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डॉ. नगेंद्र एक बहुआयामी व्यक्तित्व

अथक परिश्रम, सूझबूझ और संघर्षशीलता से अंग्रेजियत के माहौल वाले दिल्‍ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग को दी अनोखी गरिमा और नई दिशा
वरिष्ठ आलोचक डॉ. नगेंद्र

मैं 1964 में दिल्‍ली आया। उस समय डॉ. नगेंद्र अपनी प्रभुता और यश के चरम शिखर पर थे। पूरे भारतवर्ष के विश्वविद्यालयों का हिंदी-विभाग उनकी प्रभुता की आंच का स्पर्श कर रहा था। नियुक्तियों में उनका प्रमुख हाथ था। अनेक सरकारी समितियों में भी वे थे और वहां भी नियुक्तियों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। दिल्‍ली विश्वविद्यालय में तो उनकी धाक के आतंक का क्या कहना! उनकी मर्जी के बिना हिंदी विभाग में कोई पत्ता नहीं हिलता था। उनसे मिलने में लोग घबराते थे। छात्रों की तो बात ही क्या, विभाग के लोगों को भी उनकी कठोर मुद्रा विचलित कर देती थी। लेकिन उनके आतंक के पीछे उनके स्वभाव के साथ-साथ उनकी उत्कृष्ट कर्मठता थी। उन्होंने अपने अथक परिश्रम, सूझबूझ और संघर्षशीलता से अंग्रेजियत के माहौल वाले दिल्‍ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग को बनाया, उसे अस्मिता दी, गरिमा दी, थोड़े ही दिनों में भारतवर्ष के गिने-चुने प्रतिष्ठित हिंदी विभागों के समकक्ष ला दिया, यह बहुत बड़ी बात थी।

प्रभावशाली प्रोफेसर के साथ-साथ वे वरिष्ठ आलोचक और काव्यशास्‍त्री थे। जाहिर है नगेंद्र जी विभागीय दायित्व और लेखकीय दायित्व दोनों को समान गरिमा और वरीयता से निभाना चाहते थे तथा निभा रहे थे। अंतः उन्हें अपने समय की मूल्यवत्ता को पहचानना ही था।

नगेंद्र जी की कार्य-पद्धति में त्वरा थी। वे काम को न तो लटकाते थे न उलझाते थे। काम चाहे उनका हो चाहे आपका, तुरंत करते थे और किसी को झूठे आश्वासन नहीं देते थे। वे साफ ‘हां’ या ‘ना’ कह देते थे। किसी को भ्रम में नहीं रखते थे। इसी तरह उनके दोस्त और दुश्मन भी साफ होते थे। उनकी पसंद-नापसंद होती थी। अपनी नापसंद और दुश्मन के प्रति अपने व्यवहार को कटु से कटु रूप में भी व्यक्त कर सकते थे।

नगेंद्र जी ने हिंदी-विभाग को बनाया, इसके लिए उन्होंने स्‍थानीय शिष्यों के साथ-साथ बाहर के विश्वविद्यालयों के लोगों को भी खूब नियुक्त किया। वे अपने समय के प्रति सचेत होने के कारण यह जानते थे कि कौन व्यक्ति क्या है। बाहर के अनेक नए साहित्यकारों और लेखकों को उन्होंने बड़े स्नेह से अपने यहां नियुक्त किया। नियुक्तियों में बहुत बड़े-बड़े लोग जाति-पांत का धंधा चला रहे थे। नगेंद्र जी इस रोग से कभी ग्रस्त नहीं हुए, बल्कि इसका विरोध ही किया। दिल्‍ली में बाहर से आए हुए लोग उनसे उपकृत थे और दिल्‍ली के प्राध्यापक तो उनके छात्र ही थे जिनमें से कितनों को तो उन्होंने सपरिवार लगाया था और जो निरंतर उनकी कृपा-दृष्टि का प्रसाद पा रहे थे।

