दरार कहने को तो हल्की-सी ही आई। लेकिन इससे लोकतंत्र के एक अहम स्तंभ की चूलें हिल उठीं। पूरी दुनिया स्तब्ध और अवाक देखती रही और धुंध और धुएं का गुबार चारों ओर छाने लगा। भला किसने यह सोचा होगा कि सुप्रीम कोर्ट के रोजमर्रा के सामान्य प्रशासनिक कामकाज को लेकर इस तरह से सवाल उठेंगे? जब पिछले साल 12 जून को प्रधान न्यायाधीश के चार सबसे वरिष्ठ सहयोगियों ने काम के बंटवारे से संबंधित मुद्दा लेकर उनसे मुलाकात की, तो वे चारों इतना ही चाह रहे थे कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील एक मामले की सुनवाई किसी जज विशेष को सौंपे जाने से संबंधित उनकी आपत्तियों पर गौर किया जाए।
इसके सिवा ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। उसके बाद जो हुआ वह भी नहीं। भारत में ही नहीं, शायद कहीं और भी नहीं। मिसालें कानून के लिए नजीर की तरह होती हैं। क्या पहले कभी किसी जज ने प्रधान न्यायाधीश पर सवाल उठाया था? कुछ लोगों का कहना है कि हो सकता है, इससे पहले एक या दो जजों ने प्रधान न्यायाधीश से मुलाकात की हो। एकबार, पूर्व अटॉर्नी जनरल ने वास्तव में एक जज से मुलाकात की थी। लेकिन यह बहुत दिनों बाद ही पता चल पाया। उसके खंडन की भी कोई फिक्र नहीं की गई।
विद्रोह, बगावत, ट्रेड यूनियन सरीखे तेवर, अराजकता...न्यायपालिका के ताजा संकट को कई नाम दिए गए। चार वरिष्ठतम जजों के मीडिया के कैमरों के सामने आने की घटना थी ही इतनी अविश्वसनीय। बेशक प्रतिक्रियाएं वाजिब ही थीं। दरअसल जो कहा गया या कहा जा रहा है, या जो चिंता जाहिर की जा रही है, वह एक गहरी भावना से प्रेरित है कि न्यायपालिका की स्वायत्तता और स्वतंत्रता राजनैतिक कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त और संदेह से परे होनी चाहिए।
प्रेस कॉन्फ्रेंस की न कोई मिसाल थी, न ही कोई ऐसी परिपाटी मिलती है। लेकिन, यह न्यायिक आचरण के तय मानदंडों के दायरे में ही थी क्योंकि कोई राजनैतिक टिप्पणी नहीं की गई। अलबत्ता माहौल पूरी तरह राजनैतिक सरगर्मियों से अटा पड़ा था। जजों के बारे में मीडिया कवरेज कोई अनहोनी जैसा नहीं था। इसके पहले जस्टिस जयंत पटेल ने अपना इस्तीफा सार्वजनिक कर दिया था। जस्टिस राजीव शकधर के तबादले के विरोध में दिल्ली हाइकोर्ट के जजों ने रिपोर्टरों से ‘अनौपचारिक’ बातचीत की थी। लेकिन, यह वैसा नहीं था जैसा टकराव पर आमादा जज जस्टिस कर्णन ने किया था। जस्टिस कर्णन ने अपने आवास में अदालत लगाकर सुप्रीम कोर्ट के जजों को अवमानना के नोटिस भेजे थे। मौजूदा मामले में सभी जजों को मर्यादाओं का भी एहसास पूरा था। सभी को न्यायपालिका में काम करने का औसतन दो दशक का अनुभव है और करीब इतना ही वक्त जज बनने से पहले उन्होंने वकालत करते हुए गुजारा है। और, उनके बीच अगले प्रधान न्यायाधीश भी थे, यानी मामला “पारिवारिक कलह” से बड़ा है।
कैसे उठी चिनगारी
सीबीआइ जज बी.एच. लोया की मौत की जांच की मांग करने वाली याचिका प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने सुनवाई के लिए जस्टिस अरुण मिश्रा की अदालत में भेज दी। जज लोया सोहराबुद्दीन के कथित फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे। उस समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इस मामले में आरोपी थे जो बाद में बरी कर दिए गए। इस मामले में प्रधान न्यायाधीश ने नौ वरिष्ठ न्यायाधीशों को दरकिनार कर दिया था। यह विवाद का चरम बिंदु कहा जा सकता है। वजह यह कि हाल के समय में सुप्रीम कोर्ट के जिन तीन फैसलों पर कुछ सार्वजनिक बहस छिड़ी, उनमें से दो जस्टिस अरुण मिश्रा की अदालत में ही भेजे गए थे। यह तो उन वाकयों में से महज एक मामला है जो प्रधान न्यायाधीश
