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कैसे मिलेगा भरोसेमंद इलाज

कॉरपोरेट अस्पतालों से मिली निराशा, सरकारी में सुविधाओं का अभाव
नाम बड़ेः नामी निजी अस्पतालों में हो रही है लापरवाही

पिछले दिनों की तीन घटनाओं ने दिल्ली में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर सवालिया निशान लगा दिया है। इन घटनाओं से प्रतिष्ठित कॉरपोरेट अस्पतालों की छवि को धक्का लगा है और मरीजों के साथ निर्मम रवैया और उनसे अनाप-शनाप पैसा वसूलने की बात जाहिर हुई है।

इन तीन में से दो मामलों में डेंगू से पीड़ित बच्चे की मौत अस्पताल से बाहर निकलते ही हो गई, जबकि उनके परिवार वालों से इलाज के नाम पर काफी पैसे लिए गए थे। तीसरे मामले में, अस्पताल ने एक जीवित बच्चे को मृत बता कर उसे प्लास्टिक में लपेटकर माता-पिता को सौंप दिया था। इन मामलों के बाद अस्पतालों की पेशेवर दक्षता और सेवा भाव के स्तर को लेकर सवाल उठ रहे हैं, जो जायज भी हैं। इन मामलों में इलाज खर्चे का बिल काफी ज्यादा वसूले जाने से भी लोगों में गुस्सा देखने को मिला है।

दिल्ली सरकार ने तो जिंदा बच्चे को मृत घोषित किए जाने के मामले में अस्पताल की मान्यता को रद्द करने का फैसला भी लिया है। हालांकि इन सबके बाद भी, आम लोगों का भरोसा निजी एवं सार्वजनिक अस्पतालों से उठता जा रहा है। जब हम स्वास्थ्य सेवाओं की बात करते हैं, तो मोटे तौर पर उनमें तीन अहम मुद्दे शामिल हैं-पहुंच, गुणवत्ता और कीमत। इन तीनों का समाधान बेहद स्पष्टता के साथ होना चाहिए, ढके छिपे अंदाज में नहीं।

इन समस्याओं का हल ये है कि आधारभूत ढांचों का निर्माण किया जाए और सबको सर्वमान्य स्वास्थ्य सेवा (यूएचसी) मुहैया कराएं, इसे सतत विकास के लक्ष्यों में शामिल किया जा चुका है। दरअसल, ग्रामीण इलाकों के गरीबों और शहरी हिस्सों में बढ़ती आबादी के सामने भरोसेमंद और सस्ती चिकित्सीय सुविधा तक पहुंचना सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। इतना ही नहीं, संगठित प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के साथ-साथ कई जिला अस्पतालों और नर्सिंग केंद्रों में बेहतर सुविधाओं के नहीं होने से भी संकट बढ़ा हुआ है।

हालांकि कॉरपोरेट अस्पताल गुणवत्ता वाला अत्याधुनिक इलाज देने का वादा करते हैं और इन अस्पतालों के बीच इलाज के नाम पर खड़े हुए पर्यटन उद्योग में अपना-अपना हिस्सा बटोरने की होड़ भी लगी हुई है। दूसरी ओर, अत्याधुनिक सुविधाओं वाली सरकारी संस्थाओं के पास बजट का अभाव है और वहां प्रबंधकीय स्तर पर बेहतर प्रतिभाएं भी मौजूद नहीं हैं। चिकित्सीय सुविधाओं को बेहतर करने के लिए प्रत्येक स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के दायरे को बढ़ाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि सार्वजनिक तौर पर वित्त का प्रबंधन हो, प्रशिक्षण और स्वास्थ्यकर्मियों की नियुक्ति पर पैसे खर्च हों और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए काडर तैयार किए जाएं। इन प्रावधानों का उल्लेख राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में मिलता है लेकिन इसे तत्काल प्रभाव से जल्द लागू किए जाने की जरूरत है।

