अगले लोकसभा चुनाव से पहले का क्वार्टर फाइनल कहे जानेवाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनावी नतीजों की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जा सकती है। लेकिन, इतना तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि नतीजों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व में भाजपा के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के राजनैतिक मिशन को एक कदम और आगे बढ़ाया है। गुजरात तो पिछले 22 वर्षों से भाजपा के पास ही था, लेकिन 1985 से ही प्रत्येक पांच साल बाद सरकार बदलने के लिए मशहूर हिमाचल प्रदेश में जीत के बाद भाजपा के नेतृत्ववाला एनडीए डेढ़ दर्जन राज्यों में सत्तारूढ़ हो चुका है। एक और राज्य के झोली से निकल जाने के बाद कांग्रेस शासित राज्यों की संख्या अब पांच रह गई है। इसमें केंद्र शासित पुदुच्चेरी भी शामिल है।
इस लिहाज से भाजपा के लिए जश्न मनाने के कारण तो बनते हैं, लेकिन ये नतीजे भाजपा और कांग्रेस को आत्म विश्लेषण की सीख भी देते हैं। हिमाचल प्रदेश में भाजपा 68 में से 44 सीटें जीतकर दो तिहाई बहुमत के साथ सरकार बनाने में कारगर तो रही, लेकिन उसके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल, प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती और पूर्व विधानसभाध्यक्ष गुलाब सिंह जैसे कद्दावर नेता चुनाव हार गए। दूसरी तरफ, एक तिहाई से भी कम सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस के भ्रष्टाचार के मामलों में घिरे निवर्तमान मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और उनके पुत्र विक्रमादित्य भी चुनाव जीत गए। साफ है कि पर्वतीय राज्य में मतदाताओं ने भ्रष्टाचार को अधिक तवज्जो नहीं दिया।
लेकिन देश और दुनिया भर की निगाहें तो गुजरात पर टिकी थीं। सवाल था कि 22 वर्षों से सत्ता संभाली भाजपा क्या इस बार भी अतीत की तरह बड़े बहुमत से सत्तारूढ़ हो पाएगी। गुजरात के रूप में किसी राज्य विधानसभा के चुनाव में पहली बार पूरी ताकत झोंककर सघन चुनाव अभियान चलाने वाले राहुल गांधी क्या कांग्रेस को सत्तारूढ़ करवा सकेंगे। उनके साथ जनांदोलनों से निकले तीन युवाओं-हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर और आदिवासी नेता छोटू भाई वसावा की चौकड़ी भी थी।
नतीजों से दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के हाथ खुशी और गम बराबर ही लगे। भाजपा छठी बार गुजरात में सत्तारूढ़ होने में तो कामयाब रही, लेकिन 22 वर्षों में वह पहली बार दहाई का आंकड़ा पार नहीं कर निन्यानबे (99 सीटों) के फेर में फंस गई। इसके लिए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसालार भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को अपने गृह राज्य में नाकों चने चबाने पड़े। खुद मोदी ने कुल आठ दिन गुजरात में गुजारे। थल, जल और नभ में 42 हजार किमी की दूरी नापी। सी प्लेन की सवारी और 34 रैलियां कीं। उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्य, सांसद, राज्यों के मुख्यमंत्री, अमित शाह और उनकी टीम के अधिकतर सदस्य गुजरात में डेरा डाले रहे। यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के नव निर्वाचित नगर प्रमुखों को भी वहां घुमाया गया। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री मोदी के बाद गुजरात में भाजपा के सबसे बड़े स्टार प्रचारक के रूप में नजर आए। इसके बावजूद मतदाताओं ने उन्हें इतना ठोस बहुमत नहीं दिया जिससे वह 2019 के लिए गुजरात से कोई बड़ी उम्मीद कर सकें। 2014 में भाजपा को गुजरात की सभी 26 लोकसभा सीटों पर कामयाबी और 165 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी। 2012 के विधानसभा चुनाव से भी इस बार 16 सीटें कम मिलीं। भाजपा को बहुमत दिलाने में अहमदाबाद, बडोदरा, सूरत और राजकोट जैसे बड़े व्यावसायिक शहरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जबकि ग्रामीण गुजरात ने एक तरह से उन्हें नकार ही दिया।