मैं भी उपकृत था, गहरे उपकृत था। जब मैं अहमदाबाद से विस्‍थापित होने की स्थिति में आ गया था तब नगेंद्र जी ने अपनी सारी व्यक्तिगत नापसंदगी के बावजूद मुझे डी.ए.वी. कॉलेज में नियुक्त किया। मेरे प्रति व्यक्तिगत नापसंदगी उन पर कुछ लोगों द्वारा थोपी गई थी। इसके बावजूद वे यह नहीं सहन कर सकते थे कि साहित्य-जगत में उभरता हुआ एक व्यक्ति बेकारी की सजा भोगे। उनकी साहित्यधर्मिता उनके व्यक्तिगत राग-विराग से टकराकर ऊपर आ गई। मुझे नियुक्त कर दिया। सच पूछिए तो नगेंद्र जी के इस साहित्यकार की महत्ता के प्रति मेरे और मेरे जैसे अनेक साहित्यधर्मियों के मन में सम्मान का भाव ज्यादा रहा है।

जूनियरिटी-सीनियरिटी का वे बहुत ध्यान रखते थे और जब कभी साहित्यिक और विश्वविद्यालयी वातावरण एक-दूसरे में धंस जाते थे यानी गोष्ठी तो साहित्यिक होती थी लेकिन वक्ता प्राध्यापकों के बीच से होते थे तो वहां साहित्यकारों का वरिष्ठता-क्रम प्राध्यापकों के वरिष्ठता-क्रम में बदल जाता था। डॉ. नगेंद्र के व्यक्तित्व के कई रंग थे, जिन्हें मैं धीरे-धीरे अनुभव करता गया।

डॉ. सावित्री सिन्हा से मेरा नया-नया परिचय था। वैसे नाम से तो हम दोनों एक-दूसरे को जानते थे इसलिए जब हम पहली बार मिले तो एक-दूसरे के प्रति परिचय का भाव हम दोनों के मन में था। डॉ. सिन्हा का व्यक्तित्व बहुत उन्मुक्त था जो उनकी निश्छल खुली हंसी में व्यक्त होता था। हमारे संबंध उत्तरोत्तर गाढ़े तथा आत्मीय होते गए, पारिवारिक होते गए। कुछ समय बाद वे माडल टाउन में आ गईं। फिर तो हम लोगों का प्रायः रोज साथ उठना-बैठना होता था, नगेंद्र जी भी आ जाते थे। हम घूमने निकलते थे और नगेंद्र जी तब एकदम अनौपचारिक मुद्रा में होते थे, हंसी-विनोद करते थे। और तब लगता था कि ये नगेंद्र जी हैं। वे मेरे घर भी आते थे। घर में बैठकर वे हमारे साथ चाय पीते थे। इच्छा होती थी तो कुछ खाते भी थे। कितना अच्छा लगता था बाहर तने हुए नगेंद्र जी को अपने परिवार में सहज रूप में देखना। वहां बैठकर या झील के किनारे टहलते हुए न जाने किन-किन बातों को याद कर बच्चे की तरह हंसते थे, किन-किन पुराने-नए लोगों का निर्मल मजाक उड़ाते थे और मैं मन ही मन सोचता था कि नगेंद्र जी इस रूप में कितने अच्छे लगते हैं। इसी रूप में वे क्यों नहीं रहते हैं?

धीरे-धीरे तनाव के कवच के नीचे छिपे हुए अपने जीवन की विफलताओं और दर्द को जब वे कुछ खोल देते थे तब वे कितना समीप लगते थे। लगता था कि मैं ही नहीं, शैक्षिक और साहित्यिक सफलता के शिखर पर बैठा हुआ व्यक्ति भी शिकार हुआ है। बाद में अपनी आत्मकथा अर्ध कथा में उन्होंने इसकी संक्षिप्त कथा कही है। यानी नगेंद्र जी की अंतरंगता में चलने वाले व्यक्ति को उनके भीतर के नगेंद्र जी का साक्षात्कार बार-बार होता रहता था।

