यह तो ऐसी कहानी है जिसमें वाकई किसी धांसू फिल्म का मसाला है। जमाना करवट ले रहा है, पुराना फीका पड़ रहा है और उनकी जगह चुपचाप नए उभरते जा रहे हैं। महज चेहरे ही नहीं, नजारे, रंग-ढंग, तेवर और किस्सागोई के तौर-तरीके भी बदलते जा रहे हैं। जरा सोचिए पिछले कुछ साल से बॉलीवुड का परिदृश्य कैसे बदला हुआ है। आखिर यह कैसे और किसने किया? इसकी वजहें क्या रही हैं? इसका असर इतना जोरदार है कि आप इसे नवजागरण तक कह सकते हैं। मगर यह चुपचाप हुआ कैसे? क्या पुराने फिल्मी ‘मुगलों’ का हृदय-परिवर्तन हो गया? ऐसा तो कतई नहीं दिखता। असल में तमाम हो-हल्ले में किसी ने यह गौर ही नहीं किया कि बॉलीवुड में मूवी ‘मुगलों’ की नई बिरादरी अपनी जगह बना चुकी है। ये कल्पना के अपने घोड़ों पर सवार दूर-दराज कोनों से ऐसी कहानियों, सपनों और चिंताओं को उठा कर लाते हैं जिनसे पूरा परदा ही बदल जाता है।
इससे बॉलीवुड के पारंपरिक प्रोडक्शन हाउसों पर खतरा मंडराने लगा है। अचानक निर्माताओं की ऐसी तेज पीढ़ी आ गई है जिसके पास ताजा स्टोरी आइडिया ही नहीं बल्कि बॉलीवुड को संभालने, सज्जित करने और तेज रफ्तार देने के अलावा इंडस्ट्री पर वर्षों से राज करने वाले परिवारों को नेपथ्य में भेजने का माद्दा भी है। यह पुरानी पीढ़ी से अलग हैं क्योंकि ये सिनेमा के बारे में नए तरीके से सोचते-समझते हैं। इनमें कई ऐसे निर्देशक हैं जो सिनेमा की हर विधा में पारंगत हैं।
नीरज पांडे और आनंद एल. राय से लेकर सुजोय घोष और सुजीत सरकार जैसे महत्वाकांक्षी निर्देशक मुख्यधारा के निर्माता बन गए हैं और अपने घरेलू बैनर तले नियमित अंतराल पर गुणवत्तापूर्ण फिल्में बना रहे हैं। इनमें से कुछ ने तो सीधे प्रोडक्शन से ही शुरुआत की तो दूसरों ने अचानक कुछ हिट फिल्में देकर चोटी पर पहुंचने वाले बॉलीवुड के ठेठ व्याकरण को झुठला दिया।
एक समय फिल्म निर्माण के व्यवसाय का साफ वर्गीकरण था। जहां भारी जेब वाले निर्माता शीर्ष पर थे। वे अपनी शर्तें अपने निर्देशकों को बता दिया करते थे। कुलमिलाकर यही थी हिंदी सिनेमा की दुनिया। लेकिन फिल्म निर्माताओं की नई पीढ़ी ने इन दोनों भूमिकाओं को एक कर दिया है। ये खर्च पर नजर रखते हैं और उसका विवेक से इस्तेमाल करते हैं क्योंकि अदाकारी में भी उनकी गहरी पैठ है। इसलिए, उनका रचनात्मक कौशल किसी दखलंदाजी से मजबूर नहीं होता।
इसका काम के तरीके पर भी असर पड़ता है। ये नए मूवी ‘मुगल’ अब ‘कारोबार पर नजर रखने वाले फिल्म निर्माता’ भी है और फिल्म कौशल दिखाने वाले ‘निर्देशक’ भी हैं। अब वह दौर खत्म हो चुका है कि सुपरहिट फिल्म की कहानी के लिए कोई प्रतिभाशाली निर्देशक किसी बड़े पैसे वाले के टावर के बाहर कहानी सुनाने के लिए बारी के इंतजार में कतार में लगा रहे। आज, होनहार फिल्मकारों के लिए फाइनेंसरों की कमी नहीं है। कई साधन संपन्न निवेशक, सभी सुविधाओं से युक्त बड़े स्टूडियो से लेकर स्वतंत्र निर्माता योग्य लोगों के लिए बड़ा फलक उपलब्ध कराने के प्रस्ताव के साथ तैयार खड़े हैं।