के बाद चार सबसे वरिष्ठ जजों-जस्टिस जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसफ और मदन लोकुर को नागवार लगी। हर कोई इस घटना को लेकर असमंजस में था, कम से कम चार पूर्व न्यायाधीश (जिनमें सुप्रीम कोर्ट के जज भी थे) कथित “बागी” जजों के समर्थन में खड़े हुए। कई लोगों को यह मामला राजनीति प्रेरित लगा।
समाधान तलाशने के प्रयास अब भी जारी हैं। औपचारिक और अनौपचारिक बैठकों, जिनमें से एक में कथित तौर पर जस्टिस अरुण मिश्रा भावुक हो उठे थे, का अब तक कोई फायदा नहीं हुआ है। इस बीच, प्रधान न्यायाधीश ने कुछ और महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले चारों जजों को दूर रखा है। इसमें आधार का मामला भी शामिल है, जिसकी सुनवाई एक संवैधानिक पीठ कर रही है।
मास्टर ऑफ रोस्टर
इस विवाद की जड़ में प्रधान न्यायाधीश मिश्रा के नेतृत्व वाले संवैधानिक पीठ का 10 नवंबर 2017 का एक फैसला भी है। इस पीठ में जस्टिस अरुण मिश्रा और अन्य न्यायाधीश भी थे। पीठ ने हंगामेदार सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकीलों मसलन, प्रशांत भूषण की बातों को खारिज करते हुए प्रधान न्यायाधीश को “मास्टर ऑफ रोस्टर” बताया था। इसका मतलब यह हुआ कि प्रधान न्यायाधीश अकेले यह फैसला कर सकते हैं कि कौन से जज किस मामले की सुनवाई करेंगे।
इसके पीछे भी एक कहानी है, जो 12 जनवरी को जस्टिस चेलमेश्वर के तुगलक रोड स्थित आवास में प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद से खुलनी शुरू हुई है। सिटीजन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटिबिलिटी एंड रिफॉर्म (सीजेएआर) और वकील कामिनी जायसवाल ने क्रमशः आठ और नौ नवंबर 2017 को याचिका दाखिल की। इसमें न्यायापलिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज के नेतृत्व में कराने की मांग की गई थी। इससे पहले, सीबीआइ ने हाइकोर्ट के पूर्व जज आइ.एम. कुदुसी को एक निजी मेडिकल कॉलेज के पक्ष में फैसला दिलवाने के लिए अदालत को प्रभावित करने और उसके लिए घूस लेने के आरोप में गिरफ्तार किया था। सीजेएआर और जायसवाल का कहना था कि सरकार सीबीआइ जांच के जरिए प्रधान न्यायाधीश पर दबाव डालने की कोशिश कर सकती है, क्योंकि मेडिकल संस्थानों से जुड़े मामले की सुनवाई उन्होंने ही की थी। जस्टिस अरुण मिश्रा और आर.के. अग्रवाल की पीठ ने दोनों याचिकाओं को खारिज कर दिया और सीजेएआर पर 25 लाख का जुर्माना भी लगा दिया।
इसके बाद कुदुसी और अन्य आरोपियों के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत का ऑडियो लीक हो गया। इस कथित बातचीत से पता चला कि पीठ को प्रभावित किया गया था। ‘बगावत’ के चार दिन बाद 16 जनवरी को सीजेएआर ने वरिष्ठता के लिहाज से प्रधान न्यायाधीश के बाद आने वाले पांच जजों के पास प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ एक आंतरिक शिकायत दर्ज कराई। इसी बीच, कुदुसी ने सीबीआइ कोर्ट से मीडिया में ऑडियो लीक किए जाने के मामले की जांच की मांग की।
