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कुंद विचारों के दोराहे पर

एक ओर बीमार कट्टरता है तो दूसरी ओर खोखली धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं
कल्पनाः विलियम ब्लेक की पंक्तियों की चित्रकारी,जोब्स एविल ड्रीम्स (1825)

कभी-कभी जाड़ों में जब शाम ढल रही होती है, मैं इस उम्मीद के साथ अखबार या कहें अखबारों का बंडल उठाता हूं कि शायद कहीं कोई आशा की किरण दिखाई दे। लेकिन खबरें इतनी औसत दर्जे की और नीरस हैं कि हैरानी होती है। किसी लीडरशिप समिट के बारे में छपे कोलॉज में नजर पड़ती है तो उसकी फूहड़ता देख सिर भन्‍ना उठता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नेता कहां से हैं, ओबामा हों या अंबानी, हल्की और औसत बातें होती हैं जो मन को नहीं छू पातीं, बल्कि उदासीनता की मूर्छा को गहरा कर देती हैं। मोदी हों या राहुल, यह मूढ़ता का अखाड़ा है, जिसमें राजनैतिक मूर्खता की होड़ में चाय भी चर्चा का विषय बन जाती है। ऐसे माहौल में दो सबसे अलग दिखते हैं। एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती है और दूसरा स्थानीय। पहले पोप हैं और दूसरे थॉमस मैकवान। दोनों धार्मिक व्यक्तित्व हैं, इत्तेफाक से दोनों ईसाई भी। लेकिन ये न तो अध्यात्म की बातें करते हैं और न ही पर्यावरण पर श्री श्री रविशंकर की तरह ढोंग करते हैं। दोनों दृढ़ विचार वाले और सादगी पसंद हैं, ये धर्म का आडंबर नहीं करते हैं, बल्कि इसकी नैतिक चुनौतियों की जिम्मेदारी को गंभीरता से लेते हैं।

पोप विश्व नेताओं में एकमात्र ऐसे हैं जो सीरिया, यमन या रोहिंग्या लोगों की दुर्दशा पर खुलकर बोले। अजनबी के दर्द को महसूस करने के मामले में पोप की छवि  एक मददगार की बनी है। रोहिंग्या लोगों के दुखों पर बात करने के लिए पोप बांग्लादेश और म्यांमार गए। इवांका ट्रंप के साथ हल्ला-गुल्ला करने या राहुल के हिंदू होने पर सवाल उठाने के बजाय जो काम मोदी को करना चाहिए था, वह उन्होंने किया। पोप सिर्फ अपने ईसाई समुदाय को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव जाति को संबोधित कर रहे हैं कि जहां भी दुख और पीड़ा है, वे सबकी जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं। वे न तो बातें बनाते हैं और न ही हल्की बात करते हैं। वे यूरोप से कहते हैं कि नैतिकता को अपने तंग नजरिए से तौलना बंद करे। आंग सांग सू की को याद दिलाते हैं कि वे किस तरह की महिला थीं और हो सकती हैं। वे धर्म के सरल दृष्टांत के जरिए सत्ता की बेपरवाही और संपन्न अर्थव्यवस्थाओं के लालच के बारे में बात करते हैं। वे मोदी, मर्केल या ट्रंप को बौना बना देते हैं। इसके बाद धर्म की ताकत और अर्थ पर किसी टीका-टिप्पणी के लिए भला और क्या पढ़ने की दरकार है। उदाहरण के लिए, उनका कर्म ही उनके संदेश को स्पष्ट कर देता है।

आशाः पोप सीरिया, यमन और रोहिंग्या लोगों के साथ खड़े दिखते हैं

पोप के मुकाबले कुछ हल्की झलक दिखाने वाला, आर्कबिशप मैकवान का अपने समुदाय को लिखा पत्र है। यहां भी एक बिशप धार्मिक दायित्व का निर्वाह करते हुए अपने लोगों को पत्र लिखता है, जो राष्ट्र को संबोधित करने के समान है। मैकवान एक गूढ़ मुद्दा उठाते हैं जो धर्म-दर्शन की गहराई का एहसास दिलाने वाला बहुत बारीक राजनैतिक विमर्श है। मैकवान कहते हैं कि जब बहुसंख्यकवाद को राष्ट्रवाद समझने की गफलत की जाती है, जब आबादी का एक हिस्सा सबको निगल जाने की कोशिश का भद्दा नजारा पेश करता है, तो लोकतंत्र बेमानी हो जाता है। मैकवान का इशारा है कि लोकतंत्र का वास्ता केवल संख्या से ही नहीं, बल्कि बहुलता के अंकगणित से होता है। इसलिए सुडौलपन  के सौंदर्य के लिहाज से यह दलील भी खास मायने रखती है कि अल्पसंख्यकों, हाशिए के लोगों, असहमतियों के लिए खतरा पैदा करने वाले बहुसंख्यकवाद से तो राष्ट्रवादी परियोजना का मर्म ही खो जाएगा। 

