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सीमित होते विकल्प तेज ग्रोथ की बड़ी चुनौती

लगातार चुनावों के मद्देनजर एनडीए सरकार को अपने आखिरी पूर्ण बजट में लोकलुभावन उपायों पर जोर देना होगा मगर मौजूदा वित्तीय हालत उसे बड़े सरकारी खर्च की मोहलत शायद ही दे
आर्थिक मोर्चाः शेयर बाजार से सरकार को सकारात्मक रुख जरूर मिला है पर वह नाकाफी

एक दशक के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्था 2018 में सबसे तेज वृद्धि दर हासिल करेगी। यह आकलन इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड (आइएमएफ) का है। प्रतिष्ठित मैगजीन इकोनॉमिस्ट का मानना है कि 2018 में भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली इकोनॉमी के तमगे को हासिल कर लेगा। हालांकि पिछले साल हमने यह तमगा गंवा दिया था। लगातार कमजोर होती विकास दर कई साल के निचले स्तर पर पहुंच गई थी। चालू वित्त वर्ष (2017-18) की पहली तिमाही में यह 5.8 फीसदी थी लेकिन सितंबर, 2017 में समाप्त तिमाही में यह 6.3 फीसदी रही। माना जा रहा है कि आर्थिक सुस्ती ने नीचे का स्तर छू लिया है और अब यह ऊपर की ओर ही जाएगी। इकोनॉमी को बड़ा झटका नवंबर, 2016 के नोटबंदी के फैसले का लगा और उसके बाद जुलाई, 2017 में लागू किए गए वस्तु तथा सेवा कर (जीएसटी) ने उथल-पुथल मचा दी। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा दिखाई गई उम्मीदों के बावजूद 2018 का साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार की आर्थिक मोर्चे पर कड़ी परीक्षा लेने जा रहा है।

असल में राजनीति, फिस्कल और मॉनेटरी पॉलिसी तीन ऐसे मसले हैं जहां सरकार के हाथ इस साल उतने खुले नहीं हैं जितने पिछले साल थे। फिर, अच्छे प्रदर्शन का दबाव बहुत अधिक है।

असल में नोटबंदी लागू होने के बाद अर्थव्यवस्था में एक बड़ा भूचाल आ गया था। लेकिन जिस तरह लोगों ने कष्ट सहने के बावजूद उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को 403 सीटों में से 325 सीटों का भारी बहुमत दिया, उससे यह माना गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले पर जनता ने मुहर लगा दी है। इन नतीजों ने मोदी सरकार को दूसरा बड़ा आर्थिक फैसला जीएसटी लागू करने का आत्मविश्वास दिया।

हालांकि जीएसटी लागू करने की प्रक्रिया बहुत सरल नहीं रही और कारोबारी हलकों में इसका भारी विरोध हुआ। नतीजतन, सरकार को बड़े पैमाने पर कर दरों में कटौती से लेकर नियमों में कई बड़े बदलाव करने पड़े। जीएसटी के विरोध को परखने का पैमाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव बन गए। वहां  दिलचस्प नतीजों ने सरकार की स्थिति को बहुत कमजोर कर दिया है। भले ही गुजरात के कारोबारी केंद्रों में भाजपा को अधिकांश सीटें मिलीं और उनके बूते ही वह वहां सत्ता पर काबिज रहने में कामयाब हो पाई। लेकिन ग्रामीण इलाकों में उसे शिकस्त मिली, वह कई सारे सवाल खड़े कर गई। जिस पार्टी को उत्तर प्रदेश में 403 में से 325 सीटें मिलीं वह प्रधानमंत्री के गृह राज्य में 182 में से 99 सीटें जीतकर साधारण बहुमत से सत्ता में आई तो इसके मायने राजनीतिक के बजाय आर्थिक अधिक हैं।

असल में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र की स्थिति सुधर नहीं रही है और वहां नाराजगी बढ़ रही है। गुजरात के नतीजे शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच बढ़ती खाई और किसानों के लगातार कमजोर आर्थिक हालात बने रहने का परिणाम हैं। कृषि उत्पादों की कीमतें लगातार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम बनी हुई हैं और कई राज्यों में कर्जमाफी के बावजूद उनकी स्थिति सुधर नहीं रही है। किसानों को फसल लागत पर 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर दाम देने का भाजपा का चुनावी वादा था जो सरकार के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है। देश भर में इसके चलते किसान आंदोलन खड़े हुए हैं। ऐसे में सरकार 2018 के बजट में किसान को खुश करने की कोशिश पर ध्यान केंद्रित करेगी।

राजनीतिक रूप से यह साल काफी हलचल भरा रहेगा और देश में 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए माहौल तय करेगा। 2018 में आठ राज्‍यों में चुनाव होने हैं। ऐसे में सरकार पर दबाव होगा कि वह लोकलुभावन फैसले ले और यह सरकारी खर्च में बढ़ोतरी से ही संभव है। ऐसे में जो सरकार 2017 में सख्त फैसले ले सकती थी, वह 2018 में उतने सख्त फैसले नहीं ले सकेगी। यह मोदी सरकार का अंतिम पूर्ण बजट होगा। ऐसे में बजट के जरिए चुनावी वादों को पूरा करने, लोगों की नाराजगी दूर करने और उनको लुभाने का यह आखिरी मौका बचा है।