सुविधाएं और देखभाल की गुणवत्ता के स्तर को हर बीमारी के संदर्भ में उपयुक्त देखभाल से मापा जाना चाहिए। इसमें जांच और इलाज के फायदे और उसमें सुरक्षा पर जोर होना चाहिए ताकि मरीज और उनके परिवार वाले संतुष्ट हो सकें। मौजूदा व्यवस्था में इलाज और देखभाल की कीमत मरीज और परिजनों को चुकानी होती है। यह गंभीर चुनौती बनी हुई है। स्वास्थ्य सुविधाओं पर मामूली बजट आवंटन के चलते देश में इलाज के नाम पर दरिद्रता जैसी तस्वीर उभरती है। एक तो गरीबी बहुत है और दूसरी सबसे अहम बात ये है कि कामकाजी आबादी का बड़ा तबका असंगठित क्षेत्र में काम करता है। ऐसे में निजी स्वास्थ्य बीमा या फिर नियोक्ता की ओर से दी गई स्वास्थ्य बीमा की सुविधा बहुत कम लोगों के लिए ही उपलब्ध है। चूंकि ऐसे लोगों की संख्या बेहद कम है, लिहाजा इन योजनाओं में उपभोक्ताओं को सीमित रकम की सुविधा ही मिल पाती है। सरकार की ओर से अनुदानित बीमा योजनाओं में अत्याधुनिक इलाज सुविधाओं को शामिल किया जाना चाहिए। हालांकि उन योजनाओं में अभी कोई वित्तीय सुरक्षा नहीं दी जा रही है क्योंकि इसमें केवल अस्पताल का खर्च शामिल है जबकि अस्पताल से बाहर निकलने के बाद भी मरीजों की देखभाल पर बहुत पैसा खर्च होता है, कई बार इलाज की रकम से भी ज्यादा।

इन समस्याओं का हल तभी मिलेगा जब 2019 तक स्वास्थ्य सेवा के आवंटन को दोगुना करके जीडीपी के कम से कम 2.5 फीसदी तक पहुंचाना होगा। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के तहत 2025 तक इस लक्ष्य को हासिल करने का लक्ष्य है। इसके बाद टैक्स से होने वाली आमदनी, केंद्र और राज्य सरकार की बीमा योजनाओं की आमदनी और नियोक्ताओं की ओर से कर्मचारियों को मिलने वाली स्वास्थ्य बीमा सुविधाओं को एक ही व्यवस्था के अंदर लाना होगा।

इसको संचालित करने के लिए ताकतवर स्वायत्त प्राधिकरण को गठित किए जाने की जरूरत है जो सेवाओं को सार्वजनिक क्षेत्र से खरीदे और जरूरत पड़ने पर पंजीकृत निजी सेवा देने वालों से भी। यहां ये भी देखने की जरूरत है कि इसमें बहुत बड़ी संख्या में लोग सम्मिलित होंगे, लिहाजा बेहतर स्वास्थ्य वाला व्यक्ति किसी बीमार का खर्च, अमीर किसी गरीब का खर्च और सेवानिवृत बुजुर्गों का खर्च युवा कर्मचारी शेयर कर सकते हैं। इससे किसी भी एक आदमी का बोझ अपने आप कम हो जाएगा।

अगर इन्हें बारी-बारी से लागू किया जाए, तो इसके सीमित परिणाम मिलेंगे, क्योंकि अलग-अलग लागू किए जाने से समस्या दूर नहीं होगी। सस्ती इलाज की सुविधा का भी तब कोई मतलब नहीं होगा, अगर उसकी पहुंच सीमित लोगों तक हो या फिर वो भरोसेमंद नहीं हो। इलाज की गुणवत्ता और उसकी कीमत निर्धारित करने को लेकर कठोर प्रावधानों की मांग जायज है लेकिन ऐसा प्रावधान सभी जरूरतमंदों को चिकित्सीय सुविधा मुहैया नहीं करा सकता।

अभी, स्वास्थ्य सेवाओं में चल रहे दोनों सुधारों में आपसी तालमेल नहीं है, जबकि समय आ गया है कि इन्हें आपस में जोड़कर काम किया जाए ताकि दयनीय स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते डराने वाले हादसों को रोका जा सके।

(लेखक पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, नई दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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