जब पूरा देश नए साल के स्वागत में व्यस्त था, महाराष्ट्र बंद, हिंसक प्रदर्शन, नाकेबंदी, तोड़फोड़ और आगजनी से जूझ रहा था। यह सब एक जनवरी को पुणे के पास ‘भीमा-कोरेगांव युद्ध’ में पेशवाओं पर अपनी जीत की 200वीं वर्षगांठ मना रहे दलितों पर हिंसक हमले से शुरू हुआ। कोरेगांव में घंटों तक चली हिंसा के दौरान महिलाओं और बच्चों से भरी बसों पर हमला किया गया। उन पर पत्थर फेंके गए। इस उपद्रव के बीच वहां से गुजर रहे एक युवक की पत्थरबाजी से मौत हो गई। आरोप है कि पुलिस लोगों की मदद के लिए नहीं पहुंची। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस विधायक पृथ्वीराज चौहान ने आरोप लगाया कि जिस जगह पर कार्यक्रम के लिए तीन लाख से ज्यादा लोग इकट्ठा थे, वहां सुरक्षा की पूरी व्यवस्था नहीं थी। हालांकि, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ऐसा नहीं मानते।
दो हिंदुत्ववादी नेताओं संभाजी भिडे और मिलिंद एकबोटे पर दलित समुदाय के खिलाफ हिंसा भड़काने के आरोप हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से इनके करीबी संबंध रहे हैं। भाजपा, संघ और शिवसेना नेताओं पर भिडे का प्रभाव किसी से छिपा नहीं है। इन दोनों पर डॉ. भीमराव आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर, एलगार परिषद के आयोजकों और अन्य दलित नेताओं ने दलितों के खिलाफ हिंसा भड़काने के आरोप लगाए हैं, जिससे दोनों ने इनकार किया है। उधर, दलित नेता और गुजरात से विधायक बने जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू के उमर खालिद के खिलाफ पुणे पुलिस ने भड़काऊ भाषण देने का मामला दर्ज किया है।
तीन दिनों (1-3 जनवरी) तक चला यह उपद्रव कई कारणों से असामान्य और उल्लेखनीय है। पहला, पूरे महाराष्ट्र में बिना किसी बड़े नेतृत्व के दलित समुदाय (बौद्ध सहित) का प्रचंड होती कट्टरवादी हिंदुत्ववादी ताकतों के खिलाफ तेजी से एकजुट होना। दलितों का यह उभार सन 1997 की रमाबाई नगर फायरिंग के दो दशक और 2007 की खैरलांजी घटना के लगभग एक दशक बाद सामने आया है। दूसरा, उपद्रव के दौरान सरकार और सुरक्षा बल मूक दर्शक बने रहे। उच्च पदस्थ सूत्रों ने आउटलुक को बताया कि जानबूझकर निष्क्रियता बरती गई ताकि लोगों का गुस्सा सरकारी संपत्ति पर निकलने के बाद स्थिति को संभाला जा सके। तीसरी अहम बात यह है कि उच्च जाति से ताल्लुक रखने वाले दोनों मुख्य अभियुक्त एकबोटे और भिडे खुलेआम घूम रहे हैं। मीडिया को इंटरव्यू दे रहे हैं, जबकि पुणे ग्रामीण पुलिस ने तीन जनवरी को ही उनके खिलाफ एफआइआर दर्ज कर ली थी। दूसरी तरफ बंद के दौरान हिंसा में शामिल होने के आरोप में खबर लिखे जाने तक 100 से ज्यादा दलितों को हिरासत में ले लिया गया था।
कोरेगांव युद्ध: दलित गौरव बनाम राष्ट्रवाद
