इन दिनों देशवासियों में राष्ट्रीयता, साहस, शौर्य और बलिदान की भावना भरने के लिए विचित्र किस्म की कोशिशें की जा रही हैं। इनके पीछे विवेक कम, दुराग्रह अधिक नजर आता है। ताजा खबर है कि रेलवे सुरक्षा बल (मध्य रेलवे) के अतिरिक्त मुख्य सुरक्षा आयुक्त प्रणव कुमार ने रेलवे बोर्ड को एक नोट भेज कर सुझाव दिया है कि महिला यात्रियों के लिए आरक्षित डिब्बों का रंग भगवा कर दिया जाए क्योंकि यह रंग साहस, शौर्य और बलिदान का प्रतीक है। इससे महिलाओं को उन पुरुषों का सामना करने की प्रेरणा मिलेगी जो जबरदस्ती इन डिब्बों में घुस आते हैं। साथ ही यह पुरुषों को भी ऐसा न करने की प्रेरणा देगा। इसके कुछ ही दिन पहले खबर आई थी कि दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज (सांध्य) की प्रबंधन समिति ने निर्णय लिया है कि उसका नाम बदल कर वंदे मातरम् कॉलेज कर दिया जाए। प्रबंधन समिति के अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं। जुलाई में मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि तमिलनाडु के सभी स्कूलों में प्रति सप्ताह और सभी सरकारी एवं प्राइवेट दफ्तरों में प्रति माह कम से कम एक बार ‘वंदे मातरम्’ गाना अनिवार्य होगा। 1993 में जब दिल्ली में भाजपा की सरकार सत्ता में आई थी तब दिल्ली के सभी स्कूलों में भी राष्ट्रगीत गाना अनिवार्य कर दिया गया था। उत्तरी भारत का शायद ही कोई ऐसा शहर, कस्बा या गांव हो जहां दीवारों पर यह नारा लिखा हुआ न देखा गया हो, “यदि भारत में रहना होगा, वंदे मातरम् कहना होगा।”
दयाल सिंह मजीठिया उन्नीसवीं सदी के पंजाब के जाने-माने व्यवसायी, समाज सुधारक और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित व्यक्ति थे। उनके नाम पर स्थापित कॉलेज का नाम बदलने के निर्णय की स्वाभाविक रूप से चारों तरफ आलोचना हुई जिसमें अकाली दल की प्रतिक्रया काफी तीखी रही। इसे देखकर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने स्पष्ट किया कि इस निर्णय पर अमल नहीं किया जाएगा। उनका यह बयान स्वागत योग्य है लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं छुपाया जा सकता कि संघ परिवार और उसके भाजपा जैसे आनुषंगिक संगठनों में हर जगह जबरदस्ती ‘वंदे मातरम्’ थोपने की प्रवृत्ति प्रबल है। इसकी प्रतिक्रिया में कट्टरपंथी मुस्लिम नेता और संगठन भी जिस प्रकार का विरोधपरक रवैया अपनाते हैं वह भी काफी हद तक दुर्भाग्यपूर्ण है।
दरअसल समस्या यह है कि ‘वंदे मातरम्’ को देखने की दृष्टियां अलग-अलग हैं। इस समय संवैधानिक व्यवस्था यह है कि ‘जन गण मन’ हमारा राष्ट्रगान और ‘वंदे मातरम्’ हमारा राष्ट्रगीत है। हालांकि दोनों को बराबर का दर्जा हासिल है लेकिन राष्ट्रगान के रूप में केवल ‘जन गण मन’ का ही इस्तेमाल होता है। परंपरा यह पड़ गई है कि सरकारी कार्यक्रमों की शुरुआत में राष्ट्रगान गाया या बजाया जाता है और अंत में राष्ट्रगीत। राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत की यह व्यवस्था संविधान सभा के अंतिम सत्र के अंतिम दिन 24 जनवरी 1950 को सभापति राजेंद्र प्रसाद ने स्वयं दी थी। उनके प्रस्ताव पर कोई चर्चा या मतदान नहीं हुआ और इसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि समूचे ‘वंदे मातरम्’ गीत को नहीं, केवल उसके उन आरंभिक दो चरणों को ही स्वीकार किया गया है जिनमें भारत माता की प्राकृतिक सुषमा और नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन है। हिंदुत्ववादियों को यही अखरता है क्योंकि उन्हें यह गीत उसके उस मूल रूप में ही पसंद है जिस रूप में यह बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल है। यूं इसे बंकिम ने 1875 में स्वतंत्र गीत के रूप में लिखा था और इसमें भारत माता की नहीं, बंग माता की वंदना की गई है। मातृभूमि की कल्पना पहले दस प्रकार के आयुध धारण करने वाली दुर्गा और फिर राक्षसों का संहार करने वाली क्रुद्ध काली के रूप में की गई है। आनंद मठ की पृष्ठभूमि में 1770 का अकाल है और उसके नायक दशनामी नागा संन्यासी हैं जो अंग्रेजों की कठपुतली बने हुए मुस्लिम नवाब के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करते हैं। इन्हें संतान कहा गया है। पूरे उपन्यास में ही मुस्लिम-विरोध की अंतःसलिला बह रही है।
उपन्यास के चतुर्थ खंड के पहले ही पृष्ठ पर वर्णित एक दृश्य की बानगी देखिए और आजकल के दृश्यों से तुलना कीजिए, “कोई पथिकों और गृहस्थों को पकड़कर कहता, “वंदे मातरम् कहो, नहीं तो मार डालूंगा।” उस एक ही रात में गांव-गांव, नगर-नगर महा कोलाहल मच गया। संतान लोग कहते, मुसलमान परास्त हो गए हैं, देश फिर से हिंदुओं का हो गया है।”
दिलचस्प बात यह है कि 1983 में पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के एक सदस्य ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकार को आनंद मठ उपन्यास के प्रचार के लिए हर संभव कदम उठाना चाहिए क्योंकि इसी के कारण ‘वंदे मातरम्’ लोकप्रिय हुआ। सत्ताधारी वाम मोर्चे की सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि वह इस प्रस्ताव का विरोध करे। केवल मोर्चे के एक छोटे से हिस्से की ओर से विरोध किया गया। जहां तक हिंदुत्ववादी दृष्टि का सवाल है, उसे संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ‘हमारी मातृभूमि’ लेख में मातृभूमि के दुर्गा स्वरूप को रेखांकित करके स्पष्ट कर चुके हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)