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ठिठुरते गणतंत्र में क्या लौटेगी गर्मजोशी

आशा, निराशा की अनेक संभावना-आशंका लपेटे इस साल की राजनीति तय करेगी 2019 के चुनाव के नतीजे और हमारे गणतंत्र का भविष्य
मूलभावना और मुद्देः संसद में गांधी की मूर्ति

जहां देखो, स्मॉग ही स्मॉग। धुंध और धुंए का यह मनहूस मिश्रण हर रोशनी को रोके हुए है, हर उम्मीद को ढके हुए है। आंखें मिचमिचा रही हैं, फेफड़े भरे हुए हैं, दिमाग भी चकरा रहा है। दिल्ली शहर हर साल का स्वागत धुंध से करता रहा है, भविष्य हमेशा अनिश्चितता भरा रहा है। पिछले कुछ साल से इस धुंध में एक जहरीला धुंआ भी जुड़ गया है। अनिश्चय में आशंका जुड़ गई है। क्या भारत का सपना बचेगा? क्या यह गणतंत्र अपनी बुनियाद पर हो रहे सबसे बड़े हमले को झेल पाएगा?

मैं 2018 की ओर बेताबी से देखता हूं, ताकि मुझे आने वाले भारत की तस्वीर दिख सके। लोकतंत्र का भविष्य दिख सके, संस्थाओं की हालत का पूर्वानुमान लग सके, जनमत का मिजाज पकड़ में आ सके, देश के अंतिम व्यक्ति की जिंदगी की झलक मिल सके। लेकिन ये स्मॉग मुझे रोकता है। बस कुछ झलकियां आंख के सामने तैर कर गायब हो जाती हैं। ज्यादातर तस्वीरें चुनाव की हैं-गुजरात चुनाव में कौन जीता इस पर कुश्ती, कर्नाटक चुनाव के खेल से पहले हिंदू-मुसलमान का खेल, त्रिपुरा में चुनाव से पहले जाति संघर्ष की आशंका और फिर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव की तैयारी। और इन सब चुनावों के जरिए 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी। आने वाले बजट में चुनाव का गणित। सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद केस के जरिए चुनाव की तैयारी, तीन तलाक के कानून से चुनाव का दांवपेंच। पाकिस्तान का बॉर्डर चुनाव का रणक्षेत्र है। टीवी का स्टुडियो भी चुनाव का अखाड़ा। मानो सारा देश साल भर चुनाव का इंतजार कर रहा है। चुनाव में जीत और हार ही हर बात की कसौटी है-सच और झूठ, सही और गलत, सबका फैसला चुनाव से होगा।

झक मारकर मैं पास पड़ी हरिशंकर परसाई की किताब उठा लेता हूं-ठिठुरता हुआ गणतंत्र। कोई चालीस साल पहले लिखी इन पंक्तियों की रोशनी में हमारे समय की छुपी इबारत उभर आती है:

 “... हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रही हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है।”

वैसे कायदे से गणतंत्र को इस साल ठिठुरना नहीं चाहिए था। वैज्ञानिक बताते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते 2017 दुनिया के इतिहास में दूसरा सबसे गरम साल रहा। अपने यहां इस साल ओलावृष्टि नहीं हुई, गर्मी भी ठीक थी। टीवी चैनलों ने भी हीटर का काम किया। उनकी चिल्ल-पों से देश का तापमान एक-दो डिग्री तो बढ़ा ही होगा। विराट कोहली के बल्ले की सनसनी से देश की कंपकंपी घटनी चाहिए थी। फिर भी देश है कि मानता नहीं। साल खत्म होते-होते म्हारे हरियाणा की छोरी मिस वर्ल्ड भी बन गई, फिर भी न जाने क्यों ये कमबख्त गणतंत्र सिकुड़ रहा है। बिहार ही नहीं, इस साल गुजरात और राजस्थान में भी बाढ़ आ गई, लेकिन न जाने क्यों देश में आंखों का पानी उतर रहा है।

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चैनलों के दर्शक बढ़ रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र का दायरा सिमट रहा है। सेंसेक्स की आशातीत छलांग के बावजूद देश की आशा अब खीज में बदल रही है। जादूगर खड़ा है लेकिन तिलस्म टूट रहा है। स्टेज खाली लगने लगा है। तालियां पीटने वाले हाथ अब थक गए हैं। अगले कलाकार का इंतजार हो रहा है।