भीमा कोरेगांव महाराष्ट्र में पुणे से करीब 30 किलोमीटर दूर छोटा-सा गांव है। महाराष्ट्र के इतिहास के पिछले 200 साल में इस गांव का विशेष महत्व रहा है। एक जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से कुछ सौ महार सैनिकों ने कोरेगांव में पेशवा बाजीराव-द्वितीय की विशाल पेशवा सेना को परास्त किया था। कहा जाता है कि कर्नल एफएफ स्टॉन्टन के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की बॉम्बे नेटिव इंफैंट्री रेजिमेंट के लगभग 500 सैनिकों ने भीमा नदी पार कर 25 हजार सैनिकों वाली पेशवा सेना को हराया था। इस युद्ध ने सामाजिक अन्याय के लिए कुख्यात रहे पेशवाओं (ब्राह्मणों) के मराठा साम्राज्य का अंत कर दिया। इसलिए दलित इतिहास में इस जीत को ख्याति मिली। यह गौरव का विषय बन गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोरेगांव में 60 फुट ऊंचे विजय स्तंभ का निर्माण कराया था जिस पर युद्ध में मारे गए लोगों के नाम अंकित हैं। इनमें अधिकांश नाम महार सैनिकों के हैं। इस स्मारक को ख्याति दिलाने में डॉ. भीमराव आंबेडकर की अहम भूमिका रही, जिन्होंने एक जनवरी 1927 को भीमा-कोरेगांव युद्ध की याद में एक आयोजन किया। बाद में आंबेडकर ने अपने लेख ‘द अनटचेबल ऐंड पैक्स ब्रिटानिका’ में दावा किया कि भारत में ब्रिटिश हुकूमत को स्थापित करने और जमाने में अछूतों की अहम भूमिका रही।
दक्षिणपंथी खेमा ‘अंग्रेजों की जीत’ के इस उत्सव के खिलाफ है जबकि आंबेडकरवादी इसे राष्ट्रवाद बनाम साम्राज्यवाद के तौर पर नहीं देखते। भगवा संगठनों की चेतवानी को उन्होंने न सिर्फ नजरअंदाज किया, बल्कि पेशवाओं के जाति आधारित दमन के खिलाफ महार सैनिकों की जीत की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए बड़ी तादाद में इकट्ठा हुए।
विवाद की समाधि
कोरेगांव संघर्ष के बीज दिसंबर के आखिरी हफ्ते में पुणे के वधु बुदरुक गांव में पड़ गए थे। भीमा कोरेगांव से चार किलोमीटर दूर स्थित वधु गांव दो समाधियों के लिए जाना जाता है। इनमें से एक समाधि मराठा शासक शिवाजी के सबसे बड़े बेटे संभाजी की है, जिसे औरंगजेब ने 1689 में मार दिया था। दूसरी समाधि गांव के ही दलित गोविंद गायकवाड़ की है, जिनके बारे में मान्यता है कि उन्होंने औरंगजेब के आदेश को चुनौती देते हुए संभाजी का अंतिम संस्कार किया, जबकि उच्च जाति के मराठा इसके लिए आगे नहीं आए थे। 29 दिसंबर को वधु गांव के मराठों ने संभाजी के अंतिम संस्कार में गोविंद गायकवाड़ की भूमिका का उल्लेख करने वाली पट्टिका पर एतराज किया और उससे छेड़छाड़ की। इस घटना में भिडे और एकबोटे की भूमिका पर सवाल उठाए जा रहे हैं। हालांकि, दोनों ने आरोपों से इनकार किया है। मामले में दोनों तरफ से पुलिस शिकायत दर्ज कराई गई है।
पुणे के उपमहापौर और रिपब्लिकन पार्टी के नेता डॉ. सिद्धार्थ ढेंडे कहते हैं कि वधु बुदरुक का झगड़ा ही भीमा कोरेगांव के हिंसक टकराव में तब्दील हुआ। उनका आरोप है कि एक जनवरी को बड़ी तादाद में इकट्ठा होने वाले दलितों पर हमले के लिए गांव वालों को उकसाने की साजिश एकबोटे और भिडे ने ही रची थी। वैसे, गांव के दलित और मराठों ने एक-दूसरे के खिलाफ दर्ज मामले वापस ले लिए हैं और भीमा कोरेगांव हमले के खिलाफ एकजुट हो चुके हैं।
‘भीमा-कोरेगांव प्रेरणा अभियान’ के आयोजकों ने भी टकराव के लिए दक्षिणपंथी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया है। इसी संस्था ने ‘एलगार परिषद’ का आयोजन किया था, जिसमें जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद और राधिका वेमुला ने हिस्सा लिया था।
