न स्विंग है, न टर्न। केवल असमान उछाल। जिससे हर वक्त चोटिल होने का खतरा होता है। इस तरह की पिच पर क्रिकेट मैच रद्द हो जाते हैं। पर बिहार इसी तरह के हालात में देश के सबसे बड़े घरेलू टूर्नामेंट रणजी ट्रॉफी में 15 साल बाद वापसी की तैयारी कर रहा है। वापसी की राह खुली है चार जनवरी को आए सुप्रीम कोर्ट के एक अंतरिम आदेश से। शीर्ष अदालत ने खेल और खिलाड़ियों के हित के मद्देनजर बिहार क्रिकेट एसोसिएशन (बीसीए) को इस साल रणजी ट्रॉफी और अन्य घरेलू क्रिकेट प्रतियोगिताओं में भाग लेने की मंजूरी दी है। इस फैसले से एक ओर नई उम्मीदें जगी हैं। दूसरी ओर है, बिहार में क्रिकेट की ध्वस्त आधारभूत संरचना और संसाधनों का घोर अभाव। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इस आदेश से बिहार में क्रिकेट के दिन बहुरेंगे?
बीसीसीआइ के सौतेले व्यवहार, राज्य सरकार की चुप्पी और राज्य क्रिकेट संघ की गद्दी पाने की तीन गुटों की लड़ाई के कारण आज प्रदेश में 22 गज की एक ऐसी पिच नहीं है जो अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरी उतरे। जबकि 17 साल पहले बिहार से अलग होने वाला झारखंड वनडे, टी-20 तो छोड़िए टेस्ट मैच की भी मेजबानी कर चुका है। भारत के अंडर-19 टीम के कप्तान रह चुके आमिकर दयाल कहते हैं, “बंटवारे के बाद राज्य क्रिकेट संघ की कुर्सी हासिल करने की लड़ाई में कई होनहार खिलाड़ियों का कैरियर बर्बाद हो गया। लीग मैच और टूर्नामेंट बंद होने के बाद क्रिकेटरों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। आज दूसरे राज्यों की क्रिकेट अकादमी में बिहार के क्रिकेटर भरे पड़े हैं।”
ईशान किशन, सौरव तिवारी, शाहबाज नदीम जैसे खिलाड़ी आज दूसरे प्रदेशों के लिए खेल रहे हैं। देश के सबसे सफल कप्तान महेंद्र सिंह धोनी भी 2003-04 सत्र तक बिहार की ओर से रणजी खेलते थे। 1983 वर्ल्ड कप की विजेता टीम के सदस्य और बिहार के दरभंगा से सांसद कीर्ति आजाद कहते हैं, “क्रिकेट का ज्यादातर ढांचा राज्य के जिस हिस्से में था वह बंटवारे के बाद झारखंड में चला गया। विभाजन के बाद बिहार के हिस्से केवल पटना का मोइनुलहक स्टेडियम आया। बाद के वर्षों में भी ढांचा तैयार करने की कोशिश नहीं की गई। आज राज्य में संसाधनों का घोर अभाव है। अकादमी नहीं है। जिलों में निरंतरता से चलने वाले टूर्नामेंट नहीं हैं। ऐसे में अच्छे खिलाड़ी कैसे तैयार होंगे।”
आजाद के संरक्षण में किसी समय एसोसिएशन ऑफ बिहार क्रिकेट (एबीसी) बनाकर राज्य में क्रिकेट का ढांचा खड़ा करने की कोशिश की गई थी। उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र दरभंगा में 2003 में एक टूर्नामेंट की शुरुआत भी की थी, जिसमें भाग लेने के लिए हरभजन सिंह, मोहम्मद कैफ जैसे क्रिकेटर पहुंचे थे। आजाद के मुताबिक आर्थिक अभाव के कारण एबीसी को जिला स्तर पर होने वाले ऐसे आयोजन बंद करने पड़े थे। अब आजाद का एबीसी की राजनीति से नाता भी नहीं है।
राजधानी पटना स्थित राज्य के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम मोइनुलहक की स्थिति आजाद और दयाल की बातों की पुष्टि करती है। स्टेडियम की इमारत खस्ताहाल है और जगह-जगह घास उगी है। 1969 में बना यह स्टेडियम किसी समय देश के चुनिंदा स्टेडियमों में था। आखिरी अंतरराष्ट्रीय मैच 1996 विश्वकप के दौरान केन्या और जिम्बाब्वे के बीच खेला गया था। कभी 25 हजार की क्षमता वाले इस स्टेडियम में आज गैलरी बैठने लायक नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड का केवल ढांचा रह गया है। खिलाड़ी कम और जवान अधिक नजर आते हैं, क्योंकि यहां सीआरपीएफ का कैंप है।