परसाई जी, हमें एक मचान पर बैठा देते हैं, जहां से बीता हुआ साल गणतंत्र दिवस की झांकी की तरह गुजरता प्रतीत होता है:

“सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहां प्रदर्शित करना चाहिए, जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ।”

मैं 2018 की गणतंत्र दिवस परेड देखने लगता हूं। उत्तर प्रदेश की झांकी में गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का ऑक्सीजन सिलेंडर, मध्य प्रदेश की झांकी में मंदसौर के गोलीकांड का चित्रण, तमिलनाडु की झांकी में जयललिता के शव की आड़ में एक-दूसरे की टांग खींचते विधायक, कर्नाटक की झांकी में बेंगलूरू छोड़ भागते पूर्वोत्तर वासी, रेल मंत्रालय की झांकी में बुलेट ट्रेन की जगह ट्रेन दुर्घटना के दृश्य...यानी पटरी से उतरा गणतंत्र!

परेड में सबसे आगे भाजपा की टुकड़ी मार्चपास्ट करते हुए निकल रही है। भगवा ध्वज छोड़कर एक कोरे कपड़े का तिरंगा पकड़े अमित शाह। उनके पीछे मोदी का मुखौटा पहने पूरी टुकड़ी कदमताल कर रही है। सही है, 2017 कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी के वर्चस्व के विस्तार का साल रहा। साल की शुरुआत ही में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित विजय हासिल की। उत्तराखंड में भी कांग्रेस को अपदस्थ किया। साल बीतते-बीतते भाजपा ने हिमाचल में भी सत्ता हथिया ली और गुजरात में किसी तरह अपनी सरकार बचा ली। राजनैतिक पैंतरेबाजी में भी भाजपा ने विपक्षियों को चित किया। गोवा और मणिपुर में चुनाव तो नहीं जीता, लेकिन सरकार बना ली। तमिलनाडु में अप्रासंगिक होने के बावजूद अपनी पसंद के धड़े को सत्ता पर काबिज करवाया। पिछले साल बिहार में भाजपा को पटकनी देने वाले नीतीश कुमार चुपचाप से भाजपा की गोदी में बैठने को मजबूर हुए। आने वाले साल में भाजपा के इस वर्चस्व का मुकाबला कैसे होगा? एक बात तो तय है कि भाजपा विरोधी महागठबंधन बनेगा। लेकिन क्या यह गठबंधन जनता के सामने कोई नया सपना रख पाएगा, या बस भानुमती का कुनबा साबित होगा?

बेशक, देश के उन्नीस राज्यों में सरकार पर काबिज भाजपा आज भी इंदिरा या राजीव गांधी के जमाने की कांग्रेस जितनी लोकप्रिय नहीं हुई है। गुजरात के चुनाव में उसकी अपराजेयता का दंभ भी टूटने लगा है। प्रधानमंत्री से जनता का मोहभंग शुरू हो गया है। फिर भी इतना तो निर्विवाद है कि मोदी-शाह की भाजपा अब तक की सबसे ताकतवर चुनावी मशीन है। इतनी ताकतवर कि इसके सामने विरोधी भयभीत हैं और मीडिया नतमस्तक। चुनाव आयोग भी यदा-कदा हाजिरी बजाता नजर आता है। सोचने लगा इसे क्या कहें-बिछा हुआ गणतंत्र?

इस टुकड़ी के ठीक पीछे एक हुजूम चला आ रहा था। सामने गणवेशधारी भगवा ध्वज उठाए हुए था। लेकिन पीछे अलग-अलग लिबास में कोई झंडा उठाए था तो कोई डंडा, किसी के हाथ तलवार थी तो किसी के हाथ पत्थर, कुछ ट्रक पर डीजे लगा डांस कर रहे थे तो कुछ मोटर साइकिल पर हेलमेट पहने पिस्तौल लेकर चल रहे थे। तलवार की नोक से कोई तस्वीर लटक रही थी जिसे मैं देख नहीं पाया, शायद देखना चाहता नहीं था, कहीं गौरी लंकेश की तस्वीर तो नहीं थी? या फिर जुनैद या पहलू या अफराजुल। बस इतना देख पाया कि जब हुजूम चला गया तो पीछे सड़क पर खून के धब्बे पड़े थे। कुछ वर्दीधारी जल्दी-जल्दी उन धब्बों को साफ कर रहे थे। कैमरों ने अपना मुंह दूसरी तरफ मोड़ लिया था। इसे क्या कहें-सिहरता गणतंत्र? क्या आने वाले साल में यह सिहरन घटेगी? या चुनाव की तैयारी में यह हुजूम काम आएगा?

