बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद चौथाई सदी बीत चुकी है। हर साल हिंदुत्ववादी ताकतें इस दिन को ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाती हैं लेकिन शायद एक अपराध बोध और लाचारी के साथ। आखिर उनके लिए राम ‘मुक्त’ तो हो गए लेकिन इतने साल बाद भी बेघर हैं। बदलते राजनैतिक माहौल में रजत जयंती वर्ष अहम मोड़ की तरह आया क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे ‘राम की अयोध्या वापसी’ की तरह मनाया, जो ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ नारे को साकार करने जैसा है, जिसे अरसे से महज बयानबाजी माना जाता रहा है। हिंदुत्ववादी एजेंडे में प्रतीकों और कर्मकांडों की खास अहमियत है। सो, इस साल की दीवाली पर अयोध्या में राम की प्रतीकात्मक वापसी के तौर पर सरयू के तट पर करीब दो लाख दीए जलाकर भव्य प्रदर्शन किया गया। अब संघ परिवार मंदिर निर्माण के एजेंडे में तेजी लाने की कोशिश में है। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार किए बिना ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में घोषणा कर दी कि वहां मंदिर बनेगा। उन्होंने साफ कहा कि विवादास्पद स्थल पर केवल मंदिर रहेगा और कोई दूसरा ढांचा नहीं।
इस घोषणा के साथ ही आरएसएस राम जन्मभूमि आंदोलन के नए दौर में प्रवेश कर गया है। यानी वह मंदिर निर्माण को हिंदू भारत का नया प्रतीक बनाना चाहता है। भागवत के आत्मविश्वास को इस रूप में समझा जा सकता है कि आज आरएसएस के हाथ में केंद्र और अधिकांश राज्यों की सत्ता की चाबी है। असल में अयोध्या आंदोलन आरएसएस की ताकत बढ़ने का बड़ा कारण है जिसमें बाबरी मस्जिद विध्वंस अहम प्रतीकात्मक घटना थी।
मस्जिद विध्वंस कोई अचानक हुई घटना नहीं थी, बल्कि यह एक दशक से संघ-विहिप-भाजपा की सुनियोजित रणनीति के तहत की जा रही लामबंदी और आंदोलन का परिणाम था। इसके बीज 1949 में पड़े, जब दिसंबर की एक कंपकंपाती रात में रामलला बाबरी मस्जिद में ‘प्रकट’ हुए। लेकिन तब यह स्थानीय मुद्दा ही बनकर रह गया था, देशव्यापी असर नहीं पैदा कर पाया। फिर, कई दशक बाद 1984 के संसदीय चुनाव में मात्र दो सीटें मिलने से भाजपा के शर्मनाक प्रदर्शन पर आरएसएस को बाध्य होकर अयोध्या को केंद्र में रखकर आक्रामक राजनैतिक-धार्मिक रणनीति बनानी पड़ी। 1981 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्मांतरण, शाहबानो प्रकरण, कांग्रेस सरकार द्वारा मंदिर का ताला खोलने जैसी घटनाओं ने पूरे देश में हिंदुओं की लामबंदी के लिए खाद का काम किया।
इससे पहले, हिंदू राष्ट्र की अवधारणा संघ काडर के इर्द-गिर्द सिमटी थी। अयोध्या आंदोलन ने आरएसएस की पहुंच आम हिंदुओं तक बनाई और संघ को अपनी इस विश्वदृष्टि के प्रचार-प्रसार का मौका मुहैया कराया कि राम केवल महान हिंदू देवता ही नहीं, बल्कि आहत राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक भी हैं।
इस तरह बड़ी चतुराई से हिंदू धर्म और राष्ट्रवाद को एक धागे में पिरो दिया गया। इससे संघ की लाखों लोगों तक पहुंच बनी, जो धर्मनिरपेक्षता की बातें नहीं समझ पाते थे। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’ के तर्क से भी काफी लोग प्रभावित हुए।