राजनैतिक सोचः थॉमस मैकवान के अनुसार बहुसंख्यकवाद जब राष्ट्रवाद पर हावी हो जाए तो प्रजातंत्र गुमराह हो जाता है

ऐसा बहुसंख्यकवादी नजरिया न सिर्फ भद्दा है बल्कि संविधान की परिकल्पना के लिए भी खतरनाक है। मैकवान बताते हैं कि धर्म संविधान को खोखला नहीं करता, बल्कि उसे पुख्ता करता है, गहराई देता है। यह उनकी वैचारिक धर्मनिरपेक्षता का खोखलापन नहीं है क्योंकि वे धर्म में अपनी आस्था और संविधान में विश्वास के बीच रचनात्मक संतुलन कायम करते हैं। यह दो पवित्र शास्‍त्रों के बीच नैतिक संतुलन साधना है जहां बाइबिल और संविधान एक-दूसरे के साथ संतुलन कायम करते हैं, एक-दूसरे की रचनात्मक मतभिन्नता का आदर करते हैं। यह संगम दोनों को ताकत प्रदान करता है और धर्म को खोखला नहीं करता। आखिर सच्चा धर्म भी तो विभिन्न मतों वाले लोकतंत्र और आस्थाओं की बहुलता की चाह रखता है।

ये दो उदाहरण, दो किस्से और दो दृष्टांत हैं जो विचारधारा और धर्मनिरपेक्ष दर्शन के मौजूदा खोखलेपन को चुनौती देते हैं। वास्तव में यहां ऐसे प्रभावहीन दुविधाग्रस्त सोच से सामना होता है, जिसकी समस्याग्रस्त प्रवृत्ति किसी को कमजोर ही करती है। एक तरफ ऐसी कट्टरता है, जो धार्मिक विचारों की दरिद्रता से उपजी है और जिसका मानना है कि एकरूप समाज, एकेश्वरवाद और बहुसंख्यकवाद तथा अतियों में ही सार्थक समाधान निहित है। जैसे-जैसे कट्टरता ने आस्था को तबाह किया, इसने आतंक को विचारधारा के तौर पर स्थापित कर दिया। यह ट्रंप, खुमैनी, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसा कोई भी हो सकता है। कट्टरतावाद ऐसी विशुद्धतावादी गतिविधि है जिसमें धर्म, दर्शन या समुदाय के सिद्धांतों में खिलंदड़ेपन के लिए कोई जगह नहीं है। इसे ऐसे समझिए कि बहुसंख्यकवादी धर्म की आतंकी हरकतें कश्मीर के सूफी केंद्रों को निशाना बनाती हैं। हमारा सामना इस विडंबना से भी होता है कि हिंदू धर्म जो मूलत: सबको साथ जोड़ने वाला है आजकल अपनी सांस्कृतिक परंपरा को छोड़ हिंदुत्व के हाथ में खेल रहा है। पतित आधुनिकता के प्रति अपनी सनक में हिंदुत्व के प्रचारक यह भी भूल गए हैं कि भारत विभिन्न धर्मों का संगम है। हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच टकराव से हमने सिख धर्म खोज लिया। दुनिया को बौद्ध धर्म हमने ही दिया। ईसाई धर्म को हम सेवा के नाम पर जड़ें फैलाने वाले के बजाय भारत में पश्चिम से भी पुराने धर्म के तौर पर देखते हैं। हम इस बात पर भी गर्व करते हैं कि आबादी के लिहाज से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इस्लामी देश हैं। हमारे धर्मों का मिलन हमारी चिकित्सा प्रणालियों का मिलन भी है। संवाद इस देश में जीवन-शैली के बीच रहा है। लेकिन जैसे-जैसे हमारा सामना आस्था के दबंग अवतार यानी कट्टरता से होता है, धर्म की यह समृद्धि भारत को भयभीत करने लगती है।

