “नीच किस्म के आदमी” को भी मुद्दा बनाया और उन्होंने उसे अपनी जाति और गुजरात का अपमान बताया। हालांकि कांग्रेस मोटे तौर पर इन आरोपों में नहीं उलझी। अय्यर पार्टी से निलंबित कर दिए गए और राहुल ने कहा,“हम प्रधानमंत्री के बारे में गलत शब्दों का इस्तेमाल नहीं करेंगे। हम मोदी जी को प्रेम से हराएंगे।” कांग्रेस के दूसरे नेता भले कुछ भटके मगर हार्दिक तो कतई नहीं भटके। उनसे संबंधित कई सेक्स सीडी भी जारी हुई मगर वे उसे भाजपा की साजिश बताकर ही अपनी बात करने लगे।
कांग्रेस के साथ हार्दिक के समझौते और आरक्षण के झूठे आश्वासन को भी भाजपा ने मुद्दा बनाया। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के पाटीदारों के लिए अलग से आरक्षण देने के फार्मूले पर सवाल उठाते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता इसलिए यह धोखा है। लेकिन हार्दिक पटेल खेमे का कहना था कि राजस्थान और महाराष्ट्र में भाजपा सरकारें गुर्जरों और मराठों के लिए ऐसी ही व्यवस्था बनाने का वादा कर चुकी हैं। इन मुद्दों का जो भी असर हुआ हो, लेकिन भाजपा नेताओं की बढ़ती चिंता बताती है कि जंग आसान नहीं है।
हालांकि भाजपा को अपने अध्यक्ष अमित शाह के बूथ मैनेजमेंट और पन्ना प्रभारियों पर पूरा भरोसा है। पार्टी राज्य की आबादी में करीब 14 फीसदी पाटीदारों में नाराजगी की भरपाई के लिए ओबीसी तबकों में प्रजापति, लुहार, कोली जैसी जातियों पर भरोसा कर रही है। मोटे तौर पर राज्य में करीब 44 फीसदी ओबीसी आबादी में इनकी हिस्सेदारी करीब आधी बताई जाती है। ओबीसी में क्षत्रिय समाज पर अल्पेश ठाकोर का असर बताया जाता है। भाजपा ने इन जातियों को 55 के आसपास टिकट दिए हैं।
जंग तीखी है और मोदी-शाह के लिए काफी अहम है, जिसका असर केंद्र की सियासत और 2019 के लोकसभा चुनावों पर पड़ सकता है। अहम यह कांग्रेस और तीनों युवा नेताओं के लिए भी है। राहुल अभी-अभी कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं। सो, यह आर-पार की लड़ाई है। इसलिए ईवीएम का मुद्दा भी चर्चा में है। इसके नतीजे चाहे जो निकलें मगर एक बात तो तय है कि गुजरात मॉडल पर आगे दांव लगाना मुश्किल हो जाएगा।