वामपंथी धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने जब प्रश्न किया कि क्या अयोध्या ही राम का जन्म-स्थान है और क्या आज की अयोध्या ही रामायण काल की अयोध्या है तो इस सवाल ने आंदोलन को और हवा दी। वे उन हिंदुओं की मानसिकता समझने में नाकाम रहे, जिनके लिए अयोध्या महज आस्था का सवाल है जिसका इतिहास या कालबोध से कोई लेनादेना नहीं है।
जब आडवाणी ने मस्जिद को दूसरी जगह ले जाने की बात की तब यह बातचीत और समझौते का द्वार खोल सकता था। पर धर्मनिरपेक्ष लोग संवैधानिक या कानूनी हल पर जोर देते रहे क्योंकि उन्हें डर था कि किसी भी तरह की बातचीत से संघ परिवार को फायदा हो सकता है। तब अल्पसंख्यकों के हितों की जगह राजनैतिक और चुनावी जोड़तोड़ ही सिद्धांत बन गए थे।
ऐतिहासिक तौर पर भी देखें तो आरएसएस ने हरदम उपयुक्त समय पर ही अस्तित्व बचाए रखने, विस्तार और राजनीतिक सत्ता का लक्ष्य पूरा करने की चतुराई दिखाई है। उसने खुद को आजादी के आंदोलन से अलग रखा और चुपचाप अपने विस्तार की रणनीति अपनाई। बंटवारे के समय उसने खुद को हिंदू शरणार्थियों के ‘रक्षक’ के रूप में पेश किया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगे प्रतिबंध के कठिन समय में उसने अपने राजनैतिक मोर्चे भारतीय जनसंघ (1951) का गठन किया और उसके बाद राजनैतिक विस्तार के लिए कई अन्य सहयोगी संगठन बनाए जिनमें विश्व हिंदू परिषद (1964) प्रमुख है। 1975 में उसने जयप्रकाश आंदोलन में शामिल होकर इमरजेंसी को चुनौती देने का बड़ा राजनैतिक फैसला लिया। इसके बाद वह जनता पार्टी और मुख्य राजनीतिक धारा का हिस्सा बन गई। 1977 में उसे सम्मान, वैधता के साथ सत्ता भी हासिल हुई।
ऐसे में ’80 का दशक अयोध्या आंदोलन शुरू करने लिए बिलकुल सही समय था। उस समय तक संघ के नेटवर्क का विस्तार पूरे देश में हो चुका था, नए क्षेत्रों और सामाजिक समूहों तक उसकी पहुंच हो गई थी। आरएसएस को हिंदी क्षेत्र के ब्राह्मण-बनिया, ऊंची जाति और मध्यम वर्गीय लोगों का संगठन माना जाता था। वह उससे बाहर आना चाहता था। अयोध्या ने इसे ऐसी भाषा और प्रतीकात्मक हथियार उपलब्ध कराए जो ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में पांव फैलाने के अलावा खास जातिगत दायरे से बाहर आने के लिए जरूरी थे। राम के प्रति पिछड़ी जातियों में ही नहीं, बल्कि वंचित समूहों में भी बड़ी श्रद्धा रही है। इसकी वजह से मंदिर आंदोलन सामाजिक गठबंधन बनाने का आसान रास्ता हो गया और दलित, आदिवासी और पिछड़े भी साथ आए। इस प्रकार, बड़े और विविध सामाजिक आधार पर ‘हिंदू भारत’ की नींव रखी जा सकी। इसके बाद संसद में भाजपा की ताकत बढ़ी, इस आंदोलन ने पार्टी को प्रमुख उत्तर भारतीय राज्यों में सत्ता में ला दिया। इसके बाद उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने केंद्र की कांग्रेस सरकार की मौन सहमति से विध्वंस का रास्ता साफ किया।
यह सही है कि विध्वंस काफी लोगों के लिए उन्मादी और बर्बर था और ऐसे आक्रामक बहुसंख्यकवादी रुझान को गैर-लोकतांत्रिक और अल्पसंख्यक विरोधी माना जाता है। लेकिन उसके समर्थक इस विजय से खुश थे और उनकी राय में यह ऐतिहासिक मुस्लिम वर्चस्व और हिंदू अपमान के अंत का प्रतीक था। लेकिन इस ‘विजय’ के लंबे समय तक असर डालने वाले नकारात्मक नतीजे भी थे। भीड़ का उन्माद और हिंसा विवाद सुलझाने के नए हथियार के रूप में उभरे। इसके बाद केंद्र सरकार के सामने कानून का राज कायम रखने और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने जैसे बड़े सवाल खड़े हो गए।