तो, इस नई पीढ़ी के बारे में असाधारण क्या है? इनमें से किसी के परिवार का सदस्य फिल्मों में नहीं है, न तो पिता और न ही दादा। उनमें तो बस मनोरंजन का नया एहसास और किस्सागोई का नया अंदाज है। यह अंदाज उनके मन में तब बसा जब सुदूर इलाकों से मुंबई आने से पहले वे भी आम आदमी ही थे।
हालांकि उनके उभार से आदित्य चोपड़ा और करण जौहर के बैनर के पर्दे गिरने जैसा माहौल नहीं है। ये अभी भी शीर्ष पर हैं और हरदम हिट फिल्में देते हैं। लेकिन उन्हें भी बदलाव के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए उभरती हुई प्रतिभाओं के साथ हाथ मिलाने की जरूरत है। ऐसे में, आमिर खान जैसा कोई शख्स परिवर्तन का स्वरूप बनता है जो फिल्मी परिवार से तो है पर वह सबसे पहले पुरानी लीक को तोड़ने का संकेत देता है। लेकिन नए आने वालों में से किसी एक को देखें तो आप सामाजिक फर्क साफ-साफ देख सकते हैं।
नीरज पांडे जब कोलकाता से 2000 में आए थे तो उनकी उम्र महज 27 साल थी। साहित्य के स्नातक पांडे खुद कहते हैं, “जब मैं अपना भाग्य आजमाने मुंबई पहुंचा तो मेरे पास लिखने के अलावा कोई योग्यता नहीं थी।” अपने मित्र शीतल भाटिया की टीवी कंपनी में कुछ समय काम करने के बाद उन्होंने कुछ फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिखी। उनकी लिखी पहली तीन स्क्रिप्ट तुरंत नामंजूर कर दी गई। अपनी चौथी स्क्रिप्ट ए वेडनसडे को लेकर भी वह शहर के कई प्रोडक्शन हाउस में गए पर इसे भी कोई लेने वाला नहीं मिला।
जब कोई निर्माता नहीं मिला तो पांडे और भाटिया ने ए वेडनसडे को अपने बैनर तले बनाने का फैसला किया। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। 2008 में रिलीज हुई इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर जैसे अभिनेताओं ने काम किया था। बहुत कम बजट वाली इस फिल्म ने पांडेय की पहचान क्षमतावान निर्देशक की बना दी। ऐसा निर्देशक जो बूढ़े आदमी की राजनीति पर प्रतिक्रिया से भी दिलचस्प कहानी गढ़ लेता हो। यह ऐसा प्लॉट था जिसे बड़े बैनरों ने घिसा-पिटा करार दिया था।
दस साल बाद पांडे एक अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाले बैनर का नेतृत्व कर रहे हैं और शीर्ष पटकथा लेखक के रूप जाने जाते हैं। उनकी प्रतिष्ठा विचारशील फिल्म निर्माता के रूप में बनी है। उनके नाम स्पेशल 26 (2013) और बेबी (2015) से लेकर एमएस धोनीःद अनटोल्ड स्टोरी (2016) जैसी हिट फिल्में हैं। ये फिल्में आलोचना और व्यावसायिक दोनों स्तर पर काफी सफल रही हैं। 44 साल के नीरज पांडे की अगली फिल्म मनोज वाजपेयी-सिद्धार्थ मल्होत्रा अभिनीत फिल्म ऐय्यारी है। यह फिल्म गणतंत्र दिवस के दिन रिलीज होगी। बॉक्स ऑफिस पर इसकी टक्कर इसी दिन रिलीज होने वाली अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन से होगी।