सीबीआइ जज की संदिग्ध मौत
एक मासिक पत्रिका की वेबसाइट पर सीबीआइ के विशेष जज लोया की मौत से जुड़ी रिपोर्ट से यह मामला चर्चित हो उठा। रिपोर्ट में संदेह जताते हुए कहा गया है कि जज लोया की मौत स्वाभाविक नहीं थी और कथित तौर पर अधिकारियों ने इसे छिपाने की कोशिश की। मौत से पहले वे सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हो रही सोहराबुद्दीन शेख की कथित फर्जी मुठभेड़ मामले की जांच की निगरानी कर रहे थे। पुलिस और अन्य अधिकारियों के साथ मौजूदा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी तब मामले में आरोपी थे।
इस रिपोर्ट पर बहसें छिड़ गईं। बॉम्बे हाइकोर्ट के और अन्य कुछ जजों ने कहा कि जज लोया की मौत स्वाभाविक थी और उस वक्त कुछ साथी जज उनके साथ मौजूद थे। बाद में मीडिया रिपोर्टों में भी संदेह करने के कारणों पर सवाल उठाए गए। उनके परिवार के कुछ सदस्यों ने भी सवाल उठाए। 14 जनवरी को जस्टिस लोया के बेटे अनुज ने वकील के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि उनके पिता की मौत स्वाभाविक थी और वे इसकी जांच नहीं चाहते। इसमें दो राय नहीं कि किसी हाइ प्रोफाइल मामले की सुनवाई से जुड़े किसी जज की मौत पर उठने वाले संदेहों को दूर किया जाना चाहिए। 16 जनवरी को जब यह मामला जस्टिस अरुण मिश्रा की अदालत में आया तो उन्होंने महाराष्ट्र सरकार को इससे जुड़े दस्तावेज सौंपने के निर्देश देते हुए कहा कि मामला “उपयुक्त पीठ” के पास भेजा जाना चाहिए। अब प्रधान न्यायाधीश की अगुआई वाली पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है।
विरोध के अगुआ
मई 1997 में जस्टिस चेलमेश्वर हाइकोर्ट में एडिशनल जज बने। इसके दो साल बाद पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. खेहर हाइकोर्ट में जज बने। उसी साल चेलमेश्वर भी हाइकोर्ट में स्थायी जज बन गए थे। 2007 में चेलमेश्वर हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने। जबकि खेहर और दीपक मिश्रा इसके दो साल बाद क्रमशः नवंबर और दिसंबर 2009 में हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने। इसके बावजूद, सुप्रीम कोर्ट में जज के तौर पर जस्टिस चेलमेश्वर की प्रोन्नति अटकी रही और जस्टिस खेहर उनसे पहले सुप्रीम कोर्ट में जज बन गए। 2011 में जस्टिस चेलमेश्वर जिस दिन सुप्रीम कोर्ट के जज बने उससे कुछ मिनट पहले ही जस्टिस दीपक मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट जज के तौर पर शपथ ली थी। दिवंगत पूर्व प्रधान न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया के कार्यकाल में यह हुआ था। इन छुटपुट घटनाओं ने यह तय कर दिया कि जस्टिस चेलमेश्वर कभी देश के प्रधान न्यायाधीश नहीं बन पाएं। इस घटना ने न्यायपालिका (और अब प्रधान न्यायाधीश की) की अनियंत्रित शक्ति को लेकर लंबे विवाद के बीज बोए। इस लिहाज से देखें तो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) मामले में जस्टिस चेलमेश्वर की राय आश्चर्यचकित नहीं करती। 2015 में पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने 4-1 के बहुमत से सरकार द्वारा प्रस्तावित एनजेएसी को खारिज करते हुए जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने पास रखा था। पीठ में शामिल एकमात्र जज जिसने इसका विरोध किया वे चेलमेश्वर थे। इसी मामले के बाद वे पहली बार चर्चा में आए थे।
