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क्षितिज पर उभरते बदलाव के अक्स

इस साल चुनावी गहमागहमी के बीच अर्थव्यवस्था और समाज के मुद्दे तय करेंगे अगली राजनीति की दिशा
नए साल से हैं कई उम्मीदें

नई शताब्दी की पहली पीढ़ी जब बालिग हो रही है तो देश में भी बदलाव की आहट सुनाई देने लगी है। क्षितिज पर संभावनाओं के बादल घुमड़ने लगे हैं। इस साल राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज में कई तरह की हलचलें उठना लाजिमी हैं। पहले तो जाते-जाते बीता वर्ष खासकर गुजरात चुनावों के जरिए कुछ ऐसा नतीजा दे गया है जिसके बजटीय और राजनैतिक अक्स इस साल दिखने के कयास लगाना गैर-मुनासिब नहीं है। फिर, 2018 ऐसा अनोखा साल होगा जब शुरुआत से अंत तक चुनावों की गहमागहमी ही जारी रहेगी। आखिर आठ राज्यों-मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक (साल के शुरू में) और मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान (साल की आखिरी तिमाही में)-के चुनाव होते ही अगले साल यानी 2019 में आम चुनावों की वेला आ जाएगी। यानी चुनावी राजनीति और किसी चीज के लिए फुर्सत शायद ही दे, खासकर ऐसे माहौल में जब दांव सबसे ऊंचे लगे हों।

लेकिन ऐसी ही गहमागहमी से बदलाव की कोपलें भी फूटती देखी गई हैं। ऐसे ही माहौल में मुद्दे और मसले धारदार बन जाते हैं। अलग-अलग नजरिए उभरते हैं और तथ्यों, आंकड़ों और हकीकत की कई परतें खुलती हैं। मामला सिर्फ राजनीति और सत्ता-संघर्षों का ही नहीं है, अर्थव्यवस्था और समाज भी कई तरह के सवालों से रू-ब-रू है। युवा, स्‍त्री, किसान, छोटे व्यापारी हर ओर एक बेचैनी दिखाई पड़ रही है। इसे चुनावी जीत-हार से अब शायद ही ढंका जा सके। बेरोजगारी, महंगाई और कृषि संकट ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है कि रोजगारविहीन आर्थिक वृद्धि के आंकड़े अब लुभाते नहीं हैं। जीडीपी की दर और अर्थव्यवस्था के बारे में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की रेटिंग में सुधार आश्वस्ति जगाने के बदले गहरे सवाल पैदा कर रहे हैं।

लेकिन इससे भी बढ़कर समाज में हो रही हलचलें हैं। गुजरात चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “जिस जातिवाद के कांटे को निकालने में मेरे जैसे कई कार्यकर्ताओं के कई साल खप गए, उस खतरनाक मंजर को फिर हवा देने की कोशिश की गई।” उनके विपक्षी इसकी व्याख्या कुछ इस तरह करते हैं कि इस बार भाजपा की समाज में एक खास तरह की ध्रुवीकरण की कोशिशें कुछ हद तक नाकाम हुईं तो वह जातिवाद का हल्ला उठा रही है। लेकिन इससे इतर सवाल यह है कि गुजरात में सबसे तीखा विभाजन, चुनावी नतीजों के संदर्भ में, गांव और शहर के बीच दिखा। शहरी इलाके तो फिर भी यथास्थिति या विकल्पहीनता की दुहाई देते लगे मगर गांवों ने तो बदलाव पर ही आस टिकाई। विकल्पहीनता देखना हो तो करीब साढ़े पांच लाख नोटा (कोई नहीं) के बटन पर गिरे वोटों पर गौर करें, जिनके इधर या उधर पड़ने से नतीजे काफी हद तक अलग आते।

अगर हम पाटीदार आंदोलन के हार्दिक पटेल, ओबीसी मोर्चा के अल्पेश ठाकोर और दलित-मुस्लिम एका पर काम कर रहे जिग्नेश मेवाणी की सक्रियता और बातों पर गौर करें तो इसकी एक अलग ही व्याख्या उभरती है। यह व्याख्या हमारे विकास के ढर्रे पर गहरे सवाल खड़ा करती है। गुजरात ही क्यों, पूरे देश में दलित और पिछड़ी जातियां ही नहीं, अब तक ताकतवर और संपन्न मानी जाने वाली जातियां भी संकट महसूस कर रही हैं। अलग-अलग हिस्सों में जाट, कापू, मराठा, गूजर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं। यही नहीं, सवर्ण जातियों की ओर से भी आरक्षण की मांग उठ रही है। तो, इसे जातिवाद कहकर खारिज करना आसान नहीं है। यह उन संकटों की ओर इशारा है, जो नब्बे के दशक में आर्थिक सुधारों से निकले विकास के तौर-तरीकों से पैदा हुए हैं। किसान, मजदूर, समाज के पुराने ताकतवर तबके, छोटे व्यापारी ही नहीं, सरकारी बैंक तक डूबत कर्ज की वजह से खस्ताहाल हैं मगर बड़े उद्योगपतियों की संपत्तियों में लगातार इजाफा हो रहा है।

बेशक, इस सदी के शुरू में मध्यवर्ग को कुछ नौकरियां मिलीं। नए हुनर के लिए शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण भी हुआ और देश में इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कॉलेजों की बाढ़ आ गई लेकिन अब सुनहरा सपना टूट रहा है। नौकरियां भी सिमटीं और थोक भाव में ऐसे निजी संस्थानों के बंद होने की खबरें भी आने लगीं। ऐसे माहौल में 18 वर्ष में प्रवेश कर बालिग हो रही 21वीं सदी की पहली पीढ़ी के सामने हकीकत की नई परतें खुलती दिख रही हैं। 

पिछली सदी के आखिरी दशक में पैदा हुई पीढ़ी भी ऐसी ही हकीकत से मुकाबिल हुई थी, जिसके नजारे 2010-11 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान दिखे थे। उससे राजनीति की फिजा एकबारगी बदल गई थी। मगर उससे विकास की धारा नहीं बदली, बल्कि समाज के ध्रुवीकरण के जरिए एक नई फिजा तैयार हुई, जिसमें अन्ना आंदोलन के दौरान समाज को पारदर्शी बनाने के मुद्दे ही नेपथ्य में चले गए। अब लोकपाल, याराना पूंजीवाद जैसे मुद्दों की बात भी नहीं होती लेकिन उसके दंश डूबत कर्ज से लेकर कई मामलों में दिखते हैं। इन्हीं मुद्दों यानी भ्रष्टाचार और काला धन से निजात दिलाने के लिए नोटबंदी और जीएसटी के उपाय अपनाए गए, जिनके नतीजों पर कई संदेह उभर आए हैं।

ऐसा ही संदेह देश में सामाजिक ध्रुवीकरण की कोशिशों पर भी उभरता है। और जिस पैमाने पर कट्टरता उभरी है, वह कई बार यह एहसास दिलाती है कि मूल मुद्दों से भरमाने की कोशिश है। इसके दो पहलू हैं एक आतंकवाद और दूसरा 'लव जेहाद', गोरक्षा, सांस्कृतिक अपमान के नाम पर हिंसक उच्छृंखलता। समाज में हलचल पैदा कर रहे इन्हीं सब मुद्दों की वजहें जानने की कोशिश हमारे अगले पन्नों में दिखेगी। इसी के साथ साहित्य, फिल्म, खेल में उभरती नई संभावनाओं पर भी एक गहरी दृष्टि मिलेगी।

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