लेकिन फिस्कल मोर्चे की मौजूदा हालत के मद्देनजर सरकार के पास अधिक पैसा खर्च करने के विकल्प ज्यादा नहीं हैं। जीएसटी लागू करने के बाद राजस्व संग्रह में तेजी के बजाय स्थिरता या गिरावट दिख रही है। जीएसटी दरों में और अधिक कटौती की जा सकती है जो कर संग्रह में कमी लाएगी। जीएसटी से राज्यों के कर संग्रह में होने वाली कमी की केंद्र को पांच साल तक शत-प्रतिशत भरपाई करनी है। फिर जीएसटी के तीन मुख्य कंपोनेंट ई-वे बिल, इनवॉइस मैचिंग और रिवर्स मैकेनिज्म अभी लागू नहीं हो सके हैं। इसके चलते राजस्व संग्रह के मोर्चे पर अनिश्चितता काफी अधिक है।

मोदी सरकार के शुरुआती साल में कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी ने डीजल और पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाकर सरकार को अतिरिक्‍त राजस्व जुटाने का मौका दिया था, जो सालाना 1.60 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। अब आयातित कच्चे तेल के दाम 60 डॉलर प्रति बैरल का औसत पार कर गए हैं। 2018 में उनके बढ़ने की संभावना ज्यादा है।

अब बात ब्याज दरों की। घटती महंगाई ने 2017 में ब्याज दरों को कई साल के निचले स्तर पर ला दिया था। पॉलिसी रेट छह फीसदी पर पहुंच गए थे। लेकिन नवंबर, 2017 में महंगाई दर 15 माह के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे हैं। ऐसे में रिजर्व बैंक की ब्याज दरों में कटौती की संभावना लगभग समाप्त हो गई है। वैश्विक स्तर पर ब्याज दरों में बढ़ोतरी का दौर शुरू होने से सस्ते कर्ज की संभावना नहीं रहेगी। यानी अर्थव्यवस्था में तेजी लाने का एक उपाय हाथ से फिसल गया है। वैसे भी निजी निवेश बढ़ नहीं रहा है और औद्योगिक गतिविधियों के लिए कर्ज का स्तर अभी भी निगेटिव ही बना हुआ है। यानी निजी क्षेत्र क्षमता बढ़ोतरी के लिए कर्ज नहीं ले रहा है। हालांकि बैंकरप्सी एंड इनसाल्वेंसी कोड लागू होने से बैंकों के एनपीए का संकट कुछ कम होता दिखेगा। बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के सरकार के मेगा प्लान से कर्ज देने की क्षमता बढ़ सकती है।

यहां घरेलू अर्थव्यवस्था के पक्ष में एक बात जरूर जाती है और वह है निर्यात की बेहतर होती संभावना। आइएमएफ ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2018 के लिए 3.7 फीसदी और विश्व व्यापार की वृद्धि दर चार फीसदी रहने का अनुमान लगाया है, जो भारत के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। वैसे नवंबर में निर्यात दो अंकों में बढ़ा है जो एक अच्छी खबर है। लेकिन सात फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर के लिए 35 फीसदी निवेश स्तर की जरूरत है जो अभी 29 फीसदी पर अटका है।

2018 की इकोनॉमी में एक बड़ी बात होगी कई क्षेत्रों का अनौपचारिक से औपचारिक क्षेत्र में तब्दील होने की गति का बढ़ना। जीएसटी और नोटबंदी का यह एक बड़ा असर होगा। लेकिन इस संक्रमण काल में बड़े पैमाने पर रोजगार के मौकों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

सरकार के लिए सबसे ज्यादा सुकून शेयर बाजार लेकर आ रहा है। यह लगातार मजबूत बना हुआ है लेकिन इसके पीछे सबसे बड़ी ताकत म्यूचुअल फंडों के जरिए हो रहा निवेश है। फिक्स डिपाजिट, सोना और रियल एस्टेट जैसे निवेश विकल्पों के कमजोर पड़ने के चलते अप्रैल से नवंबर, 2017 के दौरान मार्केट में म्यूचुअल फंड निवेश एक लाख दस हजार करोड़ रुपये को पार कर गया है। हालांकि स्टाक मार्केट लिस्टेड कंपनियों के आधार पर चलता है और फार्मल होती इकोनॉमी में फायदा लिस्टेड कंपनियों को ही अधिक होने वाला है।

इन परिस्थितियों में लगता है कि 2018 इकोनॉमिक रिकवरी की राह तो तैयार करेगा लेकिन सही नतीजों के लिए 2019 का इंतजार करना पड़ सकता है। ऐसे में अब यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि सरकार कौन-सा फार्मूला लेकर आती है जो 2018 में अर्थव्यवस्था को गति दे सके और राजनीतिक झटकों को भी झेल सके।

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