कभी बड़े धूम-धड़ाके से बनाए गए प्राधिकरण कैसे महज सफेद हाथी बनकर रह जाते हैं, उसकी बेहतरीन मिसाल है राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) प्लानिंग बोर्ड। बोर्ड का मकसद तो दिल्ली और आसपास के जिलों को एनसीआर एरिया में शामिल करके उन इलाकों का ढांचागत विकास करना था, ताकि राजधानी दिल्ली में आबादी का दबाव कुछ कम हो सके लेकिन वह बस अपना दायरा बढ़ाने और थोड़ी-बहुत वित्तीय मदद मुहैया कराने का साधन बन कर रह गया है। हाल ही में बोर्ड ने दिसंबर 2017 की अपनी 37वीं बैठक में 23वें जिले के तौर पर उत्तर प्रदेश के शामली को भी एनसीआर में शामिल करने का फैसला किया। मगर उसके पहले शामिल किए गए बागपत, मुजफ्फरनगर जिलों में न कोई योजना दिखती है और न ढांचागत विकास में उसकी कोई खास भूमिका। फिर भी, उत्तर प्रदेश सरकार ने चार और जिलों मथुरा, अलीगढ़, हाथरस और बिजनौर को शामिल करने का प्रस्ताव भेजा है।
यही वह पेंच है जिससे मोटे तौर पर बिना काम के भी एनसीआर बोर्ड का सिक्का कायम है। एनसीआर बोर्ड से जुड़े एक अधिकारी ने बताया, “राजनैतिक फायदा उठाने के लिए राज्य सरकारें जिलों को शामिल कराने का प्रस्ताव भेज देती हैं। उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि विकास होगा या नहीं। राज्य केवल बजट की छीना-झपटी में लगे हैं।”
दरअसल योजनाएं जिले की संबंधित एजेंसी बनाती है और उसे राज्य सरकार के जरिए बोर्ड के पास भेजती है। बोर्ड से योजना की समीक्षा के बाद 75 फीसदी तक का कर्ज सस्ती दरों पर दिया जाता है जिसे राज्य और केंद्र सरकार आपसी सामंजस्य से पूरा कराते हैं। बोर्ड से जुड़े एक अधिकारी ने बताया, “राज्यों की दिलचस्पी ज्यादा से ज्यादा जिलों को शामिल कराकर महज राजनैतिक मकसद हासिल करना रहता है लेकिन जिलों में विकास न होने से बोर्ड के गठन पर सवाल खड़ा होना लाजिमी है।”
1985 में बने कानून के तहत एनसीआर प्लानिंग बोर्ड (एनसीआरपीबी) की स्थापना की गई थी। इसका मकसद दिल्ली के आसपास के इलाकों में ढांचागत विकास करना है। केंद्र सरकार का शहरी विकास मंत्रालय बोर्ड के जरिए इसमें शामिल किए जाने वाले जिलों की विकास योजनाओं को सीधे नियंत्रित करता है। बोर्ड विकास योजनाओं के लिए कर्ज मुहैया कराता है और उसकी निगरानी करता है।
एनसीआर बोर्ड में सदस्य रहे डीडीए के पूर्व आयुक्त (योजना) एके जैन बताते हैं, “1956 में दिल्ली के अंतरिम जनरल प्लान में बताया गया कि दिल्ली की समस्याएं दिल्ली तक सीमित नहीं हैं। तब क्षेत्रीय प्लान की जरूरत महसूस हुई। आखिर 1985 में एनसीआर प्लानिंग बोर्ड कानून पारित हुआ। शुरू में एनसीआर में दिल्ली के अलावा उसके इर्दगिर्द के तीन राज्यों हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के 14 जिले शामिल किए गए।”
तब एनसीआर का क्षेत्रफल 35 हजार वर्ग किलोमीटर था। लेकिन अब हरियाणा के 13, उत्तर प्रदेश के आठ और राजस्थान के दो जिले एनसीआर में आ गए हैं और क्षेत्रफल बढ़कर 58332 वर्ग किलोमीटर हो गया है। 2005 में 2021 का प्लान अधिसूचित हुआ। लेकिन बकौल जैन, “इस पर कभी विचार नहीं किया गया कि कहां फेल हुए और कहां कामयाब। इस प्लान के बनने के दौरान खुद मैं सदस्य था। मैंने पुनर्विचार की बातें कीं लेकिन वह नहीं मानी गईं। कुछ पर बोर्ड राजी हुआ तो राज्य ने नहीं मानी।”