लेकिन इन वर्षों के दौरान पांडे ने खुद को निर्देशन के काम तक ही सीमित नहीं किया, न ही सिर्फ उन्हीं फिल्मों के लिए मेगाफोन पहना जो उनके बैनर तले बनीं। इन फिल्मों में टोटल सियापा (2014), रुस्तम (2016), नाम शबाना (2017) और टॉयलेटः एक प्रेम कथा (2017) शामिल थीं। अगर उन्होंने धोनी पर बनी दूसरे बैनर की फिल्म का निर्देशन किया तो अपने बैनर तले नए निर्देशकों को भी मौका दिया। पांडे के समकालीन आनंद एल. राय, इम्तियाज अली, सुजीत सरकार, सुजोय घोष, दिवाकर बनर्जी, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाणी भी इसी तरह की भावना रखते हैं।
सबसे ज्यादा मांग वाले 46 साल के आनंद एल. राय की निर्देशक के रूप में शुरुआत धमाकेदार नहीं हुई थी। उनकी दो फिल्में स्ट्रेंजर (2007) और थोड़ी लाइफ थोड़ा मैजिक (2008) कोई लहर पैदा नहीं कर सकी थी। कंगना रणौत अभिनीत तनु वेड्स मनु (2011) के रूप में जब उन्होंने जीवंत कहानी पेश की तब वे बड़े नामों में शामिल हुए। इसके बाद से उनकी सफलता जारी है। रांझना (2013) और सुपर हिट तनु वेड्स मनु रिटर्न्स (2015) ने सफलता के नए झंडे गाड़े।
लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक और पहलू भी है। यह दूसरों को ताकत देने वाला है। उद्योग की परिस्थिति कैसे बदल रही है इसके लिए यह महत्वपूर्ण है। राय ने निल बटे सन्नाटा (2016), हैप्पी भाग जाएगी (2016) और शुभ मंगल सावधान (2017) फिल्में बनाईं। इसमें क्रमशः अश्विनी अय्यर-तिवारी, मुदस्सर अजीज और आर.एस. प्रसन्ना जैसी नई प्रतिभाओं को ब्रेक दिया।
अनुराग कश्यप के निर्देशन में बन रही फिल्म मुक्काबाज है। वास्तव में, कश्यप की छवि वर्तमान निर्देशकों के समूह को आजादी की पहली हलचल से जोड़ने वाले की है। वह चोपड़ाओं और जौहरों के वर्चस्व वाले दौर में समानांतर सिनेमा के अग्रणी फिल्म निर्माताओं में से हैं। राय के अलावा विधु विनोद चोपड़ा, रामगोपाल वर्मा, संजय लीला भंसाली, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, राजकुमार हिरानी, तिग्मांशु धूलिया, आर. बालकी, नागेश कुकुनूर जैसे लोग भी हैं जिन्होंने नए आने वाले लोगों के लिए राह आसान बनाई है।
यह भी सच है कि मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और सुभाष घई जैसे महान निर्माताओं की एक जमात भी रही है। इन सभी ने भी दोहरी भूमिकाएं निभाते हुए न सिर्फ कई हिट फिल्में दीं बल्कि अपनी व्यापक शैली और ब्रांड से ‘हिंदुस्तानी फिल्म’ के पूरे युग को परिभाषित भी किया।
लेकिन एक महत्वपूर्ण अंतर है। प्रचलित सिनेमा के दौर में बतौर निर्देशक वे एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बन गए। उन्होंने संभावनाओं के ढांचे को कभी आगे नहीं बढ़ाया। निर्माता के रूप में उन्होंने साधन रहने के बाद भी शशि कपूर की तरह दूसरी तरह की फिल्मों पर कोई दांव नहीं लगाया। वे परंपरागत सिनेमा की अपनी दुनिया से कभी बाहर नहीं आए। घई ने जरूर अपने बैनर तले जॉगर्स पार्क (2003) और इकबाल (2005) जैसी अच्छी ऑफबीट फिल्में बनाईं मगर कुछ असफलताओं के कारण इसे जारी नहीं रख सके। यश चोपड़ा भी लम्हे (1991) के फ्लॉप होने के बाद भी अपने पारंपरिक रोमांटिक फिल्मों के घेरे से बाहर नहीं निकले।
