अयोध्या में 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बंबई में सिलसिलेवार धमाके हुए। एक मायने में देश में आतंकी हमलों के लिए फौरी बहाना मिल गया था। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ लंबे समय से किसी बड़े आतंकी हमले कराने की बाट जोह रही थी। उसे मस्जिद विध्वंस ने वह मौका मुहैया करा दिया, ताकि वह हालात का फायदा उठाकर हमले की साजिश रचे। उस समय तक यह भारत ही नहीं, दुनिया भर में सबसे भीषण आतंकी हमला था (अमेरिका में 9/11 का हमला भी आठ साल बाद हुआ)। आइएसआइ की भारत के भोलेभाले मुसलमानों पर लंबे समय से नजर थी। उसने मस्जिद विध्वंस से भड़की भावनाओं का इस्तेमाल किया। दस स्थानों पर श्रृंखलाबद्ध विस्फोट और दो जगहों पर ग्रेनेड हमला दिखाता है कि मस्जिद विध्वंस के तीन महीने बाद यह हमला भारत के मुसलमानों ने भावनाओं के क्षणिक आवेग में नहीं किया था। इतने बड़े हमले की तैयारी के लिए यह वक्त बहुत कम है।
पूरे ऑपरेशन को पेशेवराना ढंग से एकदम सटीक अंजाम दिया गया था, उस पर आइएसआइ जैसे सुगठित तंत्र की छाप स्पष्ट दिख रही थी। मस्जिद विध्वंस के फौरन बाद उसने भारत में ऐसे मुस्लिम युवाओं को खोजना शुरू किया जिनको भरमाया जा सकता था और उन्हें बदला लेने के लिए आतंकी कार्रवाई के लिए उकसाया जा सकता था। आइएसआइ ने गुजरात और महाराष्ट्र के तटों पर आठ टन आरडीएक्स भेजा। इसमें से बहुत सा विस्फोटक अभी तक गायब है। पोरबंदर भेजा गया माल अबु सलेम के साथ एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता के पास आया जिसका नाम लेने की मैं जरूरत नहीं समझता। दूसरी खेप महाराष्ट्र के तट, शेखाड़ी, मशासला और रायगढ़ जिले के श्रीवर्धन में आई। इन जगहों से टाइगर मेमन को आरडीएक्स मिला। यह वह जगहें थीं जो अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के कब्जे में रहती थीं। आइएसआइ पहले ही योजना बना चुकी थी कि कितना आरडीएक्स भारत भेजेंगे। बस उन्हें यह तय करना था कि कैसे और कब इसे भेजना है और कौन इसे लेगा। बाबरी के ध्वंस ने वह वक्त तय कर दिया।
उस साल सितंबर के आसपास बाबरी मस्जिद ढहाने के दक्षिणपंथी आंदोलन ने रफ्तार पकड़ ली थी। उसी वक्त आइएसआइ ने तय कर लिया था कि मस्जिद गिराई जाती है तो वे अंडरवर्ल्ड संबंधों को इस्तेमाल करते हुए मुस्लिम युवाओं के जरिए इस आतंकी हमले को अमलीजामा पहना देंगे। टाइगर मेमन के प्रशिक्षित गुर्गों में से एक गुल मोहम्मद को नौ मार्च को गिरफ्तार किया गया था। उसने पुलिस के सामने स्वीकार किया कि कैसे इस योजना को आगे बढ़ाया गया, कैसे उसे दुबई के रास्ते ट्रेनिंग के लिए पाकिस्तान ले जाया गया। इससे जुड़े एक और हमलावर ने बताया था कि दरअसल वे लोग अप्रैल के दूसरे हफ्ते में किसी वक्त शिव जयंती के दिन आठ शहरों में हमला करना चाहते थे।
यह योजना कहीं ज्यादा बड़ी थी, कहीं ज्यादा खतरनाक षडयंत्र था। मैं कल्पना नहीं कर सकता कि वे लोग आठ शहरों में विस्फोट करने में सफल रहे होते तो क्या होता।
मैं क्राइम रिपोर्टर रहा हूं और बंबई अंडरवर्ल्ड के काम करने के ढंग से परिचित भी। आतंकी हमले की योजना कैसे बनी होगी, इस पर मेरी ही खबरें प्रमुखता से आई थीं। मैंने तय किया कि सभी गुप्त सूचनाएं मुझे अपनी किताब में डाल देनी हैं। जब 2000 में ब्लैक फ्राइडे पुस्तक आई तब बमुश्किल ही उस पर ध्यान दिया गया। किताब बहुत छोटे स्तर पर लॉन्च की गई थी। कम लोगों ने इसे नोटिस किया। हो सकता है इसलिए, क्योंकि यह संवेदनशील मुद्दे पर थी और लोग शायद इन मुद्दों को छेड़ना नहीं चाहते थे। आकार पटेल (फिलहाल एमनेस्टी इंटरनेशनल के साथ हैं) उस वक्त मिड डे के संपादक थे, जो तारिक अंसारी चलाते थे। उन दोनों ने यह पुस्तक पढ़ी और उन्हें लगा कि किताब में बहुत सारी नई बातें हैं। तारिक अंसारी ने ही मिड डे मूवीज शुरू की और फिल्म बिजनेस में इस विचार को ले गए।