दिल्ली को छोड़ दें तो अन्य राज्यों के जिलों में ग्रामीण क्षेत्र ज्यादा हैं जिसके समन्वित विकास की बात कही गई थी लेकिन एेसा नहीं किया गया। बाद के दौर में बोर्ड के सामने पर्यावरण का मुद्दा भी अहम माना गया। लेकिन बोर्ड ने इस बारे में शायद ही कोई पहल की। यहां तक कि दिल्ली के रिज इलाके में भी निर्माण को रोकने में सक्रियता नहीं दिखाई। तीसरे दिल्ली में 2003 में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए इस पर कदम उठाने को कहा गया था। इसके तहत यह भी था कि एनसीआर में प्रदूषणकारी उद्योग को मंजूरी न दी जाए। पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर जोर दिया गया, जितने हाईवे या रिंग रोड बने, उसके साथ मेट्रो का प्रावधान रखा जाए। बीआरटी का प्रावधान भी हो। योजना इस तरह की बने और इसके लिए जमीन छोड़ दी जानी चाहिए। जैन कहते हैं, “मसलन, यमुना एक्सप्रेस-वे या एनएच-24 बना है और इन पर 90 फीसदी निजी वाहनों ने सड़क घेर रखी है यानी योजना बनाते समय पब्लिक ट्रांसपोर्ट की अनदेखी की गई है। इससे समस्या यह है कि नोएडा या गुड़गांव जाने पर गाड़ियों का अंबार लग जाता है। योजना बनाते समय इन मुद्दों की अनदेखी की गई।”
विशेषज्ञों का कहना है, “मुख्य तौर पर एनसीआर बोर्ड का काम योजना बनाना और निगरानी करना है, इन पर अमल का काम संबंधित राज्यों की एजेंसियों का है। भूमि राज्य का विषय है। बोर्ड की कमी यह भी रही है कि उसके पास दांत नहीं हैं यानी अवैध कालोनियां या रिवर बेड के निर्माण पर दंडित करने की शक्ति उसके पास नहीं है। इसे रोकने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है।”
वैसे, 30 सितंबर 2017 तक एनसीआर के 250 प्रोजेक्ट पूरे हो चुके हैं। करीब 16907.56 करोड़ रुपये के इन प्रोजेक्ट के लिए 7322.93 करोड़ रुपये का कर्ज मंजूर किया गया और 6481 करोड़ रुपये जारी किए। फिलहाल 49 प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। 12378 करोड़ रुपये की लागत के इन प्रोजेक्ट के लिए 6197 करोड़ रुपये मंजूर किए गए हैं और 3459.23 करोड़ रुपये जारी किए जा चुके हैं।
हालांकि दिल्ली सरकार के लोक निर्माण मंत्री सत्येंद्र जैन कहते हैं, “बोर्ड कोई योजना ही नहीं बना पा रहा है, उसका काम केवल बैठक करना और फंडिंग करना रह गया है। अगर फंडिंग के लिए ही बोर्ड बना है तो फिर वह बैंक का काम ही कर ले। बोर्ड ने 40 साल में बातें और बैठक करने के अलावा क्या किया है वह बताए। बोर्ड का काम योजना बनाने का है जिसे वह नहीं कर पा रहा है। दो सौ किलोमीटर दूर के इलाके शामिल करने का मतलब बस लोगों को खुश करना है। तब तो मद्रास को भी एनसीआर में जोड़ दो। मेरा गांव खुद बागपत में है, जहां कुछ नहीं हुआ।”
एके जैन कहते हैं, “बोर्ड की सबसे बड़ी खामी संवैधानिक तौर पर कही जा सकती है। संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के प्रावधान में साफतौर पर कहा गया है कि डिस्ट्रिक्ट और मेट्रो डेवलपमेंट प्लान बनेगा। इसके लिए डिस्ट्रिक्ट और मेट्रोपोलिटन प्लानिंग कमेटी बनाई जाएगी। इसको राज्य सरकार अधिसूचित करती है। इन कमेटियों को बनाने के प्रावधान के पीछे मूल मकसद यह है कि एनसीआर में जिन जिलों को शामिल किया जाए, उनके शहरी और ग्रामीण क्षेत्र दोनों में समन्वित विकास हो। लेकिन इस संवैधानिक प्रावधान को बोर्ड में शामिल नहीं करने से कोई कमेटी नहीं बनी जिससे डिस्ट्रिक्ट और मेट्रोपोलिटन प्लान नहीं बना।”
यूपी में एनसीआर सेल में अतिरिक्त आयुक्त राजेश प्रकाश कहते हैं, “बोर्ड के पास जिलों को योजना भेजनी होती है। यहां पर हिंडन नदी पर एलीवेटेट रोड एनसीआर योजना में बनाई जा रही है।” बागपत के विकास पर उनका कहना था कि संबंधित जिले या विकास प्राधिकरण को योजना भेजनी होती है। तभी एनसीआर बोर्ड किसी योजना की फंडिंग करता है।
यानी सब कुछ बस एडहॉक तरीके से चल रहा है। बस कुछ फंडिंग हासिल करने और एनसीआर के नाम पर लोगों को लुभाकर राजनैतिक फायदा उठाने का ही नाम एनसीआर प्लानिंग बोर्ड है।