इसी आयोजन में जिग्नेश और उमर खालिद पर भड़काऊ भाषण देने के आरोप हैं। आरोप भिडे और एकबोटे पर भी हैं कि पिछले एक साल से वधु गांव में सक्रिय थे। पुणे के सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक केशव वाघमारे का दावा है कि भिडे और एकबोटे रोजगार और शिक्षा से वंचित युवाओं को गलत इतिहास रटाकर कट्टर बना रहे हैं। आंबेडकरवादी डॉ. तुषार जगताप आरोप लगाते हैं कि हिंदुत्ववादी ताकतें ऐतिहासिक बदला लेने के लिए दलितों के गर्व के प्रतीकों को कमजोर करना चाहती हैं।
दलित गौरव बनाम जाति संघर्ष
कई मीडिया संस्थानों, खासकर न्यूज चैनलों ने भीमा-काेरेगांव के आयोजन और वहां हुए हिंसक टकराव को ‘जाति संघर्ष’ करार देते हुए इसे ‘दलित बनाम मराठा’ या ‘नीची जाति बनाम ऊंची जाति’ के टकराव के तौर पर पेश किया। महार सैनिकों की जीत के पर्व को ब्रिटिश सेना की विजय का जश्न बताकर मीडिया के बड़े हिस्से ने दलितों के इस उत्सव की खूब आलोचना की।
महाराष्ट्र की वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार श्रुति गणपति कहती हैं कि यह वास्तव में दलित बनाम ब्राह्मणवादी हिंदुत्व ताकत का संघर्ष था। इस घटना के बारे में सोशल मीडिया पर खूब मैसेज फैलाए गए, जिसमें भीमा-कोरेगांव युद्ध की भर्त्सना की गई। जाति आधारित दमन को नकारा गया और दलितों के बंद से जनता को हुई परेशानी का सवाल उठाया गया। श्रुति का मानना है कि यह जातिगत आधार पर लोगों को बांटने की साजिश थी जो कामयाब नहीं रही। देश की वित्तीय राजधानी का 10 घंटे तक थमा रहना आम बात नहीं है। एक समुदाय अपने गुस्से का इजहार कर रहा था, जिसे नाजायज ठहराने के बजाय सुना जाना चाहिए था।
दक्षिणपंथी समूह कोरेगांव युद्ध में दलितों की बहादुरी के दावों पर सवाल उठाते हुए इस मामले पर सरकारी अध्ययन की मांग करते हैं। उनका मानना है कि यह आख्यान अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत यह रचा था। दक्षिणपंथी शिक्षाविदों का कहना है कि ईस्ट इंडिया कंपनी 500 निहत्थे सैनिकों के साथ 25,000 की ताकतवर सेना पर हमला करे, ऐसा होना मुश्किल था। युद्ध में महारों की संख्या अधिक रही होगी।
मुंबई विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर रहे सुरेंद्र जोंधाले बताते हैं कि इतिहास की किताबें सैनिकों की अलग-अलग संख्या बताती हैं। दलित सैनिकों की संख्या 500 से ज्यादा और पेशवा सेना की ताकत 25 हजार से कम भी हो सकती है। साथ ही, पेशवा की तरफ से भी दलित लड़ रहे थे। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में मुस्लिम और यहूदी भी थे। जोंधाले मानते हैं कि भीमा-कोरेगांव का युद्ध एकदम ‘अछूत बनाम ब्राह्मण’ का नहीं रहा होगा, जैसा कि माना जाता है। असल में यह ईस्ट इंडिया कंपनी और पेशवा फौज का युद्ध था, जिसके बाद पेशवा ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने आत्मसमर्पण को मजबूर हुए। यहीं से पश्चिमी भारत में ब्रिटिश राज की नींव पड़ी।