जस्टिस चेलमेश्वर ने अपने फैसले में जजों की नियुक्ति के सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम सिस्टम को “अपारदर्शी और सार्वजनिक नजरों से दूर बताया था।” उन्होंने फैसले में “पक्षपात”, “चापलूसी” और “लॉबिंग” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा था कि कॉलेजियम ऐसा क्लब है जिसमें शामिल लोग अपने कृपापात्रों को उपकृत करते हैं और एक-दूसरे पर एहसान करते रहते हैं। यह 1982 के भुलाए जा चुके उस मामले की तरह है जिसमें लंबी लड़ाई के बाद पहली बार पलड़ा कार्यपालिका से न्यायपालिका की ओर झुका था। उसी फैसले में जजों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र न्यायिक आयोग का उल्लेख किया गया था।
बाद में जस्टिस चेलमेश्वर ने कॉलेजियम की बैठकों में भाग लेने से इनकार करते हुए पांच सदस्यीय कॉलेजियम की बैठक के ब्योरे सबको मुहैया कराने की मांग की थी। यह टकराव आखिरी बार तब उभरा था जब टी.एस. ठाकुर और खेहर प्रधान न्यायाधीश थे। उस समय वकीलों और जानकारों के कई वर्गों में इसे “कार्यपालिका के अनुकूल व्यवहार” माना गया था। ऐसे में राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों की सुनवाई से वरिष्ठ जजों को दूर रखने के मामले को उठाकर, जो कार्यपालिका के हितों के अनुकूल नहीं लगता जस्टिस चेलमेश्वर ने कइयों को हैरान कर दिया।
इमरजेंसी और उसके बाद
न्यायपालिका और प्रधान न्यायाधीश की शक्तियों के बीच सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह से अंतर किया जा सकता है। इमरजेंसी के दौर में जब सरकार ने नागरिकों के मूलभूत अधिकार निरस्त कर दिए थे तो लगातार दो प्रधान न्यायाधीशों ने उसे जायज ठहराया था। वकीलों और विधि विशेषज्ञों का मानना है कि उस दौर में प्रधान न्यायाधीश में शक्तियां केंद्रित कर दी गई थीं, जिसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। 1983-1993 के दशक के बीच भी करीब 550 नियुक्तियों में से केवल सात में प्रधान न्यायाधीश की राय सरकार से अलग थी।
मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम न्यायपालिका के तीन अदालती निर्णयों का नतीजा है। इन निर्णयों को फर्स्ट, सेकेंड, थर्ड या थ्री जजेज केस के नाम से भी जाना जाता है। इन फैसलों से धीरे-धीरे नियुक्तियों और तबादलों पर सरकार का नियंत्रण ढीला हुआ और प्रधान न्यायाधीश की पकड़ मजबूत होती गई। साथ ही इस मामले में प्रधान न्यायाधीश के अधिकार उनके बाद के वरिष्ठ चार जजों के बीच बराबर रूप से बांटने का रास्ता साफ हुआ। कुछ अधिकार जो प्रधान न्यायाधीश के पास रह गए उनमें से एक है रोस्टर तय करना। मौजूदा बहस इसी की अहमियत पर केंद्रित है। कई हलकों में इस बात की प्रशंसा की जा रही है कि जस्टिस गोगोई ने, जिनका परंपराओं के हिसाब से अगला प्रधान न्यायाधीश बनना तय है, इस पर सवाल उठाकर शायद अक्टूबर 2018 से नवंबर 2019 के बीच 13 महीनों तक बेंच तय करने के अधिकार का भी त्याग कर दिया है। इसके बदले उन्होंने संवेदनशील मामलों को खास पीठ के पास भेजने का विरोध करने वाले तीन अन्य जजों का साथ दिया।
क्या मामला विशुद्ध सैद्धांतिक?
