कथाकार नासिरा शर्मा ने हाल ही प्रकाशित एफ्रो-एशियाई साहित्य के छह खंडों (एफ्रोएशियाई कविताएं, एफ्रोएशियाई कहानियां, एफ्रोएशियाई लघु उपन्यास, एफ्रोएशियाई नाटक एवं बुद्धिजीवियों से बातचीत, भारतीय उर्दू कहानियां एवं भारतीयेतर उर्दू कहानियां) के जरिए साहित्य में ऐसे काम को अंजाम दिया है जो बड़ी संस्थाओं के वश का भी नहीं है। मध्यपूर्व एशियाई व पूर्वी मुल्कों के साहित्य की इस सीरीज को उन्होंने अदब की बाईं पसली कहा है जिसका अर्थ यह कि जीवन और अदब दोनों में स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। यह उस स्त्रीवादी सोच से अलहदा ख्याल है जिसके कारण बकौल नासिरा, “मुखरता बढ़ी है और खूबसूरती कम हुई है....रिश्तों में भी और शायरी में भी, जो गहरी चिंता का विषय है।”
एफ्रोएशियाई कविताओं के पहले खंड में नेपाल, अफगानिस्तान, इथियोपिया, सोमालिया, कुवैत व अन्य देश, फिलिस्तीन, ईरान, सीरिया, इराक व हिंदुस्तान, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान, लेबनान आदि देशों के कवियों की कविताएं शामिल हैं। इन देशों के राजनैतिक हालात को देखें तो अफगानिस्तान, इराक, ईरान और सीरिया, फिलिस्तीन, जिस भयावहता से गुजरे हैं उसके निशान भौतिक तौर पर चाहे मिट जाएं, पर आत्मा और हृदय पर लगी खरोंचें जब कविता या किस्सागोई की काया में घुल मिल जाती हैं तो अमिट हो जाती हैं। लिखने-बोलने की आजादी के लिए कलमकारों को कितनी जद्दोजहद उठानी पड़ी है, शायरों के कलाम उनके गवाह हैं। तभी तो सीरिया आकर नासिरा शर्मा के होठों से यह बात बेसाख्ता निकली थी कि “मैं यहां दुखों की खेती काटने आई हूं।” गए कुछ दशकों में बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों और आम आदमी पर जो गुजरी है उसका कतरा-कतरा इन रचनाओं में मौजूद है।
अनुवाद आसान काम नहीं। लोग शब्दों की त्वचा छूकर रूह में दाखिल होने का दावा करते हैं। अनुवादों की इन दुश्वारियों से नासिरा जी यहां मुठभेड़ करती हैं और कोशिश करती हैं कि अनुवाद में शब्दों की काया भले चरमराए, उसके भीतर की प्रतीति अविच्छिन्न रहे। हिंदी की दुनिया में वे अकेली इकाई हैं जिनकी दिलचस्पी मध्यपूर्व के देशों के जनजीवन और अदब में रही है। उन्हें मध्यपूर्व के देश लुभाते रहे हैं जबकि उनकी इच्छा बचपन से अफ्रीका के जंगलों में खो जाने की रही है। उनके लिए भाषाई सरहदों का कोई अर्थ नहीं, इसीलिए भाषाई चौहद्दियां लांघ कर उन्होंने वहां की जहनी खूबसूरती और इंसानियत के जज़्बे को यहां रूपायित किया है। यहां जीवन के लंबे और गहरे आलाप हैं तो बार बार अपनी कविताओं, नज्मों में पुनर्जन्म वाले कवि भी। वे हमीदा मोइन रिजवी के शेर उद्धृत करती हैं- ‘’लड़कियां जो किताब लिखती हैं/ जिंदगी के अज़ाब लिखती है/ उंगलियां हैं फ़िग़ार ज़ख्मों से/ काग़जों पर गुलाब लिखती हैं।’’
एफ्रोएशियाई साहित्य की खूबियां बयान के बाहर हैं। यहां आंसुओं का सफर है तो जागती आंखों के ख्वाब भी। कश्मीरी शबनम एशाई की नज़्में दुख से भीगी हैं। सफरे ईजाद में वे कहती हैं, “मैं मोर की मानिंद अपने पैरों को देख कर रोती हूं/ मेरे कदम मुझे वापस कर दो/इंतेकाल से पहले मैं अपना दिल कहीं बो देना चाहती हूं।” एक लेबनानी कवयित्री रिश्तों को इस तरह परिभाषित करती है : “मैं जानती हूं मर्द के दो दिल होते हैं/ और मेरा दिल वचनबद्ध/ मर्द का आना एक हल्का सैलाब है और जाना सिर्फ मलबे का ढेर।” जैसा कि कहा एफ्रोएशियाई कविताओं में जलावतनी के गमों से तार-तार हुई जिंदगी की शायरी है तो युद्ध, कत्लेआम, तबाही और तानाशाही का मंजर भी।
एफ्रोएशियाई कहानियों में मिस्र, अफगानिस्तान, इजरायल, ईरान, पाकिस्तान, फिलिस्तीन, इराक के कथाकारों की कहानियां हैं। जमीन वही...देश के हालात, आदमी के हालात, सियासत और मनुष्यता की संवेदना को रौंदती हुई क्रूरताएं। पर जीवन की जद्दोजहद, इंसानी रिश्ते सब जगह कमोवेश एक-से। लघु उपन्यासों में नासिरा जी ने फारसी भाषा के अंधा उल्लू, उर्दू भाषा के निसाइ आवाज और अरबी भाषा के आधी रात का मुकदमा को शामिल किया है। ये अपनी अपनी भाषाओं के चर्चित उपन्यास हैं। एफ्रोएशियाई नाटक एवं बुद्धिजीवियों से बातचीत में अरबी, फारसी, उर्दू नाटक हैं तो अनेक जाने-माने लेखकों से बातचीत भी जिनके केंद्र में देश-दुनिया व इंसान के तमाम प्रासंगिक मसले हैं। कुर्रतुल ऐन हैदर, इस्मत चुगताई, ज़ाहिदा हिना, गौहर मुराद, नफीसा अब्बासी, जलाल नूरानी, नादिया खोस्त आदि से गुफ्तगू संजीदा और बेबाकी से भरी है। भारतीय और भारतीयेतर उर्दू कहानियों से हिंदी के लोग लगभग नावाकिफ हैं। ये कहानियां हिंदी की काया में ढल कर कथ्य, लबोलहजे और किस्सागोई के लिहाज से एक नया गवाक्ष खोलती हैं।
नासिरा शर्मा का यह उपक्रम बड़ी अदबी संस्थाओं के बलबूते किया जाने वाला और उनकी लेखकीय गरिमा में चार चांद लगाने वाला है। छह खंडों के इस एफ्रोएशियाई साहित्य के प्रकाशन के बाद अदब की दुनिया कुछ और समृद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं।