नगालैंड, मेघालय और त्रिपुरा के चुनाव के ऐलान के साथ राजनैतिक परीक्षा की घंटी बज चुकी है। इसी के साथ वह सिलसिला भी शुरू हो गया है जिसकी परिणति अगले साल 2019 के ‘महाभारत’ में होगी। इसी ‘महाभारत’ या महा-मुकाबले से तय होगा कि 2014 के लोकसभा चुनावों से उतरी सियासी फिजा छंटेगी या बरकरार रहेगी। लेकिन ठहरिए, चुनावी तकाजों के लिए यह वर्ष जितना अहम लग रहा था, उससे कहीं ज्यादा बड़े तकरारों के दरवाजे खोलता नजर आ रहा है। 2018 देश की न्यायपालिका के इतिहास में एक अहम तारीख के रूप में दर्ज हो चुका है। फिर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की प्रक्रिया भी शायद लंबे समय तक नजीर बने। यानी ऐसे महाभारत की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी है, जिसमें सियासी दल ही नहीं, संवैधानिक संस्थाओं और राजनैतिक पंडितों और जानकारों की भी परीक्षा होनी है। सो, लगातार दांव ऊंचे होते जा रहे हैं।
आप के विधायकों की सदस्यता रद्द करने के प्रक्रियागत और कानूनी नुक्तों पर स्पष्टता के लिए तो बेशक अदालती मंतव्य की दरकार होगी मगर राजनैतिक नजरिए से इस फैसले का वक्त जरूर कई सवाल खड़े करता है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार के 2015 में इतनी बड़ी संख्या में संसदीय सचिव नियुक्त करने के फैसले पर नैतिक सवाल तो उठाए जा सकते हैं। लेकिन जिस नियुक्ति को पहले ही दिल्ली हाईकोर्ट 8 सितंबर 2016 को रद्द कर चुका है, उस पर लगभग बिना सुनवाई के चुनाव आयोग की सदस्यता खत्म करने की सिफारिश और उसे फौरन राष्ट्रपति की मंजूरी पर जानकारों की राय बंटी हुई है। इससे भी बड़ा विवाद न्यायपालिका का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो वाजिब ही कहा कि मुझे, सरकार और तमाम राजनैतिक दलों को उससे दूर रहना चाहिए। हालांकि वहां भी सवाल तो प्रत्यक्ष या परोक्ष राजनैतिक दखलंदाजी का ही है।
सवाल तो चुनाव आचार संहिता के वक्त में बजट को लेकर भी हैं। पिछले साल 2017 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम अहमद जैदी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के मद्देनजर केंद्रीय बजट और चुनाव की तारीखों को लेकर काफी लिखा-पढ़ी की थी। लेकिन जिस दौर में लगभग हर मामले को चुनावी हार-जीत से ही जायज-नाजायज ठहराने की प्रवृत्ति दिख रही हो, उसमें चुनावी गणित पर गौर करना ज्यादा मुनासिब होगा। पूर्वोत्तर के त्रिपुरा में 18 फरवरी को और मेघालय तथा नगालैंड में 27 फरवरी को मतदान होंगे और नतीजे तीन मार्च को आएंगे। इसी के आसपास कर्नाटक के चुनावों का भी ऐलान हो जाएगा। फिर इस साल के अंतिम महीनों में मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान के चुनाव हैं। चुनाव वाले पूर्वोत्तर के तीन राज्य तो छोटे हैं मगर उनकी राजनैतिक अहमियत कुछ खास है। केंद्र सरकार पूर्वोत्तर के लिए खास बजट आवंटन पर भी तवज्जो दे रही है और भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन पर काफी दांव लगा रखा है। हाल में इन राज्यों में अपनी ताकत दिखाने के मकसद से संघ ने असम में विशाल रैली भी की। खासकर त्रिपुरा में अरसे से वाम मोर्चे की सरकार है और मुख्यमंत्री माणिक सरकार की छवि भी अच्छी है। वाम मोर्चे की सरकार इस समय केरल के अलावा त्रिपुरा में ही है और इन दोनों राज्यों में भाजपा ज्यादा जोर लगा रही है। पार्टी त्रिपुरा में भी योगी आदित्यनाथ सरीखे अपने सभी प्रचारकों को उतारने की तैयारी कर रही है। भाजपा राज्य में करीब 32 प्रतिशत आदिवासियों के बीच पैठ बनाने की कोशिश में है और अलग आदिवासी क्षेत्र की मांग करने वाले संगठन नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ त्रिपुरा के साथ गठजोड़ की संभावना भी तलाश रही है।
नगालैंड में सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट के मुख्यमंत्री टी.आर. जेलियांग का कार्यकाल विवादों से पटा रहा है। वे शहरी निकायों में आरक्षण के मुद्दे पर कुछ महीने बाहर रहने के बाद जुलाई 2017 में सत्ता में लौटे। पीपुल्स फ्रंट में उनके और प्रतिद्वंद्वी नेता शुरहोजीली लीजीत्सु के बीच दिसंबर में ही सुलह हुई है। भाजपा को इसी कलह में अपने लिए उम्मीद दिख रही है। नगा समझौते के मसौदे और सर्वोच्च नगा आदिवासी पंचायत नगा होहो को लेकर विवाद भी गहरा है। नगा होहो ने चुनावों के बॉयकाट का ऐलान किया है। इसका चुनाव पर क्या असर पड़ता है, यह देखना होगा।