यह स्थिति रातोंरात पैदा नहीं हुई है। 2000 में बिहार के बंटवारे से पहले सबकुछ ठीक-ठाक था। बाद में बीसीसीआइ ने बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के बजाय झारखंड क्रिकेट एसोसिएशन को मान्यता देकर 1936 से रणजी ट्रॉफी खेल रहे बिहार से उसका हक छीन लिया। क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार के सचिव आदित्य वर्मा के मुताबिक मैदान में बिहार की वापसी आसान नहीं है। क्रिकेट संघों की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट ले जाने वाले वर्मा संसाधनों के अभाव के साथ-साथ इसका कारण बीसीसीआइ को भी मानते हैं। उनके मुताबिक बीसीसीआइ की नीयत अब भी साफ नहीं है। उसने झारखंड क्रिकेट एसोसिएशन को मान्यता दे रखी है जो कहता है कि पहले वही बीसीए था। दूसरी ओर, बीसीए को एसोसिएट सदस्य के तौर पर भी मान्यता दे रखी है। जब तक मान्यता का सवाल हल नहीं होता बिहार को उसका हक नहीं मिलने वाला।
हालांकि बीसीए का दावा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब ये सवाल बेमानी हो चुके हैं। पर राज्य में क्रिकेट का ढांचा किस तरह खड़ा किया जाएगा इसका रोडमैप उसके पास नहीं है। उसकी सारी उम्मीदें अब राज्य सरकार और बीसीसीआइ पर टिकी हैं। बीसीए के सचिव रविशंकर प्रसाद सिंह ने बताया कि संघ के पास इस वक्त अपना कुछ नहीं है। मोइनुलहक स्टेडियम को लीज पर लेने के संघ ने राज्य सरकार को प्रस्ताव दे रखा है। बीसीसीआइ से फंड की मांग की गई है। फिलहाल बोर्ड से मदद के नाम पर एसोसिएशन को जूनियर लेवल के उन मैचों का खर्च मिलता है जिनका वह आयोजन करवाती है। पिछले साल विजय मर्जेंट ट्रॉफी अंडर-16 के दो मैचों की मेजबानी बिहार से इसलिए छिन गई थी, क्योंकि बीसीए मोइनुलहक स्टेडियम के लिए सरकार के साथ एमओयू करने में विफल रहा था।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राज्य के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने बीसीए के साथ एमओयू की बात कही है। लेकिन, इससे पहले ऐसी घोषणाएं कभी जमीन पर उतर नहीं पाईं। 2013 में राज्य के तत्कालीन कला संस्कृति, खेल एवं युवा मामलों के मंत्री सुखदा पांडे ने स्टेडियम के जीर्णोद्धार और सीआरपीएफ का कैंप हटाने की घोषणा की थी, पर कुछ भी नहीं हुआ। जनवरी 2016 में तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने जीर्णोद्धार की बात कही। मार्च 2017 में उस समय के कला, संस्कृति एवं युवा मामलों के मंत्री शिवचंद्र राम ने विधानसभा में बताया था कि मोइनुलहक स्टेडियम को तोड़कर नए सिरे से स्टेडियम बनाया जाएगा। 40 हजार दर्शकों की क्षमता वाले इस स्टेडियम के पुनर्निर्माण पर 300 करोड़ खर्च होने का अनुमान था। लेकिन, स्टेडियम आज भी अपनी बदहाली पर रो रहा है।
बिहार के खेल निदेशक डॉ. संजय सिन्हा ने आउटलुक को बताया कि बदली हुई परिस्थितियों में बीसीए के प्रस्ताव का सरकार इंतजार कर रही है। इसके बाद ही मोइनुलहक स्टेडियम को लेकर कोई फैसला किया जाएगा। वैसे, बीसीए इस स्टेडियम का पुनर्निर्माण सरकार के बजाय बीसीसीआइ की मदद से करना चाहता है। उसने स्टेडियम लीज पर लेने का जो प्रस्ताव पहले से दे रखा था उसमें सरकार को पुनर्निर्माण तक सालाना 12 लाख और उसके बाद सालाना 50 लाख रुपये किराया देने की बात कही गई है। लेकिन, बीसीसीआइ फौरी तौर पर बिहार को आर्थिक मदद देने के मूड में नहीं दिखता। इस संबंध में पूछे जाने पर बीसीसीआइ के कार्यकारी अध्यक्ष सीके खन्ना ने आउटलुक को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बिहार रणजी ट्रॉफी खेल सकता है। अन्य मुद्दों पर बात करने का यह सही समय नहीं है। बीसीसीआइ के इस रुख के लिए काफी हद तक बीसीए भी जिम्मेदार है। दरअसल, 2008 में एसोसिएट सदस्य बनाने के बाद बीसीसीआइ ने बिहार में क्रिकेट की स्थिति सुधारने के लिए 50 लाख रुपये का फंड दिया था। बीसीए इस पैसे का हिसाब नहीं दे पाया है। अब इस संबंध में बीसीए के पदाधिकारी बात करने से बचते हैं।
साफ है कि मैदान से बाहर कई मैच बिहार में अब भी शेष हैं, तब तक प्रतिभावान खिलाड़ियों का पलायन ही सच है।