मतदान से पहले शहरी इलाकों में भी नोटबंदी और जीएसटी को लेकर नाराजगी साफ दिख रही थी। शहरी इलाकों में राहुल गांधी की रैलियों में भारी भीड़ उनके जीएसटी यानी ‘गब्बर सिंह टैक्स’ को पसंद कर रहे थे, लेकिन मतदान से ठीक पहले भाजपा उनके बीच हिंदुत्व, गुजराती अस्मिता और इस सबसे भी अधिक यह एहसास पैदा करने में काफी हद तक सफल रही कि राज्य में कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने पर भी जीएसटी पर खास असर नहीं पड़ेगा। फिर भी मतदाताओं ने गुजरात को प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के ‘कांग्रेस मुक्त गुजरात’ मिशन के उलट कांग्रेस युक्त बनाने का जनादेश दिया।
दूसरी तरफ, कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में 77 सीटें जीतकर पिछली बार के मुकाबले 16 सीटें अधिक हासिल कीं। उसके समर्थन से ही दलितों के युवा नेता के रूप में उभरे जिग्नेश मेवाणी जीते। शरद यादव के साथ खड़े आल ट्राइबल पार्टी के आदिवासी नेता छोटू भाई वसावा और उनके पुत्र महेश वसावा भी कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार के रूप में जीते। इस तरह देखें तो कांग्रेस और इसके सहयोगियों के खाते में 80 सीटें आईं। एक सीट एनसीपी को मिली जबकि दो निर्दलीयों के खाते में गईं।
कांग्रेस जीत के मुहाने तक पहुंच कर भी मैदान नहीं मार सकी तो उसके अपने कारण हैं। यह सही है कि राहुल गांधी ने छह दिन गुजरात में बिता कर 32 रैलियां कीं और तकरीबन 32 हजार किमी दूरी भी नापी। लेकिन जिस तरह से उन्हें जनेऊधारी हिंदू ब्राह्मण के रूप में पेश करने की कोशिश की गई, मंदिर-मंदिर घुमाया गया, उसकी कोई खास जरूरत नहीं थी। उदार हिंदुत्ववाली छवि से कांग्रेस को नफा-नुकसान दोनों हुआ। इससे खासतौर से ग्रामीण इलाकों में भाजपा ध्रुवीकरण कर पाने में पूरी तरह से सफल नहीं हो सकी। लेकिन, कांग्रेस के परंपरागत समर्थक अल्पसंख्यक मतदाता पहले की तरह उत्साहित नजर नहीं आए। शहरी मतदाताओं के बीच भाजपा यह बात पहुंचाने में लगी रही कि कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने पर अल्पसंख्यक सिर चढ़कर बोलेंगे।
राहुल गांधी ने युवा नेताओं हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर को अपने खेमे में लाकर नया सामाजिक समीकरण खड़ा करने की कोशिश की। ऐसा करके वह पाटीदार समाज के बड़े हिस्से को साथ करने में तो कामयाब रहे लेकिन इसके चलते अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ समूह उनसे बिदक भी गए। उन्हें लगा कि पाटीदारों को आरक्षण उनके हिस्से में कटौती करके ही दिया जाएगा। कांग्रेस ने युवा तिकड़ी के बहुत सारे समर्थकों को टिकट दिया। इससे उसे बगावत का सामना भी करना पड़ा। भाजपा ने ढेर सारे निर्दलीय उम्मीदवार भी उतार दिए। कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस और उसके समर्थित उम्मीदवारों के नाम के भी कई निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतरवा दिए। मसलन, छोटू भाई वसावा के क्षेत्र में उनके पुराने जनता दल (यू) ने अपने तीर निशान के साथ उनके ही नाम का अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया। बसपा और एनसीपी के साथ भी समन्वय बिठाने में विफल रही। कांग्रेस संगठन और उसकी चुनावी मशीनरी की कमजोरी भी साफ नजर आई। अर्जुन मोढवाडिया, सिद्धार्थ पटेल और शक्ति सिंह गोहिल जैसे नेताओं की हार इस ओर भी इशारा करती है। कांग्रेस के पास गुजराती समाज के साथ उनकी भाषा में सीधा संवाद करने वाला कोई नेता भी नहीं था। राहुल गांधी अपनी बातें हिंदी में करते थे, जबकि मोदी गुजराती में लोगों से सीधा संवाद करते नजर आए।
