कभी राग दरबारी आया था तो लगा था यह अलग दुनिया है। श्रीलाल शुक्ल ने ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा होते हुए उसे लिखा और उसके लिए निंदित भी हुए। तब से न भ्रष्टाचार पर लगाम लगी, न भाई भतीजावाद पर। इसलिए आज भी हर जगह राग दरबारी का राग है। लगभग इसी नक्शे-कदम पर चलने का साहस युवा कथाकार बालेन्दु द्विवेदी का उपन्यास मदारीपुर जंक्शन करता है। मदारीपुर जंक्शन जो न गांव रहा न कस्बा बन पाया। जहां हर तरह के लोग हैं जुआरी, भंगेड़ी, गंजेड़ी, लंतरानीबाज, मुतफन्नी, ऐसे-ऐसे नरकट कि सुबह भेंट हो जाए तो भोजन नसीब न हो।
मदारीपुर के लोगों की आदत है एक-दूसरे के हर अच्छे काम में टांग अड़ाना। गांव है तो पास में ताल भी है जो जुआरियों का अड्डा है। पास ही मंदिर है जहां गांजा क्रांति के उद्भावक पाए जाते हैं। गांव और कस्बे जहां-जहां सियासत के पांव पड़े हैं, चुनावों के बिगुल बजते ही हिंसा और जोड़-तोड़ शुरू हो जाती है। परधानी में लाखों का बजट, पैसा, लूट है। सो मदारीपुर जंक्शन के भी केंद्र में परधानी है।
इस गांव में भी भूतपूर्व प्रधान छेदी बाबू, वर्तमान प्रधान रमई, परधानी का ख्वाब लिए बैरागी बाबू, उनकी सहायता में लगे वैद जी, दलित वोट काटने में छेदी बाबू के खड़े किए चइता, केवटोले के भगेलूराम, छेदी बाबू के भतीजे बिजई सब अपनी-अपनी जोड़-तोड़ में लगे होते हैं। ऐसे वक्त गांव में जो रात-रात भर जगहर होती है, दुरभिसंधियां चलती हैं, तरह-तरह के मसल और कहावतें बांची जाती हैं वे पूरे गांव की सामाजिकी के छिन्न-भिन्न होते ताने-बाने के रेशे-रेशे उधेड़ती चलती हैं। श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी में कहा था, “यहां से भारतीय देहात का महासागर शुरू होता है। यह उसी देहात की बटलोई का एक चावल है।”
कभी समाजशास्त्री पी.सी. जोशी ने कहा था, “राग दरबारी या मैला आंचल जैसे उपन्यासों को समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिहाज से क्यों नहीं पढ़ा जाना चाहिए। आजादी के मोहभंग से बहुत सारा लेखन उपजा है। राग दरबारी, मैला आंचल के साथ विभाजन के हालात पर केंद्रित आधा गांव का गंगोली गांव भी मदारीपुर, शिवपालगंज या मेरीगंज से बहुत अलग नहीं है। विमर्शों के लिहाज से देखें तो दलित विमर्श, स्त्री विमर्श दोनों मदारीपुर में नजर आते हैं। एक सबाल्टर्न विमर्श भी है कि आज भी सवर्ण समाज की दुरभिसंधियां आसानी से दलितों को सत्ता नहीं सौंपना चाहतीं, लिहाजा वह उनके वोट किधर जाएं, कैसे कटें, इसके कुलाबे भिड़ाता रहता है। यहां परधानी के चुनाव में बुनियादी तौर से दो दल हैं एक छेदी बाबू का दूसरा बैरागी बाबू का। पर चुनाव के वोटों के समीकरण से दलित वर्ग का चइता भी परधानी का ख्वाब देखता है और भगेलू भी। लेकिन दोनों छेदी और बैरागी के दांव के आगे चित हो जाते हैं। चइता को छेदी के भतीजे ने मार डाला तो बेटे पर बदलू शुकुल की लड़की भगाने के आरोप में भगेलू को नीचा देखना पड़ा। पर राह के रोड़े चइता और भगेलू के हट जाने पर भी परधानी की राह आसान नहीं। हरिजन टोले के लोग चइता की औरत मेघिया को चुनाव में खड़ा कर देते हैं। दलित चेतना की आंच सुलगने नहीं बल्कि दहकने लगती है जिसे सवर्ण जातियां बुझाने की जुगत में रहती हैं। संयोग देखिए वह दो वोट से जीत जाती है। पर चइता की मौत की ही तरह उसका अंत भी बहुत दारुण है। वह जीत की घोषणा सुन कर पति की समाधि पर पहुंचती है पर जीत कर भी हरिजन टोले के सौभाग्य और स्वाभिमानी पीढ़ी को देखने के लिए जिंदा नहीं रहती।
सत्ता की लड़ाई में दलितों की राह आज भी आसान नहीं। वे सवर्णों की लड़ाई में समिधा ही बन रहे हैं। आज गांव किन हालात से गुजर रहे हैं, उपन्यास इसका जायजा लेता है। बालेन्दु द्विवेदी गंवई और कस्बाई बोली में पारंगत हैं। गांव के मुहावरे, लोकोक्तियों सबमें उनकी जबर्दस्त पैठ है। चरित्र चित्रण का तो कहना ही क्या। पढ़ते हुए कहीं श्रीलाल शुक्ल याद आते हैं, कहीं ज्ञान चतुर्वेदी तो कहीं परसाई। कहावतें तो क्या ही उम्दा हैं, ‘घर मा भूंजी भांग नहीं ससुरारी देइहैं न्योता।’
मदारीपुर जंक्शन बताता है कि दलित चेतना को आज भी सवर्णवादी प्रवृत्तियों से ही हांका जा रहा है। सबाल्टर्न और वर्गीय चेतना भी आजादी के तीन थके हुए रंगों की तरह विवर्ण हो रही है। गांवों को सियासत ने बदला जरूर है पर गरीब दलित के आंसुओं की कोई कीमत नहीं।