Advertisement

दोराहे पर दलित नेता

राज्य के दलितों में बढ़ती बेचैनी से दलित नेताओं में अपनी स्वअतंत्र पहचान बनाने की सुगबुगाहट
किस ओर रुखः गया के टेकारी में नीतीश कुमार की रैली में जुटे लोग

बक्सर के नंदन गांव में नीतीश कुमार के काफिले पर पथराव के बाद बिहार में दलितों को लेकर राजनीति तेज हो गई है। नंदन गांव में विकास समीक्षा यात्रा के लिए पहुंचे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के काफिले पर पत्थरबाजी की गई थी, जिससे कई गाड़ियों के शीशे टूट गए और सीएम को बमुश्किल वहां से सुरक्षित निकाला गया। इस घटना के बाद लोगों की गिरफ्तारी को लेकर एक तरफ तेजस्वी यादव ने राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा तो विभिन्न दलों में वर्षों तक नेतृत्व की हां में हां मिलाने वाले कई नेता अपने समुदाय की बेहतरी के बहाने स्वतंत्र पहचान बनाने की कोशिश में जुट गए हैं। इसका असर भी नजर आ रहा है। कांग्रेस चुप है। बाकी दलों ने दलित वोटरों को प्रभावित करने वाले नेताओं के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं।

फिलहाल, ये नेता नफा-नुकसान का हिसाब लगा रहे हैं। राज्य के सबसे बड़े दलित नेता रामविलास पासवान चुनाव से कुछ पहले मौसम का अनुमान लगाकर पाला बदलते हैं। खूबी यह है कि उनका अंदाजा आजतक गलत नहीं हुआ है। अपवाद सिर्फ 2009 है, जब राजद के साथ गठबंधन बनाने के बावजूद वे लोकसभा चुनाव हार गए थे। हालांकि, राजद ने उनका पूरा ख्याल रखा।

बहरहाल, राज्य की दलित राजनीति की चर्चा के केंद्र में हैं-पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतनराम मांझी, विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी, पूर्व मंत्री श्याम रजक और अशोक चौधरी। उदय और श्याम जदयू से जुड़े हैं, जबकि अशोक चौधरी खानदानी कांग्रेसी हैं। मांझी को छोड़ दें तो अन्य तीनों का नेतृत्व से विवाद चल रहा है। अशोक की नाराजगी इसलिए है कि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से चलता कर दिया गया। श्याम रजक लंबे समय तक मंत्री रहे हैं। लालू प्रसाद, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार और जीतनराम मांझी की सरकार में उनका ओहदा कायम रहा। लेकिन, 2015 में नीतीश कुमार ने जब कैबिनेट का गठन किया तो श्याम रजक को जगह नहीं मिली। उन्होंने उदय नारायण चौधरी के साथ मिलकर सरकार में ठेके पर होने वाली बहालियों में आरक्षण की मांग की। नीतीश को लगा कि मांग जोर पकड़ लेगी तो परेशानी बढ़ सकती है। सो, उन्होंने यह मांग मान ली।

हालांकि, श्याम रजक का कहना है कि मैं मुख्यमंत्री से कभी नाराज नहीं था। जब उनसे पूछा गया कि बक्सर के नंदन गांव में नीतीश के काफिले पर हमला हुआ। कहते हैं कि हमलावर दलित थे? तो उन्होंने कहा कि हमला कोई किसी पर करे, वह निंदनीय है। नीतीश ने दलितों-महादलितों का विकास किया है। कुछ कमी रह गई होगी। इसका मतलब यह नहीं कि उनपर हमला किया जाए।

उधर, उदय नारायण चौधरी ने अपने लिए जल्द ही नया मुद्दा खोज लिया। उन्होंने शरद यादव के दूत बनकर पटना आए अरुण कुमार श्रीवास्तव से लंबी बातचीत की। नए साल के मौके पर जब उदय बधाई देने के लिए नीतीश के सरकारी आवास पर पहुंचे तो अचानक यह चर्चा तेज हो गई कि दोनों के बीच दोस्ती हो गई है। मगर, यह चर्चा दिन भर भी नहीं टिक पाई, क्योंकि अगले ही दिन उदय ने लालू प्रसाद के प्रति हमदर्दी जताकर साफ कर दिया कि उनका रास्ता नीतीश के समानांतर है। हालांकि, वह कहते हैं कि हमारी भावना को नीतीश कुमार के विरोध के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। हम तो उन्हें उन वादों की याद दिला रहे हैं, जो उन्होंने समय-समय पर किए थे। भूमिहीन दलितों-महादलितों को पांच डिसमिल जमीन देने का सवाल है। बच्चों की छात्रवृत्ति रोक दी गई है। अभी सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है कि नौकरियों और दाखिले में भी आरक्षित श्रेणी के लोगों को उसी वर्ग का लाभ मिलेगा, वे जिस वर्ग में हैं। यह वंचितों को आरक्षण के लाभ से वंचित करने वाला आदेश है। हम उम्मीद कर रहे थे कि नीतीश कुमार इस मसले पर केंद्र के सामने कड़ा प्रतिरोध दर्ज करते।

