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पहाड़ों की तरह अचल संगीत

कई संगीतप्रेमी लच्छीवराम का नाम नहीं जानते, उनकी पहली फिल्मक आरसी ने सिल्वीर जुबली मनाई थी
गजलों का कद्रदानः बिरहन में दिलशाद बेगम की आवाज में कई गजलें थीं

हिमाचल की कुठार रियासत में जन्मे लच्छीराम के पिता राणा जगजीत चंद्र के दरबार में थे। पिता की मृत्‍यु के बाद लच्‍छीराम का लालन-पालन संगीतप्रेमी राणा जगजीत चंद्र ने ही किया। उनके आरंभिक संगीत शिक्षक भी वही थे। बाद में उन्होंने दरबार के उस्‍ताद नूरे खां से शिक्षा ली। लच्‍छीराम दिल्‍ली आए और एच.एम.वी. में नौकरी कर ली। डॉ. नज्‍मी की मशहूर गजल ‘हमसे खताएं होंगी हमसे कसूर होगा’ उनका पहला रिकॉर्ड था। उनके गाए कुछ हिमाचली लोकगीतों के रिकॉर्ड भी निकले। वह दिल्‍ली रेडियो स्‍टेशन पर भी प्रोग्राम देते थे। उनके गाने से ही रेडियो स्‍टेशन पर गाने के प्रोग्राम का मुर्हूत हुआ था। लच्‍छीराम ने गालिब की गजल ‘दिल ही तो है न संगोखिश्‍त’ गाकर खूब प्रशंसा बटोरी थी।

लच्‍छीराम को प्रसिद्ध लेखक-निर्देशक अजीज कश्‍मीरी ने ढूंढ़ा जो शौरी पिक्‍चर्स के प्रतिनिधि के रूप में संगीत-निर्देशक की तलाश में लाहौर से दिल्‍ली आए थे। साढ़े सात सौ रुपये महीने के अनुबंध पर लच्‍छीराम फिल्‍मों में संगीत देने लगे। चंपा में अनुपम घटक के साथ संगीत दिया और बदनामी और शालीमार में संगीत सहायक रहे। स्‍वतंत्र रूप से पहली फिल्‍म आरसी थी, जिसकी ‘क्‍या हमसे पूछते हो किधर जा रहे हैं हम’ और ‘आशियां अपना लुटा अपनी नजर के सामने’ जैसी गजलें लोकप्रिय रहीं। इस फिल्‍म में लच्‍छीराम ने अपनी जन्‍मभूमि के लोकसंगीत पर आधारित ‘तेरे बिना बालम जिया मोरा डोले’ और ‘घनी-घनी छैंया ओ राजा अमवा के पेड़ की’ जैसे गीत कंपोज किए। महिन्‍द्रा पिक्‍चर्स, लाहौर की मोहिनी (1947) में भी लच्‍छीराम ने भाईलाल के साथ संगीत दिया पर यह फिल्‍म नहीं चल पाई। डॉन फिल्‍म्‍स की डायरेक्‍टर (1947) में फतेह अली खान के साथ लच्‍छीराम भी संगीतकार थे पर फिल्‍म को सफलता नहीं मिली।

विभाजन के कारण लच्‍छीराम को लाहौर छोड़ना पड़ा और वे नाहन चले आए। उन्हीं दिनों लाहौर के विस्‍थापित कुछ लोगों ने गुरु दक्षिणा फिल्‍म प्रारंभ की जो 1950 में रिलीज हुई। इस फिल्‍म में भी लच्‍छीराम ने सरशार सैलानी के गीतों की धुन बनाई थी और प्रेमपाल, मास्‍टर मदन, इरा निगम आदि ने स्‍वर दिए। सरशार सैलानी से मित्रता के कारण बंबई का बुलावा आया और नेशनल फिल्‍म प्रोड्यूसर्स, की बिरहन (1948) में सरशार और बेकल के गीतों को संगीत से संवारने का उन्हें अवसर मिला। इस फिल्‍म में ‘आ जा आ जा ओ चांद हमारे,’ ‘टूटे हुए दिल की न सुनो हमसे कहानी’ और ‘मेरे दर्दे-दिल की दुनिया में दवा कोई नहीं’ जैसी दिलशाद बेगम की गाई गजलें और गीत थे। पर उन्हें एक बार फिर सफलता हाथ नहीं लगी।