मिड डे मूवीज के लिए चंद्रमोहन पुप्पाला एसोसिएट प्रोड्यूसर थे। वह ब्लैक फ्राइडे से मिड डे मूवीज की शुरुआत चाहते थे। चंद्रमोहन अनुराग कश्यप को जानते थे। वह पहले ही दो फिल्में बना चुके थे, पांच और गुलाल। लेकिन दोनों ही फिल्में मुश्किल में थीं। चंद्रमोहन और अंसारी का सोचना था, यह किताब उनके रास्ते को आसान कर देगी। अनुराग ने पटकथा लिखी और मैं प्रोडक्शन में करीब से जुड़ा रहा। पटकथा लिखते वक्त वह किताब के प्रति ईमानदार बने रहे। उन्होंने इसकी सामग्री के असर को कहीं भी कम नहीं होने दिया जैसा कई पुस्तकों के लेखक शिकायत करते हैं, जिनकी किताबों पर फिल्में बनती हैं। यहां तक कि अनुराग ने अध्यायों के शीर्षक भी वही रखे जो किताब में थे। मैं रोमांचित था। के.के. मेनन ने विवेकवान पुलिस अधिकारी राकेश मारिया का किरदार निभाया था। बादशाह खान के रूप में आदित्य श्रीवास्तव ने कमाल किया था। इनके अलावा जटिल चरित्र वाले टाइगर मेमन के किरदार में पवन मल्होत्रा शानदार थे। इस भूमिका में उन्होंने अपने अभिनय के कई आयाम दिखाए थे।
इस फिल्म को लेकर आने वाली किसी भी तरह की परेशानी की मैं आशा नहीं कर रहा था। बल्कि हम सब को लग रहा था कि हम देश की सेवा करने जा रहे हैं। फिल्म के जरिए हम सीमा पार के उन लोगों के बारे में बता रहे थे जो हमारे प्रति घृणित सोच रखते थे। हम बता रहे थे कि कैसे वे लोग मुस्लिम समुदाय के हमारे युवाओं को बहका कर आतंक की दुनिया में धकेल रहे हैं। लेकिन 2001 में फिल्म तैयार होने के साथ ही परेशानियां शुरू हो गईं। टेलीविजन पर प्रोमो और ट्रेलर आते ही त्वरित प्रतिक्रियाएं आने लगीं। हमले के एक आरोपी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी कि अभी ट्रायल चल रहा है ऐसे में फिल्म निर्णय पर असर डाल सकती है। उसने अनुरोध किया कि जब तक ट्रायल खत्म न हो जाए फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। मैं समझ ही नहीं पाता कि कैसे देश की न्यायपालिका फिल्म से प्रभावित हो सकती है। खासकर, तब जबकि फिल्म रिलीज के करीब दो साल पहले से किताब जनता के बीच है। मुझे याद है न्यायाधीश एच.एल. गोखले ने सुनवाई के दौरान किताब की तारीफ की थी। उन्होंने किताब पढ़ी थी। किताब में तथ्यों को लेकर कोई विसंगति नहीं थी।
ब्लैक फ्राइडे (2007 में रिलीज) को लेकर दूसरी जगह भी विरोध था। कुछ लोगों का मानना था कि यह एंटी मुस्लिम है। मुस्लिमों को इसमें आतंकी दिखाया गया था जिनकी मंशा भारत की बर्बादी थी। पर मेरा मानना है कि फिल्म संतुलित थी। अनुराग ने यह भी दिखाया था कि गांव में कैसे मुस्लिमों पर अत्याचार होते हैं। कैसे उन पर ऐसे अपराधों का इल्जाम होता है जो उन्होंने किए ही नहीं हैं। फिल्म का मुख्य संदेश बहुत स्पष्ट था। आंख के बदले आंख से यह संसार अंधा हो जाएगा। फिल्म में सिर्फ उस खराब चक्र के बारे में बताया गया था जिसमें-बाबरी मस्जिद का ध्वंस, मुंबई विस्फोट, मुंबई विस्फोट का बदला गुजरात दंगे थे।
फिल्म और मेरी किताब की दूसरी महत्वपूर्ण बात थी, विस्फोट प्रतिरोध या जेहाद नहीं था। यह सिर्फ टाइगर मेमन का निजी प्रतिशोध था। वह अपने समुदाय की गरिमा के लिए यह नहीं कर रहा था। वह अंडरवर्ल्ड ऑपरेशनों के अपने एरिया माहिम में कोली समुदाय के उन मछुआरों से बदला लेना चाहता था जिन्होंने उसकी आपराधिक गतिविधियों से त्रस्त आकर उसके ऑफिस को आग के हवाले कर दिया था। आइएसआइ के हाथों का खिलौना बन कर मेमन ने केवल सीधे-सादे, छोटा-मोटा अपराध करने वालों को अपने स्वार्थ के लिए आतंकी बना दिया।
ब्लैक फ्राइडे के बाद मैंने आठ किताबें लिखीं। लेकिन मेरे लिए अभी भी सबसे बड़ी सराहना यही है कि लोग मुझे ब्लैक फ्राइडे पुस्तक के लेखक के रूप में जानते हैं। यह अनुराग की भी पहली फिल्म थी जो सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई। रिलीज होने के बाद यह कोई बड़ी हिट नहीं थी लेकिन यह एक कल्ट फिल्म बन गई। इस फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय समारोहों में दिखाया गया। स्लमडॉग मिलेनियर के निर्देशक डैनी बॉएल ने कहा था, ‘‘ब्लैक फ्राइडे में पीछा करने वाला दृश्य अब तक का सबसे शानदार सीन है।’’ मैं और अनुराग आज तक इस प्रशंसा से अभिभूत रहते हैं।
(लेखक की नई किताब डेंजरस माइंड्स है, जो भारत के सबसे कुख्यात आतंकवादियों पर है)