मेघालय में कांग्रेस अपना गढ़ बचाए रखने की कोशिश कर रही है। चुनाव वाले चार राज्यों में यहीं उसकी सरकार रह गई है। मुख्यमंत्री मुकुल संगमा आठ साल से सत्ता में हैं और अपने कार्यकाल में राज्य में स्थायित्व पर दांव लगाए हुए हैं। हालांकि पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों की तरह मेघालय भी केंद्रीय मदद पर आश्रित है इसलिए केंद्र की सरकार के प्रति हमेशा ही वहां की राजनीति में एक झुकाव दिखता है। वहां भाजपा की खास मौजूदगी नहीं है पर वह कोनार्ड के. संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी के साथ दांव आजमा रही है। यह पार्टी चुनाव तो अलग लड़ रही है लेकिन वह केंद्र में एनडीए की सहयोगी है।
राजनैतिक फिजा के लिहाज से सबसे अहम तो कर्नाटक है, जहां इन चुनावों के फौरन बाद मैदान खुल जाएगा। कर्नाटक कांग्रेस के पास बचा सबसे बड़ा राज्य है जहां भाजपा अगर जीत पाई तो उसका असर कई रूपों में दिख सकता है। लेकिन वहां मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने भाजपा की बढ़त को इधर कुछ समय से कमजोर कर दिया है। भाजपा अभी तक प्रभावशाली लिंगायत समुदाय और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की लोकप्रियता पर भरोसा करके चल रही थी। लेकिन सिद्धरमैया ने लिंगायत समुदाय को जैन और बौद्ध धर्म की तरह अलग पहचान देने की मांग करके बाजी पलट दी है।
लिंगायत समुदाय के बड़े धर्मगुरु और मठों का समर्थन भी सिद्धरमैया हासिल करने में कामयाब हो गए हैं जबकि इस सवाल पर भाजपा अभी दुविधा में है। राज्य सरकार के अगस्त में भेजे प्रस्ताव पर केंद्र चुप्पी लगाए बैठा है। सो, भाजपा अब पिछड़ी और दलित जातियों को लुभाने की कोशिश कर रही है। साथ ही साथ ध्रुवीकरण की कोशिश भी कर रही है। इसी मकसद से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को वहां घुमाया जा रहा है। इससे योगी और सिद्धरमैया के बीच बहस छिड़ गई है। इस बहस ने हिंदू बनाम हिंदुत्व का रूप ले लिया है। कांग्रेस ने इस मोर्चे पर भी भाजपा को चुनौती देने की रणनीति अपना ली है, जैसा कि गुजरात में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंदिर दर्शन से जाहिर कर दिया था।
यह भी सही है कि कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में राज्य सरकारों के कामकाज के अलावा केंद्रीय नीतियों का असर भी दिख सकता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में एंटी-इंकंबेंसी का असर भी दिख सकता है। इसलिए मजबूत केंद्रीय सपने और कथित मोदी लहर के बिना चुनाव आसान नहीं हो सकते हैं। यही बातें 2019 की चुनौती को कांटें की बना सकती हैं। हालांकि कांग्रेस की अपनी दिक्कतें भी हैं और हर राज्य में उसके नेताओं में आपसी कलह भी कम होने का नाम नहीं ले रही है लेकिन गुजरात के चुनावों से हासिल नया उत्साह भी काम कर सकता है। उधर, भाजपा की दिक्कत यह भी है कि अपनी पार्टी के शासन वाले राज्यों में लोकसभा में उसे सर्वाधिक सीटें मिल चुकी हैं। इसलिए राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कांग्रेस उसे कड़ी टक्कर देने में कामयाब हो जाती है तो उसका असर संसदीय चुनावों पर भी पड़ेगा।
अगर 2013 में हुए इन राज्यों के चुनावों पर गौर करें तो इनमें जीत ने ही 2014 का आधार तैयार करने में खासी भूमिका निभाई थी और एक मायने में मोदी को केंद्रीय मंच पर स्थापित किया था। हालांकि नजीर इसके विपरीत भी है। केंद्र में पहली एनडीए सरकार के दौरान 2003 में भाजपा तीन राज्यों के चुनावों में जीत गई तो यह कयास लगाया जाने लगा था कि एनडीए अपराजेय है। उसी भ्रम में चुनाव छह महीने पहले करा लिए जाने का फैसला किया गया लेकिन 2004 में कांग्रेस ने भाजपा को हरा दिया और केंद्र की सत्ता बदल गई। इसलिए दोनों ही स्थितियों में 2018 के चुनावों और तीखे होते मुद्दों का 2019 के महा-मुकाबले पर असर दिखेगा।