लच्छीराम को अच्छा ब्रेक रणजीत मूवीटोन की मधुबाला (1950) में मिला। इस फिल्म में ‘ये दुनिया है बेवफाई की, वफा का राज क्या जाने’ (दुर्रानी), ‘अब न जागेगी ये किस्मत सो चुकी’ (आशा), कव्वाली बीट्स पर ‘पूछा मैंने दिल से आपके’ (आशा) और ‘जवानी के जमाने में जो दिल न लगाएगा’ (शमशाद, तलत, साथी) जैसे अच्छे गीत थे। लच्छीराम का संगीत पारंपरिक शैली का ही था जिसमें वाद्ययंत्रों का कम इस्तेमाल और शब्दों को उभारने पर जोर था।

मधुबाला के संगीत से व्यावसायिक फायदा मिल सकता था, पर लच्‍छीराम को टी.बी. हो गया। उनका एक फेफड़ा खराब हो गया। उन्होंने हार नहीं मानी। गीता बाली अभिनीत अमीर (1954) के ‘तुम्हें याद होगा बागे मुहब्बत लगाया था हमने’ (आशा) की गुनगुनाहट-भरी स्वरलहरियों के साथ उन्होंने फिर से संगीत जगत पर दस्‍तक दी। शहीद भगत सिंह (1954) में बिस्मिल के प्रसिद्ध गीत ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ को रफी के स्वर में गवाने का श्रेय भी प्रेम धवन (शहीद) से पहले लच्‍छीराम को मिलेगा। बीमारी की अवस्था में ही शहीद भगत सिंह के अलावा महारानी झांसी (1952) और गुरु घंटाल (1956) का संगीत भी लच्छीराम ने तैयार किया पर महारानी झांसी के आशा के गाए ‘ले लो वीर बहादुर ले लो’ जैसे देशभक्ति गीत या गुरु घंटाल के ‘भीगी भीगी चांदनी में भीगे मेरा दिल’ (आशा) या ‘हम आपके हैं हमसे तो पर्दा न कीजिए’ (रफी, आशा) गीत लोकप्रिय नहीं हुए। यही बात हजार परियां (1959) पर भी लागू हुई।

लच्‍छीराम की विशेषता गजलों की कंपोजीशन थी और 1956 में गाफिल और सरशार की शायराना गजलों और नगमों को उन्होंने दो शहजादे के लिए मुबारक बेगम और आशा के स्वरों में रिकॉर्ड भी किया था। लेकिन अरबी शैली के वाद्य-संयोजन वाली ‘ए गम दिल तेरा यारा’ (मुबारक) ‘धड़कते हुए दिल को’ (मुबारक), ‘जिंदगी के साज पर नगम-ए-बहार गा’ (आशा) जैसी रचनाओं वाली दो शहजादे रिलीज नहीं हो सकी। उनके संगीतबद्ध मुकेश के गाए दो गैर फिल्मी भजन ‘छोड़ झमेला झूठा जग का’ और ‘राम करे सो होय रे मनवा’ लोकप्रिय हुए। एच.एम.वी. द्वारा रिलीज मुकेश के भजनों के एलबम का शीर्षक इसी धुन ‘राम करे सो होय’ पर ही है।

लच्‍छीराम के आखिरी दौर में रजिया सुल्तान (1961) के खमाज थाट में कंपोज, ‘ढलती जाए रात कह ले दिल की बात’ (आशा, रफी) का संगीत  लोकप्रिय हुआ। उनकी सफलतम फिल्म मैं सुहागन हूं (1964) थी। लता के ‘ए दिल मचल मचल के यूं रोता है जार जार क्या’ में लता से ऊंची पट्टी पर उन्होंने खूब गवाया है। हवाइयन गिटार, तबला, वॉयलिन, मैंडोलिन सभी का दिलकश मिश्रण इस गीत में है। राग देस पर आधारित ‘गोरी तेरे नैन काजर बिन कारे’ (आशा,रफी) अद्‍भुत है। आशा की मुरकियां लाजवाब हैं। रफी के ऊंची पट्टी पर गाए ‘सब जवां सब हसीं कोई तुमसा नहीं’ के प्रशंसक आज भी हैं। तलत के स्वर में ‘ये किस मंजिल पर ले आई मेरी बदकिस्मती मुझको’ भी मशहूर रहा। इस फिल्म में लच्‍छीराम ने मुकेश से भी दो पंक्तियां गवाई थीं, जो साउंडट्रैक पर हैं।    

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)

 

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