मेरे मन में हरिशंकर परसाई के लेख आवारा भीड़ के खतरे की पंक्तियां गूंज रही थीं:

 “दिशाहीन, बेकार, हताश, विध्वंसवादी युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इसका उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे। इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।”

शायद इस माहौल को हल्का करने के लिए वित्त मंत्रालय की एक झांकी आ रही थी। यह झांकी आंकड़ों की बाजीगरी दिखाती थी। 2016 में नोटबंदी के बाद से रिजर्व बैंक ने नित-नए नियम बनाने की विलक्षण क्षमता दिखाई थी। इस साल देश ने नोटबंदी के वादों और दावों का जिमनास्टिक देखा। यह तो तय था कि नोटबंदी से देश का कल्याण होना है। लेकिन कल्याण किसका हुआ, कैसे हुआ और कितना हुआ, इसके नित-नए तर्कों का आविष्कार कर सरकार ने पूरी दुनिया के सामने भारतीय तर्क क्षमता की मिसाल पेश की। लेकिन असली बाजीगरी वित्त मंत्रालय नहीं, स्वयं प्रधानमंत्री ने दिखाई। उनकी वाकपटुता का चमत्कार ही था कि नोटबंदी के शिकार गरीब, असंगठित क्षेत्र के मजदूर, रेहड़ी और खोमचे वाले सब लाइन में खड़े नोटबंदी के समर्थन में तालियां बजा रहे थे। मैं कहीं नेपथ्य में हरिशंकर परसाई की आवाज सुन रहा था:

 “जनता को सचमुच कुछ नहीं चाहिए। उसे जादू के खेल चाहिए। ... जनता की अंदरूनी हालात क्या है? वह क्यों जादू से इतनी प्रभावित है? वह क्यों चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो राशन की दुकान पर लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता, वह लाइन छोड़कर जादू के खेल देखने क्यों खड़ी रहती है?”

लेख का शीर्षक याद आया भारत को चाहिए जादूगर और साधु। 2017 इनके भंडाफोड़ का साल भी था। गुरमीत सिंह उर्फ ‘राम रहीम’ की करतूतों से धर्म के पाखंड के साथ-साथ नेताओं और बाबाओं के गठबंधन पर भी जनता का ध्यान गया। साल बीतते-बीतते नोटबंदी का सम्मोहन भी उतर चुका था। पिछले कुछ महीनों के सभी जनमत सर्वेक्षणों से यह जाहिर है कि जनता नोटबंदी से अब आजिज आ चुकी है। कुछ तो रिजर्व बैंक के आंकड़ों से पोल खुल गई। और कुछ लोगों को अपने अनुभव से दिखने लगा है कि कालेधन और भ्रष्टाचार को रोकने के दावे हवाई थे। इसीलिए जीएसटी के तमाम गाजे-बाजे के बावजूद उसे शक की निगाह से देखा गया। शायद इसीलिए आर्थिक वृद्धि में गिरावट के आंकड़े पर यकीन तो हुआ पर उससे उबरने की बात से आशा का संचार नहीं हुआ। इस झांकी का शीर्षक होना चाहिए था-ठगा हुआ गणतंत्र। 2018 में ज्यादा बाजीगरी आर्थिक विकास, महंगाई और बेरोजगारी के आंकड़ों के इर्द-गिर्द होगी।

उसके पीछे कृषि मंत्रालय की झांकी चली आ रही थी। लगता था इस झांकी को किसानों ने हाईजैक कर लिया था। तमिलनाडु के किसान लगभग निर्वस्‍त्र खड़े थे। उत्तर प्रदेश के किसान बोरियों से निकाल आलू फेंक रहे थे। महाराष्ट्र के किसान दूध बहा रहे थे। आंध्र के किसान मिर्ची जला रहे थे। कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी के आंकड़े दर्शाता हुआ सरकारी बोर्ड चुपचाप से कोने में खड़ा था। मंदसौर गोलीकांड में शहीद हुए छह किसानों की तस्वीरें उसे ढक रही थीं। किसी ने ‘लुटा-पिटा गणतंत्र’ की तख्ती टांग दी थी।