मौजूदा दौर के लोग कुछ अलग पेश करते हैं। ये नए और बोल्ड विषयों में प्रयोग करने के लिए आतुर रहते हैं। राय पुरुषों की कमजोरी से जुड़ी तमिल फिल्म की रीमेकिंग शुभ मंगल सावधान बनाते हैं। पांडेय खुले में शौच की समस्या पर फिल्म बनाने से नहीं हिचकते और टॉयलेटः एक प्रेम कथा दर्शकों के सामने पेश करते हैं।
इसकी वजह ट्रेड विशेषज्ञ एक नहीं, कई बताते हैं। कई मानते हैं कि दर्शकों के टेस्ट में आया बदलाव गेम चेंजर साबित हुआ है। नए साधनों (डीवीडी, वेब प्लेटफॉर्म) से सर्वश्रेष्ठ सिनेमा देखना अब आसान हो गया है। दूसरे इस बात को महत्वपूर्ण मानते हैं कि डिजिटल युग में उत्पादन लागत में आई कमी बदलावों की वास्तविक वजह साबित हुई है। लेकिन ये भी इससे सहमत हैं कि नई प्रतिभाओं के बिना बदलाव की कल्पना नहीं की जा सकती और दर्शकों को तैयार रहना होगा।
कारण चाहे जो भी हो, जोखिम उठाने वाले फिल्म निर्माताओं की संख्या बढ़ती जा रही है। जब वी मेट (2007), लव आजकल (2009) और रॉकस्टार (2011) जैसी फिल्में बनाकर ट्रेड सेटर के रूप में उभरे इम्तियाज अली भी मानते हैं कि यह बदलाव विविध अनुभव रखने वाली नई पीढ़ी के साथ आता है। यह बड़े शहरों में लंबे समय तक रहे लोगों से अलग सोच रखती है। अली आउटलुक से कहते हैं, “नए निर्देशक, जिनमें से अधिकांश मेरी तरह छोटे शहर से हैं, नई सोच और संवेदनशीलता लेकर आते हैं, उन्होंने काफी यात्रा की होती है। यहां आने से पहले काफी लोगों से मिल चुके होते हैं। इसकी वजह से उनमें देश में क्या हो रहा है, इसकी व्यावहारिक जानकारी होती है।”
फिल्मी दुनिया में कदम रखने से पहले पटना और जमशेदपुर में अपना रचनात्मक समय गुजार चुके अली कहते हैं, “वे माटी की खूशबू लेकर आते हैं और समृद्ध भाषा बोलते हैं। यह हमारे लिए अच्छा अवसर उपलब्ध कराता है क्योंकि सिनेमा अपनी पुरानी शैली में बदलाव की कोशिश कर रहा है।” वे कहते हैं, “हम इस बात को लेकर खुश हैं कि हम जब यहां आए हैं बदलाव का दौर चल रहा है। एक अर्थ में हम इस परिवर्तन को लाने वाले और इसके लाभार्थी दोनों हैं।”
हाइवे (2014) के 46 वर्षीय निर्माता-निर्देशक अली कहते हैं, “जब वे आए थे तब दो ही तरह की फिल्में कला और व्यावसायिक ही बनती थीं। मगर आप आज किसी मल्टीप्लेक्स में जाएं तो वहां अलग शैली और बजट की पांच फिल्मों के पोस्टर एक साथ लगे रहते हैं।” वे कहते हैं, “सभी नए फिल्म निर्माता मूल रूप से कहानीकार हैं। फिल्म के व्यवसाय में आए सभी बदलाव कहानी के कारण ही हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि मेरे जैसे लोग पहचान और सम्मान पा रहे हैं और स्टूडियो हमारे प्रोजेक्ट में निवेश करने के लिए तैयार हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम मूलतः कहानीकार हैं, व्यवसायी नहीं।”