‘हिंदू सहिष्णुता’ के उच्च आदर्श को अतीत की वस्तु बना दिया गया। विध्वंस और हिंसक घटनाओं ने मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों में भय का स्थाई माहौल पैदा कर दिया। इससे संवैधानिक सरकार पर विश्वास ही टूट गया क्योंकि कल्याण सिंह बतौर मुख्यमंत्री मस्जिद की सुरक्षा के लिए शपथ-पत्र दायर करने के बाद भी विध्वंस में हिस्सेदार बन गए।
बेशक, इन सब का आरएसएस पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। विध्वंस के बाद हुए दंगों और मुंबई में हुए श्रृंखलाबद्ध धमाकों के बाद हुए हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण से इसकी साख ही बढ़ी। उसका समर्थन बढ़ता ही गया और अंततः भाजपा दिल्ली में 1998 से 2004 तक गठबंधन सरकार बनाने में सफल हो गई। इस आंदोलन में सक्रिय कई प्रमुख लोग सांसद और मंत्री बन गए, जिनमें धार्मिक नेता भी शामिल थे। इस तरह धर्मनिरपेक्ष ढांचे में धर्म को वैधता मिल गई। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पर कुछेक अड़चनों के बावजूद आरएसएस का कैबिनेट गठन से लेकर नीति निर्धारण और प्रमुख नियुक्तियों पर पूरा बोलबाला रहा। विध्वंस के बाद पश्चाताप जताने और नरम रुख रखने वाले वाजपेयी ने गठबंधन की मजबूरियों के कारण मंदिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में रखना पड़ा। दूसरी ओर, विहिप ही समय-समय पर अयोध्या में प्रतीकात्मक ढंग से धार्मिक कार्यक्रम करती रही।
2002 में अयोध्या से आ रही ट्रेन में गोधरा स्टेशन पर आगजनी से गुजराती कारसेवकों की मौत हो गई। इस घटना के बाद गुजरात में सबसे भयावह मुस्लिम विरोधी दंगा भड़का। गुजराती समाज काफी हद तक हिंदुत्ववादी हो गया और तब से राज्य पूरी तरह से हिंदुत्व की राजनीति की पकड़ में आ गया। छह दिसंबर 1992 को बहुसंख्यकवादी आक्रामकता के एक दशक बाद गुजरात में हुई घटनाओं में एक संबंध था। लेकिन नरेंद्र मोदी ने खुद को हिंदुत्व के प्रतिरूप वाले ढांचे में सीमित नहीं रखा बल्कि प्रशासनिक तंत्र को साथ लाकर विकास को नारे के रूप में पेश किया और आरएसएस के समर्थन से भारत का प्रधानमंत्री बनने में सफलता हासिल की।
2014 में लोकसभा चुनाव और 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली भाजपा की बड़ी सफलता के पीछे कहीं न कहीं अयोध्या के दिनों में तैयार किए गए आधार का भी हाथ था। सीधे तौर पर मंदिर मुद्दे से जु़ड़े रहे योगी आदित्यनाथ उसके लिए खुद के समर्थ होने की बात करते हैं जबकि मोदी का जोर मुख्यतः विकास पर ही रहता है। मोदी आडवाणी के रथ के नए चालक हैं तो योगी आंदोलन के प्रमुख नेता रहे महंत अवैद्यनाथ के उत्तराधिकारी। ऐसे में, जब दो निष्ठावान लोगों के हाथ में सत्ता हो और आरएसएस का प्रभाव चरम पर हो तो भागवत आत्मविश्वास से भरे क्यों न हों?
निःसंदेह, बाबरी मस्जिद विध्वंस ने देश के संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्ष ढांचे को हिलाकर रख दिया पर इससे ‘हिंदू भारत’ की नींव भी रख दी गई। दिसंबर 1992 के बाद मंदिर के लिए स्तंभ चुपचाप तराशे जा रहे हैं जबकि आरएसएस कड़ी मेहनत से ईंट-दर-ईंट ‘हिंदू भारत’ का ढांचा खड़ा कर रहा है।
(लेखक नीदरलैंड के लीडेन विश्वविद्यालय में समकालीन भारत विषय के आइसीसीआर प्रोफेसर हैं)