2017 किसानों की आस टूटने का वर्ष था। दो साल सूखे की मार झेलने के बाद अधिकांश हिस्सों में अच्छी बारिश हुई थी, दोनों फसलें भी अच्छी हुईं। किसानों ने दो साल इंतजार करने के बाद शादी, इलाज या खरीद की योजना बनाई थी लेकिन मंडी में फसल के दाम गिर गए। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की घोषणा करती रही, लेकिन एक भी फसल में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल नहीं हुआ। सिर्फ खरीफ की मुख्य आठ फसलों में किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की तुलना में 37,000 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। 2017 प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का पहला साल भी था। और इसमें वही हुआ जिसका डर था, किसान के खाते से प्रीमियम तो ले लिया गया, लेकिन जहां क्लेम मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। प्राइवेट बीमा कंपनियों ने जमकर मुनाफा कूटा। आने वाले साल में भी यही सिलसिला जारी रहेगा। किसानों को खूब डायलॉग और घोषणाएं मिलेंगी। कोई हैरानी नहीं होगी, बजट उन्हीं के नाम समर्पित कर दिया जाए। उन्हें जो नहीं मिलेगा, वह है अपनी फसल का पूरा दाम और पर्याप्त आमदनी।

मेरा मन इस झांकी से दूर उस हिंदुस्तान की झांकी में चला गया, जो मैं पिछले ढाई साल से देख रहा हूं। इस दौरान गांव-देहात में यात्राओं का दौर चलाया है। खास तौर पर पिछले छह महीने में ‘किसान मुक्ति यात्रा’ के तहत बाकी साथियों के संग पूरे देश की खाक छानी है। पहली यात्रा छह जुलाई से 18 जुलाई तक हुई। मध्य प्रदेश के मंदसौर से शुरू हुई यह यात्रा महाराष्ट्र, गुजरात और पूर्वी राजस्थान होती हुई तथा उत्तर प्रदेश और हरियाणा को छूती हुई दिल्ली पहुंची। दूसरी यात्रा 16 सितंबर को हैदराबाद से शुरू होकर तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक होती हुई बेंगलूरू में 23 सितंबर को समाप्त हुई। तीसरी यात्रा गांधी जयंती पर चंपारण में भितरवा आश्रम से शुरू हुई और बिहार के एक छोर से निकलकर उत्तर प्रदेश में घूमती हुई, उत्तराखंड को छूती हुई 11 अक्टूबर को गजरौला में समाप्त हुई। चौथी यात्रा 28 नवंबर को कोलकाता के निकट भांगड़ से शुरू हुई और बाद में ओडिशा, झारखंड और बिहार होती हुई पांच नवंबर को मुजफ्फरपुर में समाप्त हुई। कुल मिलाकर 16 राज्य, दस हजार किलोमीटर, सैंकड़ों छोटी-बड़ी सभाएं, अनगिनत चेहरे, सैकड़ों सभाओं में हाथ हिलाते हुए जिस हिंदुस्तान की झांकी देखी थी, वह गणतंत्र दिवस की इस झांकी में अदृश्य क्यों है? 2018 की तस्वीर में भी वे दिखाई नहीं दे रहे थे।

वे तो नहीं दिखे, इतने में सूचना-प्रसारण मंत्रालय की झांकी जरूर आ गई। लेकिन ये क्या, उस झांकी में न दूरदर्शन था, न आकाशवाणी, न ही भारत सरकार का प्रकाशन विभाग! बड़े-बड़े स्क्रीन पर खबरिया चैनलों के चीखते हुए एंकर थे। प्रकाशन विभाग की जगह अखबार थे। सब के सब चारण परंपरा को समृद्ध करते हुए कुर्सी की वंदना में लगे थे। कोई योगी आदित्यनाथ के नाश्ते के बखान कर रहा था, तो कोई अमित शाह की सादगी और कर्तव्यपरायणता का। बाकी सब प्रधानसेवक की फोटो लेने में जुटे थे। भजन और स्तुति से आगे बढ़कर हमारा स्वतंत्र मीडिया कड़े सवाल भी पूछ रहा था, लेकिन सिर्फ विपक्ष से। तालियां पिट रही थीं, टीआरपी बढ़ रही थी, विज्ञापन झर रहे थे। फिर मुझे परसाई की बात याद आई-“जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसें और ताली पीटें, उसमें क्या कभी कोई क्रांतिकारी हो सकता है। शायद हां, पर तभी होगा, जब शर्म पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबड़े टूटेंगे।” हाथ काटने या जबड़े तोड़ने की हिम्मत तो नहीं थी, मैंने बस इस झांकी के पीछे लिख दिया-गूंगा गणतंत्र।

