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छोटे वाक्यों में बड़ी बातें

जीवन के अकेलेपन की अक्कासी सादगी, सहजता को सुंदर ढंग से कहते थे त्रिलोचन
कवि त्रिलोचनः जटिलता जैसे उनके आसपास ठहर भी नहीं सकती थी

त्रिलोचन जी का व्यक्तित्व, बल्कि कवि व्यक्तित्व इतना सरल और सहजता लिए हुए था कि उसमें वक्रता के चिह्न शायद ही कहीं दिखें। जो लोग त्रिलोचन जी के साथ रहे हैं उन्होंने लक्ष्य किया होगा कि स्वभावत: त्रिलोचन संगोपनशील नहीं थे। उनकी मुखरता का आलम यह था कि साहित्य-चर्चा में दुनिया एक तरफ और शास्‍त्री जी एक तरफ।

उनकी सहजता में भाव, विचार और अनुभूति तीनों स्तरों पर स्पष्टता है। भावों को अनोखेपन से छूना, विचारों को खास तरकीब में रखना और अनुभूति को नई दीप्ति के साथ शब्दबद्ध करना उनका काव्य स्वभाव रहा है।

बयान की सादगी उनकी कविताओं में सबसे पहले हमारा ध्यान खींचती है। इस बयान की सादगी में एक पोढ़ापन, एक तरह की गूढ़ता की ओर संकेत करती हुई क्लासिकी संरचना कुछ-कुछ ध्वनियों के अथाह लोक वैभव को खंगालती हुई सी। बयान की सादगी काव्यानुभूति के उत्स को किस अबोधता के साथ उद्‍घाटित करती है, जरा ‘आरर डाल’ सानेट की पंक्तियों में छिपी-पैठी अभावग्रस्त जीवन की यह तलस्पर्शी वेदना सुनिए:

सचमुच इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई

झूठ क्या कहूं। पूरे दिन मशीन पर खटना,

बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई

का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना।

इस उस पर मन दौड़ना। फिर उठकर रोटी

करना। कभी नमक से कभी साग से खाना।

आरर डाल नौकरी है। यह बिलकुल खोटी

है। इसका कुछ ठीक नहीं है आना जाना।

आए दिन की बात है। वहां टोटा टोटा

छोड़ और क्या था। किस दिन क्या बेचा-कीना।

कमी अपार कमी का ही था अपना कोटा

नित्य कुआं खोदना तब कहीं पानी पीना।

धीरज धरो, आज कल करते तब आऊंगा,

जब देखूंगा अपने पुर कुछ कर पाऊंगा ।

आजीविका, अभावग्रस्तता और अपने जीवन के अकेलेपन की अक्कासी किस सादगी से कर ले गए हैं। कहने को त्रिलोचन आधुनिक कवि हैं। इसके अलावा भी बयान की बहुत सी खूबियां हैं। जैसे, वाक्यों की लाघवता (छोटा होना)। सानेट के दूसरे स्टेंजा पर ध्यान दीजिए। चार पंक्यिों में छह वाक्य हैं। वाक्यों में स्पष्‍टता है, स्पष्‍टता के साथ-साथ भावगत दृढ़ता है।

बयान की दृष्टि से कुछ और सानेट जिसमें वाक्यों की क्षिप्रता अथवा लाघवता कथ्य को कैसे गति देती है। ‘घर वापसी’ सानेट का यह आरंभ देखिए:

साबरमती रुकी है। इंजन बिगड़ गया है।

ठीक-ठाक करने में कितने हाथ लगे हैं

फैजाबाद ने खबर पाकर, सुना, कहा है

इंजन सुलभ नहीं है। यात्री थके-थके हैं।

अब आगे का क्रमिक विवरण देखिएः

घंटा गुजर गया, तब गाड़ी आगे सरकी

आने लगे बाग, हरियाले खेत, निराले;

अपनी भूमि दिखाई दी पहचानी, घर की

याद उमड़ आई मन में; तन रहा संभाले

(ताप के ताए हुए दिन)

त्रिलोचन अपनी कविताओं में भाव तथा विचारों का क्रमश: एक स्ट्रक्चर खड़ा करते जाते हैं। पहले एक भाव, उसके बाद दूसरा भाव, फिर उसी से निकलता कोई तीसरा विचार। कविता में बयान के एक स्थापत्य-एक स्ट्रोक के बाद दूसरा इस तरह कि अनुभव स्पष्‍ट आकार की ओर बढ़ता हुआ सा जान पड़ता है। चीनी पेंटिंग्स की तरह एक ही स्ट्रोक में पूरे आकार को उकेर देने वाली ‘स्पोंटिनिटी’ उनके यहां नहीं है। उनकी कविताओं में मानो शास्‍त्रीय राग की आकारधर्मिता समाई हुई हो, किसी व्यवस्थित बंदिश की तरह आदि और अंत लिए। अत: धैर्यवान पाठक ही इन रचनाओं का आनंद उठा सकते हैं। कविता ‘झापस’ देखिए जिसमें काव्य अनुभव का एक के बाद दूसरा दृश्य ऐसे खुलता है कि पूरा ‘लैंडस्केप’ उजागर हो जाता है।

कई दिनों से पड़ाव पड़ा हुआ है बादलों का

हिलने का नाम भी नहीं लेते

वर्षा, फुहार, कभी झीसी, कभी झिर्री, कभी रिमझिम

और कभी झर झर झर झर

बिजली चमकती है

चिर्री गिरती है

पेड़ पालो सभी कांपते हैं

सड़कें धुली धुली हैं

जैसे तेल लगी त्वचा हाथी की

इक्के दुक्के लोग आते जाते हैं

सैलानी दिखाई नहीं देते

ऐसे में कौन कहीं निकले

दुकानें उदास हैं

बैठे दुकानदार मक्खी मार रहे हैं

काफी हॉउस, रेस्तरां और होटलों में

चहल पहल पहले की नहीं है

गंगा तट सूना है

गिने चुने स्नानार्थी वही आते हैं

जो यहां सदा आते हैं

फूल वाले, पटरी के दुकानदार, भाजी वाले

आज अनुपस्थित हैं

चिड़ियां समेटे पंख जहां तहां बैठी हैं

जीवन और रोजमर्रा की बातों में वे जितने खर्चीले रहे हैं, कविता में उतने ही विलोम। वे कविता में शब्द नहीं वाक्य लिखते हैं। उनकी कविता में सौंदर्य और सहजता जीवन-दृष्टि की है। उनकी कविता का सौंदर्य लिबास में नहीं, अनुभव और संवेदना की निर्मिति में है। यही कारण है कि उन्हें अलंकरण की कम दरकार होती है। उनका सौंदर्य ‘नगई महरा’ में मिलेगा, ‘परदेसी के नाम पत्र’ में मिलेगा, ‘सचमुच इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई’ और ‘चम्पा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती’ या ‘झापस’ जैसे गीत और कविताओं में मिलेगा। इनमें संघर्ष है लेकिन सहज सुंदरता के साथ, ओढ़ा हुआ नहीं।

(लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर हैं। शीघ्र प्रकाश्य त्रिलोचन रचनावली के संपादक)

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