इस घटना ने असामान्य गरमागरम बहस को हवा दे दी है। क्या प्रधान न्यायाधीश के पास ही सारी शक्तियां होती हैं? या तकनीकी रूप से समकक्षों में उनका प्रथम होना ही वास्तविकता है? यह सवाल कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जारी बड़े संघर्ष का हिस्सा है। रोस्टर पर नियंत्रण को लेकर उठे प्रश्न नियुक्तियों से जुड़े सवाल का छोटा हिस्सा है, जो अब भी अस्पष्ट है।
किसी एक के पास अधिकारों का असीमित होना जोखिम भरा हो सकता है। कम से कम सैद्धांतिक तौर पर तो ऐसा लगता ही है कि पांच अलग-अलग जजों को भरोसे में लेने या प्रभावित करने से किसी एक को प्रभाव में लेना आसान हो सकता है। इस लिहाज से देखें तो कॉलेजियम के सदस्यों के बीच फैसला लेने की ताकत के बंटे होने से थोड़ा ही सही पर खतरा कम किया जा सकता है। हालांकि जस्टिस चेलमेश्वर की सोच के अनुसार यह भी आदर्श स्थिति नहीं है।
व्यावहारिक रूप से कार्यपालिका की चालाकी के कारण नियुक्तियों को लेकर कॉलेजियम की व्यवस्था भी ‘दिखावटी’ सरीखी लगती है। 2014 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा के नेतृत्व वाली कॉलेजियम ने शीर्ष अदालत में जज बनाने के लिए दो वरिष्ठ वकीलों के साथ हाइकोर्ट के दो जज के नाम भेजे थे। दोनों वकील थे, रोहिंटन नरीमन और गोपाल सुब्रमण्यम, जिन्हें 1993 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचलैया ने एक साथ वरिष्ठ वकील के तौर पर मान्यता दी थी। दो जज थे, जस्टिस ए.के. गोयल और ताजा घटना के बाद से सुर्खियों में आए जस्टिस अरुण मिश्रा।
सुब्रमण्यम के अलावा किसी के भी नाम पर कोई आपत्ति नहीं थी। आइबी और सीबीआइ ने सुब्रमण्यम के खिलाफ नकारात्मक रिपोर्ट दी। उनके खिलाफ माहौल बनाने के लिए रिपोर्ट मीडिया में लीक भी कर दी गई। आइबी की रिपोर्ट में कहा गया था कि न्यायसंगत तर्कों के बजाय सुब्रमण्यम आध्यात्मिक आधार पर फैसला किया करते हैं। फैसले से पहले एक आध्यात्मिक गुरु से सलाह लेते हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि वे जोर-जोर से श्लोक पढ़ा करते हैं। सीबीआइ की रिपोर्ट में कहा गया था कि औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए नीरा राडिया के साथ सुब्रमण्यम ने बातचीत की थी जिसे जांच एजेंसी ने टेप किया था। साथ ही कहा गया था कि उन्होंने पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा और सीबीआइ अधिकारियों के बीच बैठक कराई थी, जब 2जी मामले की सुनवाई चल रही थी।
अब जिन्हें गहरे विश्लेषण में रुचि हो, वे पा सकते हैं कि सुब्रमण्यम के बारे में इसके विपरीत प्रमाण मौजूद थे। सॉलिसिटर जनरल के पद से इस्तीफा देने के बाद सुब्रमण्यम ने यूपीए सरकार पर 2जी मामले में “अपराध वाले पहलू” को छिपाने के आरोप लगाए थे। राडिया ने एक बातचीत में उनकी निष्ठा को लेकर सम्मान जताते हुए कहा था कि उन्हें डिगाया नहीं जा सकता।
दरअसल सुब्रमण्यम के सख्त रवैए के कारण ही सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति का मामला सीबीआइ को सौंपा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों में उन्हें एमीकस क्यूरी बनाया था। इसने मोटे तौर पर यूपीए के बाद सत्ता में आई एनडीए सरकार में उन्हें अलोकप्रिय कर दिया। आइबी और सीबीआइ की लीक रिपोर्ट ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए वोट करने वाली जनता के बीच उनके विरोध में माहौल तैयार करने में मदद की। इसने कॉलेजियम को प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर कर दिया। कॉलेजियम के एक सदस्य ने एक मीडिया बातचीत में स्वीकार किया था कि चयन के वक्त वे सुब्रमण्यम के आध्यात्मिक झुकाव से परिचित थे।