आज एक ओर हमारे सामने आतंकवादी ताकतें हैं, जो कट्टरता नामक तानाशाही की महामारी का एक रूप हैं तो दूसरी ओर उसके मुकाबले, अास्था की जगह ले रहे कट्टरपंथी उन्माद का रुग्ण खालीपन है। भारत में सेकुलरवाद या धर्मनिरपेक्षता एक स्थूल स्थापना थी जो विज्ञान के भ्रामक इतिहास और ईसाई धर्म के एक क्षेत्रीय टकराव से पैदा हुई। उसने विज्ञान और धर्म के बीच विरोधभास पैदा किया, जो किन्हीं पादरियों की दिमाग की उपज थी, जो इतिहास के एक छोटे दौर का मामला था। दरअसल, सेकुलरवाद प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक के बीच इलाकाई टकराव का स्थानीय समाधान था, जिसका सरलीकरण विश्व के आधुनिक इतिहास के अहम हिस्से के रूप में कर दिया गया। सेकुलरवादी भूल गए कि सारा विज्ञान ब्रह्मांडीय धर्म दर्शन से ही निकला है। ईसाइयत के अलावा किसी धर्म का विकास के सिद्धांत से झगड़ा नहीं रहा। वास्तव में, जिसे वैज्ञानिक सोच कहा जाता है, वह कट्टरता का ही शिशु रूप है, वह सवरनारोला (पुनर्जागरण के दौर में पोप-तंत्र और सेकुलरवाद की लानत-मलामत करने वाला इटली का ईसाई धर्म प्रचारक गिरोलामो सवरनारोला) की धार्मिक विचारधारा की कौतूहलवश की गई नकल थी।

आज बम या बॉयोटेक्नोलॉजी की नैतिक चुनौती का सामना कर रहा विज्ञान नैतिकता के खातिर धर्म के बिना असहाय है। सेकुलर विचार परमाणु हमले, कत्लेआम वगैरह के मामले में धर्म के बगैर निष्प्रभावी लगता है।

लुंजपुंज धर्मनिरपेक्षता आज महज कर्मकांड बनकर रह गई है, जिसका सामना बीमार या पागल कट्टरता से है। ये दोनों ही अवधारणाएं दिमाग पर छा गई हैं और विचारों की बहुलता पर अंकुश लगाने के लिए पहरेदारी कर रही हैं। दोनों धर्म और असहिष्णुता के देह-तंत्र की तरह हैं। दोनों को उम्मीद, प्रेम और लोकतंत्र की जमीन तैयार करने के लिए बहुलवादी धर्म की उर्वरता चाहिए।

वास्तव में, वैज्ञानिक मिजाज का धर्मनिरपेक्ष विचार जो तर्कसंगत समाजों का विचार है, अंधविश्वासों के भंडाफोड़ करने के नाम पर धर्म को खारिज करना चाहता है। विचारधारा के तौर पर विज्ञान का यह एक बहुत बड़ा अंधविश्वास है। पेशेवर वैज्ञानिकों के मुकाबले वैज्ञानिक सिद्धांतकार धर्म के प्रति प्राय: ज्यादा असहिष्णु थे। इस मामले में मेरे दो पसंदीदा उदाहरण विज्ञान से हैं। महान डेनिश भौतिक विज्ञानी नेल्स बोर का वह दिलचस्प किस्सा याद आता है। उनकी प्रयोगशाला के दरवाजे पर घोड़े की नाल लगी थी। लोगों को आश्चर्य होता था कि ऐसा महान वैज्ञानिक इतना अंधविश्वासी कैसे हो सकता है। देखा जाए तो बोर का ऐसा करना पास्कल दलील थी। फ्रेंच दार्शनिक पास्कल से जब किसी ने ईश्वर के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, अगर ईश्वर है तो ठीक है, अगर नहीं है तो उसे मानने से क्या बिगड़ जाएगा।