शायद मेरे मूड को देखकर एक और झांकी चल रही थी। चारों तरफ काले कपड़े से ढकी, न कोई शोर-शराबा, न कोई हरकत। मैंने झांका तो उसमें बंद फाइलें पड़ी थीं। बिड़ला और सहारा डायरी के पन्नों की फाइल, कलिखो पुल द्वारा आत्महत्या से पहले लिखी 60 पेज की चिट्ठी, रद्दी में जाने को तैयार 2जी मामले की सैकड़ों फाइलें। दूसरी तरफ कुछ फाइलों को डब्बों में सीलबंद कर रखा गया था। मैंने अनुमान लगाया कि इनमें ऐसे संवेदनशील मामले होंगे, जिनके खुलने से कई राज उघड़ सकते हैं, मसलन, अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी के बेमिसाल मुनाफे या फ्रांस से राफेल विमान सौदे जैसी फाइलें हो सकती हैं। इस झांकी पर कुछ भी लिखा नहीं था, मेरा मन किया इस पर ‘डब्बा गणतंत्र’ लिख दूं।

2017 संवैधानिक संस्थाओं के डब्बाकरण का साल था। इस पतन की शुरुआत कांग्रेस के राज में हो चुकी थी। सीबीआइ पिंजराबंद तोता बन चुकी थी, विश्वविद्यालय सरकार के इशारे पर नाच रहे थे, चुनाव आयोग में भी दरबारियों की नियुक्ति हुई थी। फिर भी आंख की शर्म बची थी। कोर्ट-कचहरी, कैग या चुनाव आयोग बीच-बीच में सरकार का हुक्म बजाने से इनकार कर देते थे। इस राज में रही-सही शर्म भी जाती रही। विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं के शीर्ष पर जिन्हें बैठाया जा रहा है, उन पर किसी भी किस्म की वाम या दक्षिण, आधुनिक या परंपरागत बौद्धिकता का आरोप नहीं लग सकता। उन्हें थानेदार या ठेकेदार ही कहा जा सकता है। सतर्कता आयोग और सीबीआइ जैसी संस्थाओं में, जहां चौकीदार की जरूरत है, वहां नियुक्तियों में सब लाज-हया को छोड़कर वफादारों को नियुक्त किया गया। चुनाव आयोग में भी वफादार अफसरों की नियुक्ति के परिणाम सामने आने लगे। शेषन के बाद से कभी भी चुनाव आयोग सरकार और सरकारी पार्टी के साथ इतना खड़ा दिखाई नहीं दिया, जितना इस साल। चुनाव आयोग की गिरती छवि के चलते ईवीएम में गड़बड़ी जैसे आधारहीन आरोप को भी हवा मिली। लेकिन इस साल जिस संस्था ने सबसे निराश किया, वह था सुप्रीम कोर्ट। बिड़ला-सहारा मामले में अपने ही जैन हवाला मानदंडों को पलटना, कलिखो पुल मामले में जांच को रोकना, या अचानक बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले को दरकिनार कर उस जमीन की मिलकियत के मामले को उठाना-इन सब में सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की अंतिम उम्मीद बांधे लोगों को बुरी तरह निराश किया। 2018 में इस उम्मीद को बांधना एक बार फिर निराश होना होगा।

