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सद्भाव का सारथी है धर्म

लेकिन धर्म महज मान्यताओं में बदल गया है, इसलिए आज टकराव और हिंसा का कारण बना हुआ है
प्रतीकात्मक तस्वीर

धर्म का विचार ही इसलिए पैदा हुआ कि मनुष्य को संपूर्ण ब्रह्मांड और जीव जगत से सहअस्तित्व कायम करना संभव जान पड़ा। भौतिक जीवन में जैसे ही उतरते हैं, इसकी प्रकृति ही ऐसी है कि हमारा एक-दूसरे से साबका पड़ता है। यानी मेरा फायदा तुम्हारा घाटा है, तुम्हारा घाटा मेरा फायदा है। यही वास्तविकता है। अगर हमें इस वास्तविकता में जीना है, जहां मेरा फायदा तुम्हारा घाटा है और तुम्हारा फायदा मेरा घाटा है तो जीने का एक ही तरीका बचता है कि एक-दूसरे को नष्ट कर दें। इसलिए, हम जीवन में धर्म को ले आए, ताकि वह हमारे बीच सौहार्द का माध्यम बने। यह उस चिकनाई की तरह है जिससे साथ चल रहे दो अंगों में घर्षण पैदा न हो। 

हर धर्म आध्यात्‍मिक संभावना में विश्वास के साथ शुरू हुआ। धीरे-धीरे, लोगों की संख्या बढ़ने और पीढ़ियां गुजरते जाने से यह ज्यादा संगठित और अत्यधिक विकृत होता गया। जो आध्यात्मिक प्रक्रिया थी, वह नियम-कायदों और कर्मकांडों की प्रक्रिया में बदल गई। मान्यताओं की एक संहिता बन गई जिस पर सिर्फ चलना होता है। और इस तरह धीरे-धीरे उसका मूल अभिप्राय ही खो गया।

आज हम उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जहां धर्म का मतलब टकराव है। जिसे उच्चतम अवस्‍था प्राप्त करने का माध्यम होना चाहिए था, जिसे हमारे भीतर और बाहर के बीच सौहार्द कायम करने का माध्यम होना चाहिए था, वह आज हर तरह के टकराव का औजार बन गया है। यहां तक कि आज धर्म की बात करते हुए बेहद सावधानी बरतनी होती है क्योंकि छोटी से छोटी असावधानी भी समूचे शहर को झुलसा सकती है। धर्म के नाम पर इस धरती पर अनगिनत लोग मारे गए हैं। सबसे विकराल और खौफनाक चीजें धर्म के नाम पर की गई हैं। यह किसी एक धर्म का सवाल नहीं है। जिस इलाके में जिसका दबदबा है, वह वहां यही कर रहा है। पूरी दुनिया में यही हो रहा है।

ऐसा क्यों है, इसलिए कि जिसे अंतर्मन की वस्तु होना था, उसे कुछ मान्यताओं में समेट दिया गया है। जिस पल तुम कुछ मानने लगते हो और यह मान बैठते हो कि तुम्हारी मान्यता सबसे अच्छी है, और कोई दूसरा किसी और बात में यकीन करने लगता है और वह भी मानता है कि उसकी मान्यता तो सबसे ऊपर है, तो टकराव अवश्यंभावी है। तुम दावा करते रह सकते हो, ‘नहीं, नहीं मेरा धर्म शांति का पाठ पढ़ाता है।’ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या सिखाता है। समस्या को सतही तौर पर मत देखें। समस्या की जड़ यह है कि आप ऐसी चीजों में यकीन करने लगते हो, जिसका आपकी जीवंत वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं है। जिस पल आप ऐसी चीज में विश्वास करने लगते हो जिसका आपके जीवंत अनुभव से कोई संबंध नहीं है, उसी पल आप किसी और से, दुनिया में कहीं भी किसी अनजान आदमी से टकराव शुरू कर देते हैं। कब हम एक-दूसरे से सड़क पर टकरा जाएं, कब एक-दूसरे का गला उतारने लगें, यह बस समय और परिस्थिति पर निर्भर होता है।