इस तर्क को दो जासूसी उपन्यासों में अलग तरह से देखा गया है। दोनों महान कृतियां हैं। एक है शर्लक होम्स के लेखक कॉनन डोयल की और दूसरी फादर ब्राउन लिखने वाले जीके चेस्टरटन की। जासूसी उपन्यासों के तर्क को विज्ञान के मॉडल के तौर पर मानते हुए देखा जा सकता है कि अपने विषय के अलावा कोई वैज्ञानिक कभी पूर्ण नहीं होता, उसे किसी और की जरूरत पड़ती है, जो ज्यादा मानवीय और समझदार हो। चेतना और धर्म के सामंजस्य के कारण उस स्तर पर चेस्टरटन का ब्राउन ज्यादा विश्वसनीय लगता है। होम्स की तुलना में चेस्टरटन के फादर ब्राउन को बुराई की ज्यादा सुध है। यह समझ दूसरों के प्रति हमदर्दी रखने की धार्मिक भावना से आती है। अजीब है कि होम्स की तुलना में फादर ब्राउन का रुख धार्मिक पाखंड को लेकर ज्यादा आलोचनात्मक है। वास्तव में, वैज्ञानिक मिजाज वाले हमारे विचारकों को फादर ब्राउन को पढ़ना चाहिए, ताकि समझ सकें कि किसी पद्धति को अंधविश्वास करार देना, अपने आप में अंधविश्वास है।

बहुलतावाद पर चर्चा में हमें स्वीकार करना चाहिए कि कट्टरता की अपनी जगह है। यातना शिविरों में गुजर-बसर और जीवित रहने को लेकर एक लेख याद आता है। लेखक कहता है कि तीन तरह के लोग बचने और शिविर के रोजमर्रा के नियमों में ढलने में माहिर हो जाते हैं। ये लोग किसी आस्था के कट्टर अनुयायी थे। इनमें एक तो रूढ़िवादी, खासकर सेवंथ डे एडवेंटिस्ट थे जो शिविर में अपने जीवन को अपनी आस्था के लिए चुनौती मानते थे। दूसरे खांटी कम्युनिस्ट थे, जो भविष्य में समाज से इंसाफ की उम्मीद लगाए बैठे थे। तीसरा समूह थियोसोफिकल लोगों का था, जिनका अपना नजरिया था।

दो नजरिएः टैगोर बिहार भूकंप पर गांधी की नैतिक व्याख्या से असहमत थे

इससे मुझे एक और कहानी याद आती है, जो विज्ञान और धर्म के बीच विरोधाभास का हमारा अपना उदाहरण है। महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच मतभेद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की सबसे दिलचस्प बहसों में से एक है। बिहार भूकंप के बाद राहत और पुनर्वास के काम को संभालने के लिए राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में गांधी ने स्वयंसेवकों की पूरी टीम भेजी थी। स्वयंसेवकों के समूह द्वारा, खर्च किए गए पाई-पाई का हिसाब रखने के लिहाज से बिहार का भूकंप एक दुर्लभ उदाहरण था। राहत अभियान के बाद गांधी ने बिहार में आए भूकंप को छुआछूत के अपराध की सजा बताया। टैगोर ने इसका प्रतिवाद किया और कहा कि गांधी नैतिकता और भौगोलिक घटना को मिला रहे हैं। नेहरू ने इसे कोरा अवैज्ञानिक बताया। गांधी ने कहा कि उन्हें यह फर्क पता है लेकिन भूकंप की धर्मनिरपेक्ष व्याख्या नैतिक रूप से रचनात्मक नहीं है। धर्मनिरपेक्षता के खाते में कुछ राहत कार्य होंगे, लेकिन उससे कोई नैतिक मानदंडों पर पुनर्विचार को प्रेरित शायद ही हो।

दुर्भाग्य से, यह कहानी बिना अगले संदर्भों के पेश की गई है। सिर्फ विज्ञान और धर्म को अलग-अलग करने का कोई मानी नहीं है। गांधी यह देखना चाहते थे कि सामाजिक पुनर्निर्माण के रचनात्मक कार्य के लिए क्या आश्रम और प्रयोगशाला मिल सकते हैं? आज हमें ठीक यही करने की दरकार है क्योंकि हम आत्मविश्वास से खोखले लुंजपुंज सेकुलरवाद या धर्मांधता और मानसिक उन्माद से ग्रस्त कट्टरतावाद के बीच फंसे हैं। हमें लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए नवीन प्रयोगों और संवाद के नए तरीकों और विविध विचारों की जरूरत है, ताकि विरोधाभासों के बीच हम असहाय न रहें। लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि वह धर्म और विज्ञान को जोड़े, प्रयोग की नई संभावनाओं के लिए नए नैतिक परीक्षणों का ईजाद करे।

 (लेखक समाजशास्‍त्री, वैकल्पिक विचारों की तलाश करने वाले समूह कम्पोस्ट हीप के सदस्य हैं)

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