इस सब कमियों के बावजूद गुजरात के चुनाव अभियान में पहली बार राहुल गांधी और कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को घेरने में सफल रहे। उनसे गुजरात में पिछले 22 वर्षों के भाजपा शासन की उपलब्धियां, विकास के गुजरात मॉडल, नोटबंदी और जीएसटी और अमित शाह के बेटे जय शाह के द्वारा अल्पावधि में कमाई अकूत दौलत से जुड़े सवालों का जवाब देते नहीं बना। वह अपने पुराने हिंदुत्व और गुजराती अस्मिता के मुद्दे पर ही लौट गए। इस काम में उनकी थोड़ी मदद कांग्रेस के कपिल सिब्बल और मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं ने भी की। कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील की हैसियत से अयोध्या मसले की सुनवाई 2019 के चुनाव तक टालने की मांग कर कांग्रेस को राम मंदिर विरोधी पार्टी के रूप में प्रचारित करने का मुद्दा थमा दिया। गुजरातियों के एक बड़े तबके के सामने मंदिर आंदोलन और गोधरा के पास साबरमती एक्सप्रेस में लगी आग में कारसेवकों के जलकर मरने के दृश्य और जख्म ताजा करने की कोशिश की गई।
इसी तरह से मोदी ने राहुल गांधी के बारे में उनकी एक अमर्यादित टिप्पणी के जवाब में मणिशंकर अय्यर के उन्हें ‘नीच किस्म का इंसान’ कहने वाले बयान को लपक लिया। उसे अपने हिसाब से परिभाषित करते हुए कहा कि कांग्रेस ने उन्हें यानी गुजराती नीखरे (बेटे) को नीच जाति का कहा है। अपने ऊपर हुए राजनैतिक हमलों को गुजरात और गुजरातियों पर हमला साबित करने की कोशिश की।
ध्रुवीकरण की गरज से कुछ जगहों पर मस्जिदों के पास ऐसे पोस्टर चिपकाए गए जिनमें कांग्रेस की सरकार बनने पर अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात थी। जब इससे भी बात नहीं बनी तो प्रधानमंत्री मोदी ने सार्वजनिक मंचों से कहना शुरू किया कि पाकिस्तान गुजरात में अहमद पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनवाने की साजिश कर रहा है। सबूत के तौर पर उन्होंने पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद अहमद कसूरी के सम्मान में मणिशंकर अय्यर के यहां हुए रात्रिभोज का जिक्र किया जिसमें कसूरी और दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त के साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी, पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर, पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के साथ ही कुछ वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल थे।
भाजपा और मोदी लंबे समय से सरदार पटेल और सोमनाथ मंदिर को लेकर नेहरू-गांधी परिवार के प्रति गुजरात के लोगों में नफरत की भावना भरते रहे हैं। इस बार भी राहुल गांधी के विरुद्ध नफरत का भाव पैदा करने में उन्होंने कोई कोताही नहीं की। इसके बावजूद कांग्रेस के मत प्रतिशत और सीटों में वृद्धि राहुल गांधी के लिए बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। यह अगले लोकसभा चुनाव और उससे पहले कर्नाटक, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस में नई ऊर्जा का संचार कर सकती है। अब विरोधी भी राहुल गांधी को अगंभीर राजनीतिज्ञ और ‘पप्पू’ कह कर खारिज नहीं कर सकते। लेकिन, उन्हें ध्यान में रखना होगा कि उनका सामना नरेंद्र मोदी जैसे वाकपटु, आपकी कही गई किसी बात को संदर्भ से काटकर भी अपने पक्ष में पेश कर लेने के उस्ताद नेता, उनके साथ लगी मजबूत टीम और भाजपा के कार्यकर्ताओं के साथ ही आरएसएस की संगठन शक्ति से भी है। कांग्रेस का संगठन केंद्र से लेकर अधिकतर राज्यों में पस्तहाल, लचर और बड़बोले नेताओं के कब्जे में है।
गुजरात के नतीजों से नरेंद्र मोदी की सर्वशक्तिमान और अकेले दम पर भाजपा को चुनाव जितानेवाले नेता की धमक कमजोर पड़ी है। राहुल इसका लाभ उठा सकते हैं। उनके पक्ष में यह बात भी जा सकती है कि आज की तारीख में और खासतौर से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा के शरणागत होने और उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव की करारी हार के बाद राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को चुनौती दे सकने वाले वह अकेले मजबूत नेता के रूप में उभरे हैं। इस स्थिति का लाभ वह विपक्ष के तमाम सम विचार दलों और नेताओं के साथ समन्वय कायम कर विपक्ष की एकजुट चुनौती पेश कर उठा सकते हैं। गैर कांग्रेसवाद के जवाब में वह गैर भाजपावाद की रणनीति अपना सकते हैं।