महार या नव-बौद्ध समुदाय भीमा-कोरेगांव के युद्ध में जीत को अस्पृश्यता के खिलाफ अपनी जीत की शुरुआत के तौर पर मानते हैं। हालांकि, गांव में बने विजय स्मारक पर अंग्रेजों की बड़ी जीत के बारे में बताया गया है। भीमा-कोरेगांव रणस्तंभ सेवा संघ (बीकेआरएसएस) की स्थापना के बाद दलित ‘विजय स्तंभ’ को अपनी नई राजनीतिक महत्वाकांक्षा के तौर पर मानते हैं। पेशवाओं की निंदा उनकी रणनीति का हिस्सा है। महाराष्ट्र ने पेशवाओं के शासनकाल में जाति आधारित दमन का सबसे खौफनाक रूप देखा। उस वक्त पेशवाओं की राजधानी में प्रवेश करने वाले दलित थूकने के लिए गर्दन में बर्तन और अपने पैरों के निशान मिटाने के लिए पीछे झाड़ू बांधकर चलने के लिए मजबूर थे।
मुंबई में एससी/एसटी छात्रसंघ के प्रमुख संजय वैराल कहते हैं कि राज्य के ग्रामीण हिस्सों में भेदभाव अब भी है, भले ही उसका स्वरूप बदल गया है। पूरे भारत में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर दलितों की हत्या, विभिन्न छात्रवृत्तियों को बंद करना और आरक्षण को खत्म करने की चर्चाओं ने समुदाय में बेचैनी भर दी है और जातीय अंतर को बढ़ावा दिया है।
महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा दोनों ने अपने फायदे के लिए मराठा इतिहास को मुस्लिम विरोधी के तौर पर पेश किया। अब धीरे-धीरे मराठा बहस भगवा पार्टियों के पक्ष में उच्च जातियों को एकजुट करने के लिए दलित विरोधी बनाई जा रही है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस के उप निदेशक प्रोफेसर अब्दुल शबन मौजूदा घटनाक्रम को समाज में मौजूद असमानता के खिलाफ दलितों उभार के तौर पर देखते हैं। पिछले कुछ वर्षों में देश की मुख्यधारा की राजनीति हिंसा से भरपूर रही है। पीड़ित समुदाय अब हिंसा का रास्ता अपना रहे हैं। यह खतरनाक स्थिति है। इसके क्या परिणाम हो सकते हैं, यह समझना चाहिए।
चुनावी तैयारी?
मशहूर कलाकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश बाल जोशी मानते हैं कि यह पूरा प्रकरण आकस्मिक नहीं था, जैसा इसे पेश किया जा रहा है। यह पूरी घटना राजनैतिक पार्टियों के लिए 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तैयारियों के लिहाज से एक हथकंडे के तौर पर दिखती है। जोशी घटना में कांग्रेस और एनसीपी के शामिल होने की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि वे पार्टियां जो मुस्लिम और दलित वोट बैंक खो चुकी हैं, अब उसे वापस पाना चाहती हैं।
शायद इसीलिए एनडीए जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित मुद्दों को समर्थन दे रही है, उसने भी पुणे में जनवरी को समानांतर रैली कर भीमा-कोरेगांव घटना की याद की। इस रैली का नेतृत्व केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री और आरपीआइ नेता रामदास अठावले, भ्ााजपा के दलित सांसद अमर साबले और राज्य कैबिनेट के दो दलित नेता राजकुमार बडोले और दिलीप कांबले ने किया।
निशाने पर जिग्नेश और उमर खालिद