कंगना रणौत को लेकर क्वीन (2014) बना कर सुर्खियों में आए विकास बहल कहते हैं, “वे खुद हर साल एक या दो से ज्यादा फिल्में नहीं बना सकते। इसलिए वे अपनी कहानियां दूसरे प्रतिभाशाली निर्देशकों के माध्यम से दिखाना चाहते हैं।” बहल आज के माहौल की तुलना 60-70 वर्ष पहले से करते हैं। तब विविध पृष्ठभूमि वाली नई प्रतिभाओं का उदय महान राजनैतिक बदलाव के बीच हुआ था। वे कहते हैं, “उन दिनों वंश परंपरा नहीं थी। उनकी कहानियां ताजा थीं और लोगों से तुरंत जुड़ने वाली थीं।” बहल अभी बिहार के गणितज्ञ आनंद कुमार की बायोपिक सुपर 30 बना रहे हैं। इस फिल्म में ऋतिक रोशन आनंद कुमार का रोल अदा कर रहे हैं।
अली कहते हैं, “हम केवल दर्शकों का अनुसरण कर रहे हैं। विश्व सिनेमा, मीडिया, सोशल मीडिया, इंटरनेट...घाटकोपर में बैठा व्यक्ति बोस्नियाई फिल्म देख रहा। वह एक ही समय में टाइगर जिंदा है (2017) और तमाशा (2015) या न्यूटन (2017) देख रहा है।”
हाल में परंपरा से हट कर बनी फिल्मों की सफलता बताती है कि इस तरह की फिल्म देखने वालों की संख्या बढ़ रही है। सुजीत सरकार ने स्पर्म डोनेशन पर 2012 में विक्की डोनर बनाई। इसके बाद श्रीलंका के लिट्टे संकट पर बनी मद्रास कैफे में वह निर्माता के रूप में बदल गए। उन्होंने दूसरे बैनर की पीकू (2015) का निर्देशन किया। फिर पिंक (2016) और रनिंग शादी (2017) बनाई। 2005 में निर्देशन की शुरुआत करने वाले सरकार वरुण धवन-बनिता संधू की 2018 में रिलीज होने वाली फिल्म अक्टूबर में कैमरे के पीछे रहेंगे।
सरकार की तरह सुजोय घोष अपनी दोहरी भूमिका में तल्लीन रहे। नारी केंद्रित फिल्म कहानी के लेखन के बाद उन्होंने दूसरे निर्देशक की अमिताभ बच्चन, विद्या बालन, नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत तीन के निर्माण में काफी वक्त लिया। इसी तरह मोटवाणी ने उनके निर्देशन में उड़ान (2010), लुटेरा (2013) और राजकुमार राव अभिनीत ट्रैप्ड (2017) में काम किया। लेकिन बतौर पार्टनर वह फैंटम फिल्म्स के साथ जो कर रहे हैं वह मनोरंजक है। खुद के बैनर तले बन रही भवेश जोशी के अलावा उन्होंने उड़ता पंजाब (2016), शानदार (2016), बॉम्बे वैलेट (2015) और हंटर (2015) का निर्माण तो किया ही करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शन के साथ मिलकर भी फिल्म बनाई। दूसरी ओर दिवाकर आदित्य चोपड़ा प्रोडक्शन से जुड़कर संदीप और पिंकी फरार का निर्देशन कर रहे हैं। इससे पहले उन्होंने डिटेक्टिव व्योमकेश बक्शी (2015) का निर्माण किया और दूसरे निर्देशक को मौका देने के लिए यशराज फिल्म्स के साथ मिलकर तितली (2015) बनाई।
हर उदाहरण ट्रेंड की पुष्टि करता नजर आ रहा है। साहस की मूल भावना और खुलापन नए ‘मुगलों’ के आने का प्रतीक है। दरअसल, इन्हें ‘मुगल’ की संज्ञा देना उचित नहीं होगा। यह वैसे अहंकारी व्यक्ति की याद दिलाता है जो खुद के जीवन से बड़ी छवि और अपने साम्राज्य की चिंता करता है और दावेदारों से खुद को दूर रखने के लिए किले की दीवार बनवाता है। नया साम्राज्य एक संयोजन है, एक सच्चा सामूहिक उद्यम।