एक बार गर्मियों में आकाशवाणी ने आर्काइव के लिए नगेंद्र जी के साक्षात्कार का आयोजन किया था। साक्षात्कार लेने वालों में मैं था और जगदीश चतुर्वेदी थे। मैंने पूछा था, “डॉक्टर साहब, आपने रसवादी कविता से अपनी साहित्य-यात्रा आरंभ की थी, और जीवन के चौथेपन में फिर आपमें कविता के प्रति मोह जागा है यानी आपके आलोचक और आचार्य के नीचे अंतःसलिला की तरह कविता की रसधारा बहती रही है और अनौपचारिक क्षणों में आपके तने हुए विभागाध्यक्ष और प्रोफेसर के नीचे से हंसता-खिलखिलाता और हंसी-मजाक करता हुआ सहज मनुष्य उग आता रहा है। अतः आप यह बताइए कि आपका असली रूप क्या था।” और उन्होंने बहुत सहज ढंग से स्वीकार किया कि आचार्य या प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष का जो तना हुआ उनका रूप था वह असली नहीं था आरोपित था, असली रूप दूसरा वाला ही था। अवकाशप्राप्ति के बाद तो वह पहला रूप निरंतर गौण पड़ता गया। वह समाप्त हो गया, ऐसा नहीं कह सकता। बहुत दिन तक साथ चलता हुआ वह आरोपित रूप भी कहीं संस्कार बन गया था और वह बाद में भी हठी मुद्रा बनकर झांक-झांक उठता था लेकिन उस मुद्रा से जुड़ा हुआ जो आतंक था अब भला कैसे हो सकता था? पर उनके आत्मीय लोग अब भी उनकी हठी मुद्रा का सम्मान करते थे।

डॉ. नगेंद्र अपनी मान्यताओं में बहुत अविचल थे। साहित्य और जीवन दोनों ही क्षेत्रों में उनकी कुछ दृढ़ मान्यताएं थीं। प्रेमचंद के उपन्यास, छायावादोत्तर कविता, रसवाद आदि अनेक बिंदुओं पर उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता और हम लोग अपनी क्षमता के अनुसार अपनी असहमति दर्ज कराते रहते थे। वे हमें सुनते थे, संवाद करते थे मगर अपने निष्कर्ष पर अटल रहते थे। इस पर यदि विचार किया जाए तो ज्ञात होगा कि उनके इस निष्कर्ष के पीछे उनका व्यक्तिगत हठ नहीं था बल्कि शास्‍त्र और क्लासिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान और अनुभव था। उन्होंने शास्‍त्र तथा प्राचीन-समकालीन श्रेष्ठ साहित्य के भीतर से अपने निष्कर्ष प्राप्त किए थे। और निश्चय ही ये निष्कर्ष उन निष्कर्षों से अधिक प्रामाणिक और पुष्ट थे जिन्हें आधुनिकतावाद की हवा में उड़ते हुए और अपनी विरासत से बेखबर झुंड के झुंड लोग उछालते चलते रहे हैं, जो अपने परिवेश से कटे हुए पश्चिमी यथार्थ और अवधारणा को अपनी रचनाओं में उतारकर समझते रहे हैं कि उन्होंने साहित्य को प्रयोग की अनंत नई छवियां दी हैं और इन छवियों के आकलन के लिए नए प्रतिमानों की आवश्यकता है, जो अपनी परंपरा में निहित शक्तियों से नहीं, बल्कि पश्चिमी काव्यशास्त्रियों के उगले हुए तथा बासी पड़े हुए सूत्रों से निर्मित होंगे।