न्यायिक स्वतंत्रता को परखने का यह सटीक मामला हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में क्या किया यह जानकारी में नहीं है। वैसे सुब्रमण्यम की अगर नियुक्ति हो जाती तो वे प्रधान न्यायाधीश के तौर पर रिटायर हो सकते थे। उसके बाद टकराव तीखा हो गया। एनजेएसी को लेकर फैसला अक्टूबर 2015 में आया। बाद में प्रधान न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर एक कार्यक्रम में भावुक हो गए जिसको लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। लेकिन, उनका कार्यकाल एनजेएसी मामले में मात खाने वाली सरकार की चालाकियों के खिलाफ मजबूत संघर्ष के तौर पर देखा जाता है। जब तक मीडिया के रुख में थोड़ा-सा बदलाव नहीं आया, सरकार ने न्यायपालिका की नियुक्तियों को रोके रखा। वहीं, ठाकुर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की दीवार को बनाए रखने में सफल रहे।
उसके बाद जब जस्टिस खेहर प्रधान न्यायाधीश बने तो आम राय में बदलाव आना शुरू हुआ जो संकट का एक भिन्न पहलू है। पहले, बिड़ला-सहारा डायरी मामले में जस्टिस खेहर के नेतृत्व वाली पीठ ने स्वतंत्र जांच की इजाजत देने से इनकार कर दिया। बाद में, अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की आत्महत्या और उनके कथित विस्फोटक सुसाइड नोट से जुड़ा मामला सामने आया, जिसमें न्यायपालिका के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए गए थे। तथाकथित बगावत की पूरी कहानी दो कोणों में बदल चुकी है। पहला, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच का संघर्ष जिसे चार जजों ने लोकतंत्र के लिए गंभीर बताया। और दूसरा, इसकी महान जटिलता के पीछे छिपा अंदरखाने का आचरण जो इस टकराव में उसे कमजोर बनाता है।
“प्रधान न्यायाधीश के मातहत नहीं हैं बाकी न्यायाधीश”
न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और जस्ती चेलमेश्वर ने जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद की शपथ ली तो जस्टिस (रिटायर्ड) आरवी रवींद्रन सुप्रीम कोर्ट के जज और कॉलेजियम के सदस्य थे। उशीनर मजूमदार के साथ इस बातचीत में वे उन चंद सवालों पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं, जो प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद शीर्ष न्यायालय की प्रशासकीय कार्यपद्धति पर उठे हैं।
-प्रधान न्यायाधीश के हाथ में सुप्रीम कोर्ट के जजों के अधिकार क्यों नहीं केंद्रित हैं?
सुप्रीम कोर्ट देश की सर्वोच्च अदालत है। शीर्ष पर प्रधान न्यायाधीश नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट है। प्रधान न्यायाधीश के अधिकार अन्य जजों से अधिक नहीं हैं, क्योंकि जज उनके मातहत नहीं हैं। ये न्यायिक अधिकारों के पालन में उनके समान ही हैं। प्रधान न्यायाधीश अतिरिक्त प्रशासकीय अधिकारों के साथ समकक्षों में वरिष्ठ हैं। प्रधान न्यायाधीश से लेकर बाकी सभी जजों के पास एकसमान न्यायिक शक्तियां हैं। वरिष्ठता सुप्रीम कोर्ट के किसी भी जज को उच्च या अतिरिक्त न्यायिक अधिकार नहीं देती है। इससे उन्हें सिर्फ प्रधान न्यायाधीश बनने या कॉलेजियम के सदस्य या किसी खंडपीठ का प्रमुख होने जैसे कुछ प्रशासकीय विशेषाधिकार मिलते हैं।
-प्रधान न्यायाधीश कैसे रोस्टर तय करते हैं?