अच्छा हुआ परेड में विदेश मंत्रालय की झांकी नहीं थी। होती तो क्या दिखाती? रोहिंग्या मामले पर आंख पर पट्टी बांधे भारत मां की मूर्ति? डोकलाम में चीन से पंगा लेकर जीत के दावे के बाद अब चुपचाप चीनी पुनरागमन को देखने के लिए मजबूर भारतीय सेना? या फिर नेपाल में अपनी दखल के कारण वहां की जनता में बदनाम और अब नई सरकार की बेरुखी और चीन के आभामंडल के विस्तार को झेलता भारतीय दूतावास? वैसे भारत सरकार को ही दोष क्यों दें, इस वक्त पूरी दुनिया का दिलो-दिमाग सिकुड़ रहा है। जहां दुनिया का सबसे ताकतवर राष्ट्रपति झूठ बोलता है, वहां हम ही ‘सत्यमेव जयते’ से क्यों चिपके रहें? जहां आंग-सांग सू-की जैसी सच की मूर्ति ढह गई, वहां हमारे मिट्टी के माधो के मिट्टी में मिलने का क्या मातम मनाएं? जहां यूरोपीय संघ बिखर रहा है, स्पेन टूट रहा है, वहां हिंदुस्तान-पाकिस्तान की तंगदिली की भला क्या शिकायत करें?

सब झांकियां गुजर जाने के बाद कांग्रेस की टुकड़ी भी दिखाई पड़ी। इस बार उसकी अगुआई सोनिया गांधी नहीं, राहुल गांधी कर रहे थे। ‘132 साल पुरानी पार्टी’ का बैनर उठाये इस टुकड़ी के कई सिपाही वाकई 132 साल के लग रहे थे। बेशक, साल खत्म होते-होते गुजरात में कांग्रेस ने थोड़ी चुस्ती दिखाई थी। कम से कम वहां कांग्रेसी एक-दूसरे से कुश्ती करने के बजाय भाजपा से कुश्ती करते नजर आए थे। कांग्रेस इसी उपलब्धि से आत्ममुग्ध है। शायद इस पार्टी में कोई पूछने वाला नहीं है कि गुजरात में जनता के इतने असंतोष के वाबजूद वहां कांग्रेस चुनाव जीतने में सफल क्यों नहीं रही। कोई कहने वाला नहीं है कि सेकुलरवाद का दावा करने वाली पार्टी अपने नेता के मंदिर परिक्रमा और उसके जनेऊधारी होने की डुगडुगी कैसे पीट सकती है? पार्टी को कर्नाटक और बाकी राज्यों में चुनाव की चिंता जरूर है। बेशक, कर्नाटक और राजस्थान में कांग्रेस की स्थिति दूसरे राज्यों से बेहतर है। लेकिन क्या इसके सहारे भाजपा का 2019 में मुकाबला किया जा सकेगा?

परेड के अंत में एक और छोटी लेकिन चुस्त-सी टुकड़ी चल रही थी। यह संसदीय विपक्ष नहीं, बल्कि सड़क पर खड़े विपक्ष की टुकड़ी थी। इसमें देश के 187 किसान संगठन थे, जो पहली बार कदम से कदम मिलाकर चलते दिखाई दिए। इस जत्थे के शीर्ष में एक महिला किसान चल रही थी, साथ में कई युवा किसान नेता भी दिखे। साथ ही साथ छात्र और युवा संगठनों की टोली भी चल रही थी। इन दोनों को चुनाव और राजनीति से परहेज नहीं है, लेकिन इनका प्रतिरोध सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं है। मुझे परेड के आखिर में 2018 की एक सकारात्मक झलक दिखाई दी। पिछले साल भर में देश में प्रतिरोध की आवाज संसद में नहीं, सड़क पर उठी है। इस साल भी सत्ता को घेरा जाएगा तो किसान आंदोलन और युवाओं के प्रतिरोध के माध्यम से। सवाल यह है कि क्या 2018 में किसानी के संकट और बेरोजगारी के सवाल को प्रभावी और संगठित तरीके से उठाया जाएगा, या सत्ता और विपक्ष के खेल में सिमट जाएगा? यही 2018 की राजनीति तय करेगा, 2019 के चुनाव का परिणाम तय करेगा और हमारे गणतंत्र का भविष्य भी।

परेड खत्म हो गई थी। स्मॉग भी छंटने लगा था। बहुत दूर तक तो नहीं दिख रहा था, लेकिन अपना रास्ता समझ आने लगा था।

(लेखक स्वराज इंडिया के अध्यक्ष और स्वराज अभियान तथा जय किसान आंदोलन से जुड़े हैं)

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