नगेंद्र जी को अपने साहित्य और साहित्यशास्‍त्र की परंपरा में निहित शक्तियों का बोध था और उन्होंने पश्चिमी साहित्य तथा साहित्यशास्‍त्र की शक्तियों का भी मंथन किया था। अतः वे दोनों ही शक्तियों के सम्यक विनियोग से अपनी मान्यता निर्मित करते रहे हैं और सौंदर्यबोध तथा मूल्यबोध दोनों की समन्वित छवियां उनके काव्य-चिंतन में उपस्थित हैं। लेकिन जैसे ईश्वरवाद और निरीश्वरवाद दोनों ही हमारी चिंतन-परंपरा की धाराएं हैं और दोनों के समर्थक अपने-अपने ढंग से परंपरा का साक्ष्य देते हैं और दोनों ही एक-दूसरे से वाद-संवाद करते हैं। वैसे ही नगेंद्र जी की तरह अन्य अनेक साहित्यकारों और साहित्य-चिंतकों ने अपनी परंपरा और पश्चिमी चिंतन की शक्तियों को अपना पुष्ट आधार बनाया है और उनकी मान्यताएं कुछ अलग तरह की हैं। वे नगेंद्र जी की मान्यताओं से टकराती हैं। परिवेश और परंपरा के पुष्ट आधारों पर निर्मित साहित्य और साहित्य-चिंतन में विविध छवियां होती हैं। ये छवियां आपस में वाद-संवाद करती रहती हैं और इस प्रक्रिया में वे विकसित होती चलती हैं।

साहित्य की अनुभूतियों और चिंतन में वैविध्य न हो और उनमें परस्पर टकराहट न हो तो एकरूपता आने का खतरा होता है और विकास-प्रक्रिया भी रुक जाती है। इसलिए नगेंद्र जी भी आचार्य शुक्ल से टकराए और डॉ. नगेंद्र से बाद की पीढ़ी के साहित्यकार टकराए। जहां टकराहट स्वस्थ रही वहां अनुभव और चिंतन को नए आयाम मिले। ‘काव्यशास्‍त्र’, ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’ उनके अध्यापन के विशेष क्षेत्र थे। अध्यापन की उनकी अपनी शैली थी, अपनी पद्धति थी।

डॉ. नगेंद्र की एक और विशेषता ध्यान आकृष्ट करती थी। वे बहुत स्पष्ट वक्ता थे। किसी से झूठे वायदे नहीं करते थे। वायदे करते थे तो निभाते थे। और हां, अपने प्रिय लोगों की बात को वजन देते थे। मैंने कई बार अपने किसी मित्र या शिष्य या शिष्या की नौकरी के लिए उनसे कहा, उसकी विवशताएं बताईं। उन्होंने सुना और उसकी स्थिति की विवशता का इजहार मैंने (यानी उनके एक प्रिय व्यक्ति ने) किया था इसलिए विश्वास भी किया। वे जब भी साक्षात्कार लेकर लौटते थे शाम को टहलते हुए मेरी ओर आ जाते थे और कहते थे, “इस बार भी उसका नहीं हो सका, कुछ अड़चनें आ गईं।” और जब तक उस व्यक्ति की नियुक्ति वे कर नहीं लेते थे तब तक साक्षात्कार के पश्चात मुझे इसी तरह सूचना देते रहते थे। कहां हैं अब ऐसे लोग?

डॉ. नगेंद्र की एक बड़ी विशेषता यह भी थी कि वे छोटे से छोटे व्यक्ति की अच्छी चीज की प्रशंसा करते थे-वह चीज चाहे लिखित हो, चाहे मौखिक। नगेंद्र जी की अध्यक्षता में बोलना अच्छा लगता था। इधर कुछ नामीगिरामी लेखकों की आदत बन गई है कि जब वे अध्यक्ष पद से बोलते हैं तो उनका अहंकार फुफकारने लगता है। वे अपनी धाक जमाने के प्रयोजन से बड़े-बड़े पूर्व वक्ताओं की काट-कूट शुरू कर देते हैं या किसी पर बोलते हैं किसी की उपेक्षा कर देते हैं। वह छोटापन नगेंद्र जी में नहीं था। उनमें एक बड़प्पन था, जिसके तहत वे हर वक्ता की अच्छी बात को रेखांकित करते थे। उससे अपनी सहमति भी जताते थे तो गौरवमय ढंग से।

(लेखक मूर्धन्य कथाकार, कवि और आलोचक हैं)

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