प्रधान न्यायाधीश के पास किसी खंडपीठ के गठन और उसके सदस्यों के चयन का विशेषाधिकार होता है। इसका कोई नियम नहीं है। यह मामले की सहूलियत, संबंधित क्षेत्र में जज की विशेषज्ञता, अन्य अहम मामले में जज विशेष की आवश्यकता और कुछ हद तक प्रधान न्यायाधीश की “व्यक्तिपरक” प्राथमिकता पर निर्भर करता है। उदाहरण के तौर पर, अगर पांच जजों की एक संविधान खंडपीठ गठित की जानी है तो प्रधान न्यायाधीश पांच खंडपीठ (अगर सिर्फ सबसे वरिष्ठ जजों की संविधान खंडपीठ बनानी हो तो) को तोड़ने की जगह तीन और दो जजों की खंडपीठ को जोड़ने पर विचार कर सकते हैं। एक बार जब खंडपीठ के गठन को लेकर प्रधान न्यायाधीश की नीयत पर सवाल उठता है तो अदालत के लिए काम करना या विश्वसनीयता बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। मैंने पहले भी कहा कि मैं सहमत हूं कि मौजूदा हालात से बचने के लिए पहले से स्वीकृत परिपाटी और मापदंडों या कुछ नियमों का पालन करना हमेशा अच्छा होता है।
-कई महत्वपूर्ण मामले आ रहे हैं, ऐसे में क्या यह नुकसानदेह नहीं है कि इन शीर्ष चार जजों को इन मामलों से हटाया जा रहा है?
मीडिया में सिर्फ महत्वपूर्ण मामलों के ही चर्चे नहीं हैं। यह जरूरी नहीं कि वरिष्ठता का मतलब अधिक न्यायिक अनुभव का होना है। जैसे, अगर जज 5,6 और 7 को एक ही दिन नियुक्त किया गया, तो मतलब यह नहीं कि जज 5 के पास जज 6 और 7 से अधिक न्यायिक अनुभव नहीं है। यह चयन सभी राज्यों और वर्गों के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखकर किया जाता है तो यह मुमकिन है कि जूनियर जज के पास वरिष्ठ जज से अधिक न्यायिक अनुभव हो। सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्ति इसलिए की जाती है कि उनके पास पहले से समृद्ध न्यायिक अनुभव या बार में अनुभव होता है।
-क्या इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से जजों के लिए निर्धारित किसी नियम या राष्ट्रीय आचार संहिता का उल्लंघन हुआ है?
मैं प्रेस कॉन्फ्रेंस को जजों के लिए तय आचार संहिता का उल्लंघन नहीं कहूंगा। मैं इसे दुर्भाग्यपूर्ण और अपरिहार्य मानता हूं-जो न्यायपालिका की पारंपरिक एवं स्थापित परिपाटी से एक भटकाव है। सही-गलत या प्रेस कॉन्फ्रेंस की आवश्यकता पर बिना कोई टिप्पणी किए, सोच यह है कि जजों द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस का सहारा लेना बेहद चिंताजनक और दुखद है। अगर प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद एक जज के शब्दों में कहें तो मेरी चिंता यह है कि 20 साल बाद कोई इसे सुप्रीम कोर्ट का काला इतिहास (ब्लैक फ्राइडे) न कहे।
-नवंबर में संवैधानिक खंडपीठ ने फैसला दिया कि प्रधान न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के रोस्टर के प्रमुख हैं। यह व्यावहारिक है?
वादियों द्वारा बेंच की मांग से बचने के लिए सभी “उल्लिखित” केस एक ही कोर्ट में होने चाहिए। आदर्शतः यह प्रधान न्यायाधीश के कोर्ट में जाना चाहिए और उनकी गैर मौजूदगी में दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश के कोर्ट में।