दुनिया में धर्म नकारात्मक ताकत बन गया है तो इसलिए नहीं कि धार्मिक होने में ही कोई बुराई है, बल्कि वजह यह है कि यह अनुभव नहीं, महज मान्यता भर रह गया है। अगर आपमें यह साफ-साफ कहने की ईमानदारी हो कि “मैं जो जानता हूं, जानता हूं और जो नहीं जानता, वह नहीं जानता हूं” तो आपका किसी व्यक्ति से कोई विवाद नहीं बचेगा। अगर आप कुछ नहीं जानते तो किसी से कोई विवाद नहीं होगा। और अगर आप जानते हो तब भी यकीनन कोई विवाद नहीं होगा। लेकिन, आप धारणा बना लेते हो तो विवाद अपरिहार्य हो जाता है। अगर आप हकीकत की बात करेंगे तो वह सबके लिए एक जैसी होगी। लेकिन, बात जब धारणाओं, मान्यताओं की हो जाती है तो हर किसी की अपनी धारणा है कि क्या सही है और क्या गलत। क्या सत्य है और क्या झूठ। जो दिखता नहीं है और जिसका अनुभव नहीं किया जा सकता, उसमें हम विश्वास करने लगते हैं। इसी वजह से वहां टकराव है।

दुनिया में संघर्ष को अच्छे और बुरे की लड़ाई के तौर पर पेश किया जाता है। आज ही नहीं, बल्कि लंबे समय से इसे धर्म युद्ध, ‘होली वार’ और जेहाद के तौर पर पेश किया जाता रहा है। युद्ध में कुछ भी पवित्र नहीं है, उसमें कोई गौरव नहीं है। संघर्ष कभी अच्छे और बुरे के बीच नहीं होता है। यह हमेशा एक आदमी की मान्यता से दूसरे आदमी की मान्यता के बीच होता है।

जिस भी धर्म का हम अनुसरण करें, मौलिक रूप से वह मानव की मुक्ति के लिए है। सर्वोच्च शिखर से मानव के साक्षात्कार के लिए है, न कि मान्यताओं के इस समूह या उस समूह की पहचान के लिए। लेकिन, धर्म का मतलब अगर केवल इस समूह या उस समूह से हो जाए तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। यह केवल अलगाव, विवाद और लोगों के बीच घृणा पैदा करता है। इन समूहों से लोगों का जुड़ाव नहीं होगा तो कम से कम उनके पास लड़ाई का कोई कारण नहीं होगा। व्यक्तिगत कारणों से कुछ लोगों के बीच लड़ाई अलग मसला है। लेकिन, इतने बड़े पैमाने पर हिंसक ऊर्जा पैदा नहीं होगी। दुर्भाग्य से इंसान के लिए धर्म फिलहाल यही कर रहा है। मेरा मानना है कि मूल समस्या से कभी ठीक तरीके से निपटा ही नहीं गया। लोग हमेशा एक समूह से दूसरे समूह के बीच सुलह कराने की कोशिश करते हैं जो लंबे समय तक कायम नहीं रहता। अधिकांश प्राचीन धर्म हमेशा से विश्वास को ज्यादा महत्व देते हैं। भक्ति या समर्पण को करीब-करीब सभी धर्म बहुत ज्यादा महत्व देते हैं, लेकिन यह समर्पण या भक्ति तभी काम करेगी जब लोग निर्दोष और निश्छल हों। सरलता सभी धर्मों की स्पष्ट जरूरत है। मसलन, जीसस कहते हैं, “परमेश्वर का साम्राज्य छोटे बच्चों के लिए है।” इसका मतलब है कि जो मासूम हैं, वही समर्पण के मार्ग पर चल सकते हैं। बौद्धिक विकास होने पर आप सोचना शुरू कर देते हैं। इस तरह का मस्तिष्क मान्यताओं पर यकीन नहीं करेगा। यह कई तरह से खुद को धोखा देने जैसा होगा।

आज की दुनिया में, हमें धर्म को अंतर्मन से साक्षात्कार के तौर पर बढ़ाना चाहिए, न कि मान्यताओं के तौर पर। योग में हम देखते हैं कि मूल रूप से इनसान बढ़ सकता है। परम प्रकृति, उसे आप जो भी कहते हों ईश्वर या दिव्यशक्ति या सृजन का स्रोत, तक पहुंचने के केवल चार मार्ग हैं। शरीर, मन, भावना और आंतरिक ऊर्जा से परम प्रकृति का अनुभव संभव है। कर्म, गणना, भक्ति और क्रिया केवल चार मार्ग हैं, केवल चार वास्तविकताएं हैं जिसका कोई अनुभव कर सकता है। बाकी सब कल्पनाएं या मान्यताएं हैं। मान्यताएं एक निष्कर्ष हैं, निष्कर्ष से शुरुआत मत क‌रिए। अगर आप जीवन की सच्चाई की तलाश करेंगे तो स्वाभाविक है कि सफल तरीकों की तरफ देखेंगे। इसमें कोई विवाद नहीं हो सकता।

(लेखक ईशा फाउंडेशन के संस्‍थापक हैं)

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