रंग ढंग बता रहे हैं कि नीतीश कुमार ने भी उदय नारायण चौधरी को अपने रजिस्टर के बट्टा-खाता में डाल दिया है। उदय की कमी की भरपाई के लिए कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी का भाव बढ़ा दिया है। दोनों दलितों की पासी बिरादरी से आते हैं। अशोक भी नीतीश कुमार से अपनी नजदीकी जाहिर करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे हैं। बीते साल पटना यूनिवर्सिटी के एक जलसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आए थे। नीतीश कुमार ने अपने संबोधन के दौरान मंच से दूर बैठे अशोक चौधरी का नाम ही नहीं लिया, बल्कि चुटकी भी ली, आप यहां हैं। इसके लिए आपके खिलाफ कोई कार्रवाई तो नहीं होगी? अशोक ने नीतीश से दोस्ती के मामले में कभी कांग्रेस की परवाह नहीं की। मकर संक्रांति के मौके पर वे जदयू के उस भोज में शामिल हुए, जिसमें कांग्रेस को नहीं बुलाया गया था। चौधरी का कहना था कि निजी रिश्तों के चलते वह भोज में शामिल हुए। कांग्रेस नेता प्रेमचंद्र मिश्रा ने तंज कसा-हां, बीस महीने तक एक कैबिनेट में रहने के चलते रिश्तेदारी हो गई होगी। जवाब में अशोक चौधरी ने कहा कि दलित होने के चलते उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। फिलहाल चौधरी और नीतीश की करीबी इस हद तक बढ़ी हुई है कि वह खुद पहल न करें, तब भी कांग्रेस के लोग ही उन्हें जदयू के दफ्तर में दाखिल करा देंगे। उनके लिए राहत की बात यह भी है कि भाजपा के लोग भी इंतजार कर रहे हैं। भाजपा के सीनियर नेता और मंत्री नंदकिशोर यादव ने अशोक चौधरी को यह कहकर आकर्षित किया कि कांग्रेस डूबती नैया है।

समर्थन भी विरोध भीः पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी कर रहे आगे की रणनीति पर विचा

एनडीए के घटक दल हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी राजद से सहमत हैं कि लालू प्रसाद के परिवार को परेशान किया जा रहा है। कभी-कभी कुछ घंटों के अंतराल पर ही मांझी पलटी मारते नजर आते हैं। भाजपा ने तामझाम के साथ उन्हें एनडीए में शामिल किया था। विधानसभा चुनाव में अगर एनडीए की सरकार बनती तो कोई अच्छा पद भी दिया जा सकता था। उस समय सरकार नहीं बनी।  आस यह थी कि केंद्र की भाजपा सरकार राज्य में राज्यपाल बना देगी। साथ रह रहे लोग अलग से उन्हें सुरक्षित ठिकाना खोजने की नसीहत दे रहे हैं। कभी गया जिले में सिमटे मांझी मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य के दलितों के एक बड़े समूह के नेता बन गए हैं। इसलिए उनकी पूछ लगभग हरेक दल में है। इस पर वह खुद कहते हैं, “मैं विरोध नहीं कर रहा हूं। मैंने सीएम की हैसियत से सभी वर्गों के हित के लिए कई योजनाएं शुरू की। अब उन्हें बंद किया जा रहा है तो हमें तकलीफ होगी ही। हम चाहते हैं कि सरकार उन योजनाओं को लागू करे। हमें नीतीश सरकार पर पूरा भरोसा है। लेकिन, योजनाएं लागू नहीं हुईं तो हम आगे की रणनीति बनाएंगे।”

वैसे, विधानसभा चुनाव का परिणाम एनडीए में जाने की ख्वाहिश रखने वाले दलित नेताओं को डराता भी है। क्योंकि उस चुनाव में महागठबंधन के घटक दलों, राजद-जदयू-कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों की आरक्षित सीटों पर जबरदस्त प्रदर्शन किया था। इस श्रेणी की 38 में से 28 सीटों पर महागठबंधन ने जीत दर्ज की थी। नौ एनडीए और एक भाकपा माले के खाते में गई थी। मांझी तो अपनी सीट बचा ले गए, मगर सबसे बड़े दलित नेता रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा को किसी भी आरक्षित सीट पर कामयाबी नहीं मिली।

यह परिणाम विधानसभा के साल भर पहले हुए लोकसभा चुनाव के ठीक उलट था, जिसमें छह की छह आरक्षित सीटों पर एनडीए ने जीत दर्ज की थी। इनमें से तीन सांसद तो लोजपा के ही थे-रामविलास पासवान, रामचंद्र पासवान और चिराग पासवान। अपने दौर के असरदार दलित नेता रमई राम इन दिनों शरद यादव गुट के जदयू धड़े के प्रदेश अध्यक्ष हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव हारने के चलते रमई की साख कमजोर हुई है। इसके बावजूद रविदास बिरादरी में उनके असर से इनकार नहीं किया जा सकता। अबतक के आसार यही बता रहे हैं कि रमई राम राजद कुनबे की शान बढ़ाएंगे।

Advertisement
Advertisement
Advertisement