महाराष्ट्र पुलिस ने पुणे में हिंसा से पहले भड़काऊ भाषण के लिए जिग्नेश मेवाणी और उमर खालिद पर केस दर्ज किया है। कोरेगांव युद्ध की 200वीं वर्षगांठ पर कई दलित समूहों ने शनिवार वाडा में ‘एलगार परिषद’ के नाम से एक व्यापक सम्मेलन का आयोजन किया था। इसमें मेवाणी और खालिद को भी बुलाया गया था। जाहिर है कि इस सम्मेलन का एजेंडा हिंदुत्व राजनीति के खिलाफ था। आयोजकों ने दक्षिणपंथी राजनीति को नव-पेशवा के रूप में पेश किया। कट्टरवादी हिंदुत्व के खिलाफ दलितों की यह गोलबंदी भगवा समूहों के लिए चिंता का विषय रहा है। एलगार परिषद ने उनकी चिंता और बढ़ा दी।
हालांकि, मेवाणी ने सभी आरोपों को नकार दिया। मेवाणी ने पांच जनवरी को दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि मेरे भाषण का एक भी शब्द भड़काऊ नहीं था। मुझे निशाना बनाया जा रहा है। मेरे भाषण का कोई भी हिस्सा उकसाने वाला या भड़काऊ नहीं था। ऊना कांड के बाद दलित नेता के तौर पर तेजी से उभरे जिग्नेश मेवाणी भीमा-कोरेगांव मामले की गूंज दिल्ली तक पहुंचाने के बाद इसे देशव्यापी मुद्दा बनाने में जुटे हैं। दिल्ली में युवा हुंकार रैली के जरिए युवाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने की तैयारी इसी कोशिश का नतीजा प्रतीत होती है।
ऊना में गोरक्षकों द्वारा दलितों पर हमले के बाद गुजरात सरकार के खिलाफ प्रदर्शन से चर्चा में आए मेवाणी ने एलगार परिषद में ‘गरीब हितैषी’ सभी पार्टियों से एकजुट होने और भाजपा-आरएसएस के गठजोड़ वाली सरकार से लड़ने की अपील की थी। मेवाणी के मुताबिक, भाजपा और आरएसएस ‘नए पेशवा’ या ‘मनुवाद’ का प्रतिनिधित्व करते हैं। मेवाणी ने कहा कि गुजरात में जब वे 150 का लक्ष्य लेकर चल रहे थे तो हमने उन्हें दहाई के आंकड़ों पर रोक दिया। हम 2019 में इसे दोहरा सकते हैं और भाजपा को दो अंकों तक सीमित कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि मेरी इसमें रुचि नहीं है कि कौन जीतता है, मेरी रुचि बीजेपी को हराने में है।
भाजपा के एक प्रवक्ता का कहना है कि विपक्ष भीमा-कोरेगांव के मुद्दे को ब्राह्मण बनाम दलित बनाना चाहता था। वह ऐसा करने में असफल रहा, इसलिए मामले में हिंदुत्व का कोण लाया गया। भाजपा प्रवक्ता से जब मामले में भिडे और एकबोटे की गिरफ्तारी में देरी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने दावा किया कि दोनों अलग-अलग काम करते हैं और अब उनका आरएसएस से कोई संबंध नहीं है। एफआइआर दर्ज होने का यह मतलब नहीं कि आरोपी को तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाए। भाजपा प्रवक्ता ने विपक्षी दलों पर दोनों को फंसाने का भी आरोप लगाया, क्योंकि वे इस बहस को ‘ब्राह्मण बनाम दलित’ बनाने में असफल रहे। उन्होंने यह आरोप खासतौर पर एनसीपी पर लगाया। आरएसएस नेता मनमोहन वैद्य ने दो जनवरी को जारी अपने बयान में संगठन की किसी भी भूमिका से इनकार किया। उन्होंने कहा कि आरएसएस की छवि खराब करने की कांग्रेस की आदत रही है। वैद्य ने कहा कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाने वाले यहां भाषण देने आते हैं। भारत को तोड़ने वाली ब्रिगेड जाति और धर्म के आधार पर देश को तोड़ना चाहती है। बहरहाल, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि भीमा-कोरेगांव घटना के राजनैतिक अक्स आगे दिखेंगे।